-विनायक शर्मा||
अब यही योजना आयोग डीजल और रसोई गैस के दामों में की गयी वृद्धि को उचित व आवश्यक बता रहा है. कोई इनसे पूछे कि – भाई इन तेल कम्पनियां को अचानक इतना
बड़ा घाटा कैसे होने लगा ? किसने कहा था कि पेट्रोलियम पदार्थों पर टाटा और अम्बानी से लेकर निचले स्तर पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से सब्सिडी का लाभ खैरात में बांटा जाये ? सब्सिडी का अर्थ क्या है ? जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएं देश के गरीब व निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को सस्ती दरों पर समान रूप से उपलब्ध हों, इसके लिए राजसहायता के रूप में सस्ते दरों पर वस्तुएं केवल पात्र नागरिकों को ही उपलब्ध होनी चाहिए थी. जबकि वास्तव में इसके ठीक विपरीत देश के अरबपति को भी वित्तीय सहायता प्राप्त वस्तुएं समान रूप से सस्ते दर पर मुहैया करवाई गयी जिसका उसने खूब लाभ लिया. हिमाचल प्रदेश में भी पूर्व की कांग्रेस सरकार ने खुले बाजार में दलहन के दामों में हुई बढ़ोतरी पर प्रदेश के सभी नागरिकों को सरकारी राशन की दुकानों के द्वारा राशन कार्डधारकों को प्रतिमाह तीन किलों विभिन्न दालें, सरसों का तेल, रिफाईंड व नमक का पैकेट सस्ती दरों पर देना प्रारम्भ किया था. वर्तमान सरकार ने भी इस लोकलुभावन स्कीम को बा-दस्तूर जारी रखा है. प्रश्न यह है कि आयकर के दायरे में आनेवालों और अन्य साधनसपन्न लोगों को क्या यह सुविधा मिलनी चाहिए ? इस सारे उपक्रम पर जो खर्चा प्रतिवर्ष होता है क्या उसको अन्य विकास कार्यों में नहीं लगाना चाहिए ? सस्ते दर पर पेट्रोल केवल दोपहिया वाहनों को ही मिलना चाहिए था, सस्ती रसोई गैस केवल निम्न और आयकर की रेंज में न आनेवालों को ही मिलना चाहिए था. इसी प्रकार सस्ता डीजल भी मध्यम वर्ग के किसानों, खाद्यान्न व रोजमर्रा की जरूरतों का समान ढोनेवाले वाहनों को ही मिलना चाहिए था न कि बड़े किसानों, वाहन व कलपुर्जे ढोनेवाले वाहनों या डीजल की कारों को. वैसे भी चुनाव जीतने के लिए पेट्रोलियम के दाम न बढ़ाना मतदाताओं को एक प्रकार की रिश्वत नहीं तो और क्या है ? तेल कंपनियों को घाटा हुआ सो अलग से. अब अगला-पिछला सारा घाटा एक बार में ही सरकार ने पूरा करने का निर्णय ले लिया है. इस सिलसिले में सरकार को कर-ढांचे में भी सुधार करने की आवश्यकता है. दो पैसे की बुढ़िया और दो आना बाल कटाई वाली कहावत चरितार्थ होती है पेट्रोलियम पदार्थों पर लगनेवाले करों को देख कर. आधारभूत मूल्यों से दुगना तो इस पर कर ही लग जाता है उपभोक्ता तक पहुँचने तक.
लोकसभा या प्रदेशों का चुनाव सर पर होने पर तो किसी भी वस्तु के दाम नहीं बढते हैं, वहीँ चुनावोंपरांत अचानक दाम बड़ा दिए जाते हैं. बहुमत को लूट का लाइसेंस माननेवाले अधिकतर राष्ट्रव्यापी और आवश्यक निर्णय संसद के सत्र से पहले या बाद में क्यूँ लेते हैं ? क्या यह संसदीय परम्पराओं और मर्यादाओं की अवमानना नहीं है ? स्वतंत्रता पश्चात् १९५० में भारत को गणराज्य का स्वरूप देने हेतु अपने राज्य, जागीरों और रियासतों का विलय करनेवालों को मिलनेवाले प्रीविपर्स को बंद करके समाजवाद और मितव्ययता के नाम पर वाह-वाही लूटनेवालों की सरकारों में परिवारवाद, भाई भतीजावाद और बड़े पैमाने की मची लूट-खसोट के साथ ही सरकारी फिजूलखर्ची ने भी सभी सीमाएं लाँघ दी हैं. सूचना के अधिकार से प्राप्त की गई एक जानकारी के अनुसार, भारत सरकार ने विगत तीन वर्षों में नेताओं के गौरवगान के विज्ञापनों पर ही ५८ करोड़ रुपये का खर्चा कर दिया. इसी प्रकार केंद्र और राज्य सरकारों की तमाम समितियों द्वारा अनावश्यक कार्यों के लिए जरूरी बताकर की गई देश-विदेश की यात्राओं पर भी लगाम लगनी चाहिए जिस पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये का खर्चा कर दिया जाता है. विशेष धर्मावलंभियों को रिझाने के लिए दी जाने वाली सरकारी खर्चे की इफ्त्यार पार्टी का भी क्या औचित्य है ? सरकारी खर्चे पर ऐसी पार्टियों की प्रथा अनावश्यक और सत्ता का बेजा इस्तेमाल नहीं तो और क्या है ? यदि किसी ने ऐसी पार्टी देनी भी है तो वह अपने खर्चे पर देने के लिए स्वतन्त्र है.
डीजल गैस के दाम बढने से पूर्व ही खुदरा महंगाई दर का बढ़ कर १o.६ पर पहुचना, औद्योगिक व कृषि उत्पादन दर के साथ ही विकास दर का गिरना क्या दर्शाता है ? इन सब के मध्य सबसे चिंताजनक है नए रोजगार के साधनों की अनुपलब्धता. पहले तो ग्रामीण क्षेत्रों में किसान ही कर्ज व फसलों की बर्बादी के कारण आत्महत्या जैसे अमानवीय कृत करने को बाध्य हो रहे थे, वहीं अब शहरी क्षेत्रों के पढेलिखे नौजवान महंगाई व बेरोजगारी से त्रस्त हो आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं. आजाद देश के लिए इससे बढ़ कर शर्मनाक बात और क्या हो सकती है.
महंगाई को नियंत्रण में रखने में विफल रही सरकारें चुनाव से पूर्व जनता को लुभाने के लिए सब्सिडी का जाल फेंकती हैं और जब पानी सर से ऊपर जाने लगता है तो अपनी हर गलत नीतियों, नाकामयाबियों और विफलताओं को ढकने के लिए बिगडती अर्थव्यवस्था को सुधारने के नाम पर महंगाई बढ़ाने वाले कठोर उपायों को जरूरी बता जनता पर थोपने से जरा भी गुरेज नहीं करती. ऐसे में पहले से महंगाई की चक्की में पिस रही जनता के लिए चुपचाप रसोई गैस और डीजल के दामों की यह बढोतरी सहना मजबूरी नहीं तो और क्या है?