गरीबी के चलते घर खर्च चलाना ही मुश्किल रहा और ऐसे में बेटी का विवाह भी नहीं हो पाया और बेटी की शादी की उम्र भी गुजर गयी. अब प्रौढ़ हो चुकी कुंवारी बेटी का दुःख झेलना मुश्किल हो गया है महाले से. जब और कोई रास्ता नहीं मिला दुखों से पार पाने का तो अब राष्ट्रपति से इच्छा मृत्यु मांग रहा हैं यह इन्सान….
-दिलीप सिकरवार||
जिन्दगी से बेहतर तो अब मरना लग रहा है. महंगाई मारे जा रही. है. अपना और अपने परिवार का पेट भरना मुश्किल हो रहा है. भोजन से सस्ता तो जहर लगता है. क्यों न जहर खा लिया जाये. ३० रूपये प्रतिमाह में अब नही होता गुजारा. इसलिए राष्ट्रपतिजी मुझे इच्छा मृत्यु (आत्महत्या) की अनुमति प्रदान करें. यह मार्मिक निवेदन है वाणिज्यिक कर विभाग में रहे माधव गोपाल महाले का है. दिनों-दिन बढती महंगाई से उनका परिवार असंतुलित हो गया है. महाले अब सेवानिवृत हो चुके है. उनके ३५ वर्षों के सेवाकाल में एक भी पदोन्नति नही मिली. वे निम्न श्रेणी लिपिक बने रहे. यही वजह रही उन्हें पेंशन भी कम मिलती है. हालाँकि वे हार नही मानते हुए न्यायालय की शरण भी गये मगर यह फैसला लंबित है.
मार्च २००२ में घर बैठने के बाद से दुर्दिनो की शुरुआत सी हो गयी. ७० साल के महाले शरीर से कमजोर हो चुके हैं. बेटी शादी के इंतजार में ३८ साल की हो गयी है. उसकी शादी का खर्चा वश में नही रहा. बेटे है. लेकिन उन्हें अपने कामो से फुर्सत नही मिलती. तमाम उलझनों से मुक्ति का एक रास्ता महाले को सुझा- इच्छा मृत्यु का. सो देश के राष्ट्रपति को पत्र लिखा है. बकौल महाले, भूखे रहकर संघर्ष करने बेहतर है मरना.
कौन है माधव महाले
अपने समय के बड़े अधिकारीयों को अनुभव से बेहतर निर्णय लेने में मदद करने वाले महाले है. आज भी उन्होंने उम्र से समझौता नही किया है. ७० साल की उम्र में सामाजिक कार्यो में जुटे रहते हैं. शहर के राजनेता सलाह मशविरा उन्ही से करते दिख जायेंगे. परन्तु आज वे निराश हैं. न्यायालय में प्रकरण धूल खा रहा है. उन्हें चिंता है कि बेटी का क्या होगा.
आज के उस दौर मे जहाँ रोटी मेँगी हो जाती हैं लोग कमाई की दौड़ मे अकएले रह जाते हैं….
क्या सरकार का फ़र्ज़ सिर्फ़ जनता से बस कर वसूली के इलावा कुछ भी नही रह गया है…
इतना ग़रीबकयो होता जा रहा है हमारा भारत जहाँ पर हर घर मे सोना और हर घर अनाज से समरध था वो सब कहा गया…
क्या सोनिया गाँधी के इलाज का ठेका हमने लिया है! या बड़े बड़े उद्योग पति के घाटे का कोई पता हुमरे नाम है तो फिर हम क्यो चुपचाप क्यो से रहे है ये सारी यातनाए महगाई की…..