-विनायक शर्मा||
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार जो पैर के तथाकथित एक भयानक फ्रेक्चर के चलते अभी तक मौन धारण के कारण विषाक्त मिड डे मील खाकर मृत्यु को प्राप्त हुये २३ मासूम बच्चों के परिजनों के प्रति सांत्वना प्रकट करने उनके गावं या छपरा के एक हस्पताल में इलाज करवा रहे अन्य बीमार बच्चों का कुशलक्षेम पूछने नहीं जा सके थे. अब अचानक अपने कार्यकर्ताओं को एक राजनीतिक प्रवचन देने के लिए प्रकट हो गए. प्रवचन भी मात्र इतना ही कि मिड डे मील की घटना विपक्षी दलों द्वारा रची गई एक राजनीतिक साजिश है. अब इसी वाक्यांश को अक्षरशः जेडीयू के सभी नेता और कार्यकर्त्ता प्रदेश भर में गाते फिरेंगे. राजनेता राजनीतिक लाभ के लिए ही सही, बहुत ही संवेदनशील दिखाई देते हैं.
मानवता तो उनके अंदर कूट-कूट कर भरी होती है. परन्तु उत्तराखंड और बिहार के मिड डे मील की दर्दनाक घटनाओं के परिपेक्ष में राजनेताओं के आचरण को देख कर हमारा यह भ्रम भी टूट गया. राजनीति में षड़यंत्र तो रामकाल से होते आये हैं. दासी मंथरा ने एक षड़यंत्र के माध्यम से ही भरत का राजतिलक और राम को बनवास की मांग की थी. बिहार में निर्धन ग्रामीण परिवारों के बच्चों को भोजन के माध्यम से जहर देने का निर्मम और घृणित कार्य राक्षसी प्रवृति का कोई अमानुष ही कर सकता है. इस प्रकार के सरकारी वक्तव्यों से जांच को आंच (प्रभावित) देने के प्रयास से बेहतर है कि निष्पक्ष जांच की अंतिम रिपोर्ट की प्रतिक्षा की जाए. नीतिश कुमार के इस विवादित वक्तव्य से एक बड़ा प्रशन यह उठता है कि ५० से ६० मासूम स्कूली बच्चों को भोजन के माध्यम से प्राणलेवा कीटनाशक देने की तथाकथित साजिश से विपक्षी दलों के भाग्य में कौन सा छींका फूटने वाला था ? या यूँ कहें कि सरकार के लिए किस प्रकार के खतरे की सम्भावना दिखाई दे रही है ?
नीतिश की सरकार सफलतापूर्वक सदन का विश्वासमत तो हासिल कर ही चुकी है. चार विधायकों के साथ समर्थन देकर कांग्रेस अब उनका सहयोगीदल बन चुका है. राज्य की कानून व्यवस्था खराब हो या कोई अन्य व्यवस्था दुर्व्यवस्था में बदल जाए….राष्ट्रपति शासन लागू करने में माहिर दल अब उनका अपना सहयोगी और प्राणदाता बन गया है. सैयां भये कोतवाल, तो डर काहे का ? अब विपक्षी चाहे जैसी भी साजिश करे उनकी सरकार पर तो दूर-दूर तक कोई संकट दिखाई नहीं दे रहा है. ऐसे में बच्चों की मौत को राजनीति में घसीटते हुये उसे साजिश का नाम देना कहाँ तक वाजिब है. संभावनाओं के आवरण तले वास्तविक स्थिति तो जांच पूरी होने के बाद ही स्पष्ट हो सकेगी. परन्तु इतना तो कहा जा सकता है कि यदि इस घटना को किसी साजिश के तहत अंजाम दिया गया है तो इससे शर्मनाक कोई अन्य बात हो नहीं सकती.
देश के सामने चिंता का विषय यह है कि सत्ता पर येण-केण-प्रकारेण काबिज रहने के लिए जिस प्रकार से बाहुबलियों और अपराधियों की राजनीति में सरेआम घुसपैठ हो रही है उससे सारे देश में अनुशासनहीनता अपनी पराकाष्ठा की सीमा को पार कर गई है. कोई भी संस्था या तंत्र दायित्वपूर्ण अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर रहा है. कर्तव्यों की अनदेखी के चलते ही मिड डे मील के माध्यम से शिक्षा और कुपोषण की गिरती दर में सुधार के लिए बनाई गई इस बहुउद्देशीय योजना की दुर्दशा हो रही है.
मिड डे मील में कीड़े-मकौड़े, छिपकली, मेढक और अन्य प्रकार की गंदगी मिलने और विषाक्त भोजन खाने से बच्चों के बीमार होने के समाचार तो देश भर से निरंतर आते रहते हैं. तो क्या उन सभी को राजनीतिक साजिश के नजरिये से देखना चाहिए ? सड़े और हानिकारक खाद्यपदार्थो, जहरीले खाद्यतेलों के प्रयोग के अतिरिक्त दूषितजल, गंदे बर्तन और साफसुथरी रसोई के आभाव के चलते ही इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृति देखने में आ रही हैं. बड़े शहरों में मिड डे मील के तहत भोजन बनाने से लेकर परोसने तक का काम गैरसरकारी स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से किया जा रहा है. उसमें भी यदा-कदा शिकायत मिलने के समाचार आते रहते हैं. कल दिल्ली के पास फरीदाबाद के एक विद्यालय में परोसेजाने वाले दोपहर के भोजन में एक छिपकली के मिलने का समाचार आया है. केंद्र सरकार द्वारा संचालित इस योजना के तहत केंद्र सरकार द्वारा केवल आनाज का आबंटन किया जाता है. शेष मसाले आदि किरयाने व प्रयोग होनेवाले अन्य सामान को राज्यसरकार स्कूल के माध्यम से स्थानीय बाजार से खरीदते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि स्थानीय बाजार में बिकनेवाले सामान की तयशुदा मानकों की गुणवत्ता की जांच करना राज्य सरकार के विभागों का कर्त्तव्य है. तो क्या नितीशकुमार इस बात की गारंटी ले सकते हैं कि उनके राज्य में कहीं भी मिलावटी खाद्यपदार्थों की बिक्री नहीं हो रही है ? क्या प्रदेश के सम्बंधित सरकारी विभागों द्वारा सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में तयशुदा मानकों और गुणवत्ता वाले खाद्यपदार्थों की बिक्री की उचित व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही है ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मिड डे मील की योजना के कार्यान्वयन और निगरान का दायित्व राज्य सरकारों पर है. भारत सरकार के सीएजी ने भी अपनी रिपोर्ट के माध्यम से राज्य सरकारों द्वारा स्कूलों में राज्य निगरानी समितियों द्वारा नियमित जांच नहीं कराए जाने के कारण भोजन की गुणवत्ता के प्रभावित होने पर चिंता जताई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि जहाँ योजनाओं के दिशा-निर्देशों में स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन की बात की गई है लेकिन बिहार सहित अधिकतर राज्यों में ऐसा नहीं हुआ है. सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार स्कूलों के सर्वेक्षण के दौरान परीक्षक को खुले में भोजन तैयार करना, खाना बनाने में बच्चों को शामिल करना, परोसने के लिए पेंट के डिब्बों आदि का इस्तेमाल जैसे मामलों का पता चला है. जब तक इस प्रकार की शिकायतों को दूर करने का प्रयास नहीं किया जाएगा, भोजन के विषाक्त होने की सम्भावना तो निरंतर बनी रहेगी.
विद्यालय की मुख्य अध्यापिका ने जो खाद्य तेल बाजार की जिस दूकान से मंगवाया था, उस दुकानदार का सम्बन्ध चाहे जिस राजनीतिक दल से हो, जांच का विषय यह होना चाहिए कि क्या स्थानीय बाजार से खरीदा गया तेल जहरीला था ? तेल डिब्बा बंद था या खुल्ला ? यदि फुटकर या खुल्ला तेल लाया गया तो उस बर्तन या डिब्बे की भी जांच आवश्यक है कि कहीं वह डिब्बा तो विषाक्त तो नहीं था ? वह डिब्बा कहाँ से आया ? भोजन पकाने से लेकर खाने तक का घटनाक्रम और योजना के लिए स्थापित नियमों की पालना, जहाँ जांच का प्रथम पहलू है वहीँ दूसरा पहलू यह होना चाहिए कि विषाक्त भोजन के खाने से बच्चों के अस्वस्थ होने की सूचना प्रशासन को कब मिली और उसके पश्चात क्रमवार प्रशासन और चिकित्सालय द्वारा उठाये गए क़दमों की जांच कि क्या कहीं कोताही तो नहीं हुई है. तीसरे इस प्रकार की घटना की पुनरावृति ना हो इसके लिए नीतिगत निर्णय लिए जाए.
विज्ञान की चरम सीमा को छूते अमेरिका जैसे साधन-संपन्न देशों में भी मानवीय मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं की बहुलता उनके आचरण में दिखाई देती है. किसी स्कूल या किसी धार्मिक स्थल पर आतंकवाद की धटना के तुरंत बाद वहाँ के राष्ट्रपति स्वयं पहुँच पीड़ितों व उनके परिजनों को धाडस व संवेदना प्रकट करते दिखाई देते हैं. इसके ठीक विपरीत हमारे देश में मानवीय जीवन का क्या मूल्य है वह इस प्रकार की धटनाओं से जाहिर होता है. स्कूली बच्चों का सरकारी भोजन खाकर प्राणों का त्याग बहुत ही संवेदनशील धटना है. विपक्षी दल और मीडिया यदि सरकार और प्रशासन की कमियों को उजागर नहीं करेंगे तो सरकार को उसकी कमियों का कैसे पता चलेगा कि कमी कहाँ थी और भविष्य में इसकी पुनरावृति ना हो इसके लिए ठोस और कारगर कदम उठाने का उपक्रम कैसे किया जाएगा. सत्ता की राजनीति में कम से कम इन मासूम बच्चो को मोहरा बनाना कतई मुनासिब नहीं है
HOPLESS
अपनी अक्षमताओं ,असफलताओं को छिपाने को, बोखलाए हुए नितीश का यह एक राजनितिक बयान है,ताकि संभव हो सके तो जांच को भटका दिया जाये,अपनी आलोचना को रोक जा सके.वे खीजे हुए लगते हैं.बजाय इसके कि वे कुछ ठोस कार्यवाही करते, उलटे इस प्रकार के बयान दे कर वे वे इस त्रासदी का राजनीतीकारन कर रहे हैं.उनके शिक्षा मंत्री उनसे भी एक कदम आगे चल कर ऐसी घटनाओं को रोकना असंभव बताते हैं. एक समाचार चैनल पर वे ताल थोक कर कहते सुने जा सकते हैं कि एक मंत्री इसे नहीं रोक सकता,यह सब तो इतनी बड़ी योजना में संभव ही है.जिन परिवारों के बच्चे इसके शिकार हुए उन पर क्या गुजर रही है उनेहे इससे क्या.शर्म आती है ऐसे बयान सुनकर, दुःख भी होता है,पर सत्ता के इन मस्ताये लोगों को कुछ भी महसूस नहीं होता. शायद यह भी शासन के आदर्श मॉडल का एक रूप है.कांग्रेस भी जहाँ और किसी विपक्षी दल शासित राज्य का इस्तीफा माग लेती,सड़कों पर हुर्द्नंग मचा देती अपने राजनितिक स्वार्थ वास चुप बैठी है.वे प्रवक्ता भी शायद दुबके सो रहें हैं.