-अभिरंजन कुमार||
शुक्रवार को बिहार की विधानसभा मे उन नेताओं को तो श्रद्धांजलि दी गई, जो अपनी पूरी आयु जीकर, जीवन में सारी सुख-सुविधाएं भोगकर स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हुए। कुछ नेता तो उस उम्र में मरे हैं, जिस उम्र में किसी के मरने पर समाज में ढोल-बाजे बजाने की परंपरा रही है। लेकिन चाहे छपरा मिडडे मील बाल-संहार के शिकार हुए बच्चे हों, या बगहा गोलीकांड में मारे गए लोग, वे सब असमय काल-कवलित हुए हैं। यद्यपि मुझे दिवंगत नेताओं को श्रद्धांजलि दिए जाने पर कोई एतराज नहीं है, लेकिन बच्चों और गोलीकांड के शिकार लोगों को श्रद्धांजलि देने से विधानसभा का इनकार घोर आपत्तिजनक था। इतना आपत्तिजनक कि मेरी राय में इससे बिहार की विधानसभा कलंकित हुई है और इस लोकतंत्र से अधम राजतंत्र वाली बू आ रही है। अगर विधानसभा में इन लोगों को श्रद्धांजलि दिए जाने की मांग न उठी होती, तो भी हम इसे जन-प्रतिनिधियों की संवेदन-शून्यता कहकर टाल देते, लेकिन मांग उठ जाने के बाद विधानसभा द्वारा उसे ख़ारिज कर दिया जाना मेरी नजर में नागरिकों का सरासर अपमान था।
मेरी प्रतिक्रिया और भी तल्ख होगी। और वो ये कि अगर देश की संसद और विधानमंडलों की कार्यवाहियों से जुड़े नियम-कायदों की किसी भी किताब में यह कहा गया है कि नेता अगर सौ घपले और पाप करके भी मरे तो भी वह श्रद्धांजलि का पात्र होगा और नागरिक चाहे उनके द्वारा किए गए घपलों और पाप का शिकार ही क्यों न हुआ हो, अथवा बड़े से बड़े प्राकृतिक-अप्राकृतिक हादसे या हत्याकांड की भेंट ही क्यों न चढ़ गया हो, उसके लिए संवेदना नहीं जताई जा सकती, तो मैं कहूंगा कि ऐसी तमाम किताबों को जला डालिए, उन किताबों को दरिया में बहा दीजिए, उन्हें दीमकों के चाट जाने के लिए छोड़ दीजिए और अगर इतने से भी मन न भरे, तो उन्हें पैरों से कुचल-कुचलकर मिट्टी में मिला दीजिए।
हाल के महीनों में कई जनप्रतिनिधि इस बात से बड़े चिंतित थे कि कुछ नागरिक-समूहों द्वारा संसद और विधानसभाओं की गरिमा गिराई जा रही है, लेकिन बिहार की विधानसभा की गरिमा किसने गिराई? जिस विधानसभा में नागरिको का अपमान होता हो, उस विधानसभा के लिए नागरिकों के मन में कितना सम्मान रह जाएगा? यह सबको समझ लेना चाहिए कि भारत में संसद और विधानसभाएं तभी तक सर्वोपरि हैं, जब तक वह भारत के नागरिकों को सर्वोपरि मानती हों। अगर संसद और विधानसभाओं में बैठने वाले जन-प्रतिनिधि, जिनमें आजकल बहुत सारे तरह-तरह के दागी भी हैं, अपने को नागरिकों से श्रेष्ठ मानते हैं, तो उनकी अधोगति सुनिश्चित है। ऐसा व्यवहार करके न सिर्फ़ वो अपनी इज़्ज़त गंवाते हैं, बल्कि देश की इन सर्वोपरि संवैधानिक संस्थाओं को भी कलंकित करते हैं।
छपरा मिडडे मील बाल संहार कोई साधारण घटना नहीं थी, जिसे हम यूं ही इग्नोर कर दें। यह भारत के इतिहास की सबसे वीभत्स, हृदयविदारक और ख़ून-खौलाने वाली घटना थी, जिसमें एक स्कूल को बच्चों का बूचड़खाना बना दिया गया। आज तक ऐसा नहीं हुआ था कि किसी स्कूल में इतनी बड़ी संख्या में हमारे बच्चे व्यवस्था में बैठे जनम-जनम के भूखे भ्रष्टाचारियों के द्वारा मार डाले गए हों। यह सीधे-सीधे व्यवस्था में बैठे लोगों द्वारा अपने बच्चों की सात पीढ़ियों के लिए तो अनाप-शनाप तरीके से दौलत इकट्ठा करने और ग़रीबों के बच्चों के 3 रुपये 14 पैसे में भी घपला कर लेने का नीचता-पूर्ण और कातिलाना मामला था, भले इसे जितने भी अन्य रंग क्यों न दिए जाएं।
मेरी नज़र में यह एक सुनियोजित सरकारी हत्याकांड इसलिए था, क्योंकि सरकार काफी समय से बच्चों की सामूहिक मौतों का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी। अगर वह इंतज़ार न कर रही होती, तो राज्य के अमूमन सभी ज़िलों में जब ज़हरीला मिडडे मील खा-खाकर बड़ी संख्या में बच्चों के हॉस्पिटलाइज्ड होने की घटनाएं लगातार हो रही थीं, तभी उसने सख्त कदम उठाए होते। कम से कम ऐसी दसियों घटनाओं के बाद और बिना कोई घटना घटे भी सिर्फ़ परिस्थितियों की समीक्षा कर व्यक्तिगत मैंने भी अपने चैनल के ज़रिए सरकार को आगाह किया होगा, लेकिन विशाल बहुमत के पहाड़ पर बैठी सरकार को ऊंचाई से हमारे बच्चे नीचे कीड़े-मकोड़ों की तरह रेंगते हुए ही दिखाई दे रहे थे। आज जो लोग गठबंधन से अलग होकर इस मामले में सियासत कर रहे हैं, वे भी तब सरकार के बचाव में तमाम अनाप-शनाप तर्क-कुतर्क गढ़ने में जुटे रहते थे।
इसीलिए मैं कहना चाहता हूं कि अगर
1. सिलसिलेवार ढंग से उन पुरानी घटनाओं को इकट्ठा कर, जिसमें बच्चे ज़हरीला खाना खा-खाकर हॉस्पिटलाइज्ड हुए
2. उन स्कूलों के इन्फ्रास्ट्रक्चर, रख-रखाव, बजट, ख़र्च, सामानों की सप्लाई वगैरह की गहन जांच करके
3. अलग-अलग ज़िम्मेदार लोगों के कृत्य और चूकों पर
कोई गहन रिपोर्ट तैयार की जाए, तो राज्य और ज़िले के बड़े-बड़े नेताओं और ब्यूरोक्रैट्स पर न सिर्फ़
1. इन 23 बच्चों की हत्या का मुकदमा साबित किया जा सकता है, बल्कि
2. भ्रष्टाचार को संरक्षण देने,
3. जनता के धन में गबन करने,
4. बच्चों के प्रति आपराधिक लापरवाही और साज़िश करने,
5. माफिया द्वारा संचालित स्कूलों को शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म में फ़ायदा पहुंचाने की नीयत से देश की सरकारी शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने की साज़िश रचने
जैसे कई आरोप साबित किए जा सकते हैं।
छपरा में बच्चों की मौत से मैं इसलिए भी हिला हुआ हूं और मेरा ख़ून इसलिए भी खौल रहा है, क्योंकि कायदे से इन बच्चों को पूरी इक्कीसवीं सदी जीनी थी और हम सब लोगों के दुनिया से विदा हो जाने के बाद भी ज़िंदा रहना था। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हम सब लोग ज़िंदा हैं और हमारे बच्चे हमारा ही दिया हुआ खाना खाकर मर गए। ऐसा हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के साथ हुआ था, जब ताशकंद में उन्हें ज़हरीला खाना देकर मार दिया गया और हमें आज तक मालूम नहीं है कि वे कौन-से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साज़िशकर्ता थे, जिन्होंने हमारे उतने काबिल और ईमानदार प्रधानमंत्री को मार डाला। छपरा के इन बच्चों को भी मैं उन्हीं लाल बहादुर शास्त्री से रिलेट करता हूं, क्योंकि ये भी उन्हीं की तरह ग़रीबी और मुफलिसी में जी रहे थे और एक अत्यंत अल्प-सुविधा वाले सरकारी स्कूल में संघर्ष करते हुए पढ़ाई कर रहे थे।
उन 23 संभावित लाल बहादुर शास्त्रियों के प्रति हमारे राज्य की विधानसभा की संवेदना भले मर गई हो, लेकिन आइए हम सब अपने उन सभी मासूमों को उनके नाम से श्रद्धांजलि दें। उनके नाम इस प्रकार हैं-
1. राहुल कुमार, पुत्र श्री सत्येंद्र राम, उम्र 8 वर्ष
2. आशीष कुमार, पुत्र श्री अखिलानंद मिश्र, उम्र 5 वर्ष
3. प्रह्लाद कुमार, पुत्र श्री हरेंद्र किशोर मिश्र, उम्र 5 वर्ष
4. राहुल कुमार, पुत्र श्री हरेंद्र किशोर मिश्र, उम्र 7 वर्ष
5. अंशु कुमार, पुत्र श्री उपेंद्र राम, उम्र 7 वर्ष
6. विकास कुमार, पुत्र श्री विनोद महतो, उम्र 5 वर्ष
7. आरती कुमारी, पुत्री श्री विनोद महतो, उम्र 9 वर्ष
8. शांति कुमारी, पुत्री श्री विनोद महतो, उम्र 7 वर्ष
9. रीना कुमारी, पुत्री श्री नन्हक महतो, उम्र 9 बर्ष
10. खुशबू कुमारी, पुत्री श्री तेरस राय, उम्र 4 वर्ष
11. रोशनी कुमारी, पुत्री श्री तेरस राय, उम्र 6 वर्ष
12. सुमन कुमारी, पुत्री श्री लालबहादुर राम, उम्र 10 वर्ष
13. रोहित कुमार, पुत्र श्री लालबहादुर राम, उम्र 5 वर्ष
14. दीपू कुमारी, पुत्री श्री अजन राम, उम्र 5 वर्ष
15. काजल कुमारी, पुत्री श्री रामानंद राम, उम्र 5 वर्ष
16. शिवा कुमार, पुत्र श्री राजू शाह, उम्र 9 वर्ष
17. बेबी कुमारी, पुत्री श्री शंकर ठाकुर, उम्र 8 वर्ष
18. अंशु कुमार, पुत्र श्री बल्ली महतो, उम्र 5 वर्ष
19. प्रियंका कुमारी, पुत्री श्री लालदेव महतो, उम्र 10 वर्ष
20. रोशन कुमार मिश्र, पुत्र श्री बलिराम मिश्र, उम्र 10 वर्ष
21. काजल कुमारी, पुत्री स्व. दीनानाथ साह, उम्र 10 वर्ष
22. ममता कुमारी, पुत्री श्री सुरेंद्र राय, उम्र 12 वर्ष
23. निरहू कुमार, पुत्र श्री कृष्णा महतो, उम्र 9 वर्ष
लिस्ट से ज़ाहिर है कि हमारे 11 बेटों और 12 बेटियों को भ्रष्ट और लालची लोगों ने अपनी कभी ख़त्म न होने वाली भूख का शिकार बना लिया। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि बिहार में गरीबी चौतरफा है और सभी जातियों में फैली हुई है। अपने बच्चों को भरपेट खाना खिला सकने की सामर्थ्य न रखने वालों में अगड़े, पिछड़े, दलित, महादलित सभी शामिल हैं। साफ़ है कि जातिवाद ख़त्म होना चाहिए और जातिवादी नेताओं और राजनीतिक दलों के विनाश की बुनियाद आज से और अभी से डाली जानी चाहिए।
और बगहा- जिसे बिहार पुलिस ने एक छोटा जलियांवाला बाग बना दिया। आइए, उस बगहा गोलीकांड के शिकार सभी लोगों को भी हम उनके नाम से श्रद्धांजलि दें। उनके नाम इस प्रकार हैं-
1. ब्रह्मदेव खटईत, उम्र 45 वर्ष, गांव देवताहा
2. धर्मजीत खटईत, उम्र 40 वर्ष, गांव देवताहा
3. अनिल कुमार अमावा, उम्र 12 वर्ष, गांव तेमरीडीह
4. अनूप कुमार, उम्र 25 वर्ष, गांव तेमरीडीह
5. भुकदेव कुमार, उम्र 35 वर्ष, गांव दरदरी
6. तुलसी राय, उम्र 38 वर्ष, गांव सेमराबुसुकपुर
और अंत में हम उन सारे तथाकथित ज़िंदा नेताओं के लिए भी शोक मनाएं, जिनकी आत्मा-मृत्यु कब की हो चुकी है और जो बेचारे इस लोकतंत्र में सिर्फ़ अपने शरीर का बोझ ढो रहे हैं। चूंकि ऐसे नेताओं के ज़िंदा होने का देश के नागरिकों के लिए कोई मतलब नहीं रह गया है, इसलिए हम सब पूरे मन से उनकी तेरहवीं मनाते हैं और भारतेंदु हरिश्चंद्र की पंक्तियों के साथ अपनी बात ख़त्म करते हैं-
“रोअहू सब मिलिकै आबहु भारत भाई।
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।“
(अभिरंजन कुमार की फेसबुक वाल से)