– नारायण लक्ष्मी ||
पूर्वांचल के हिस्से में हमेशा की तरह आपदा, उपेक्षा, अराजकता, असमानता और इंसेफेलाइटिस की मार से अपाहिज होना ही नसीब हुआ है. सुधि और संवेदना का बड़बोलापन ऐसा कि 1976 से शुरू हुई इस बीमारी के लिए टीकाकरण की आवश्यकता 2006 में जरूरी समझी गई जबकि जापान में उससे पूर्व ही टीकाकरण शुरू हो गया था. यानी कि 30 वर्ष तो लोगों को उनके हाल पर छोड़, मौत का जश्न मनाया गया. 1978 से बच्चों के मरने का सिलसिला आज भी जारी है. बच्चे हर साल मर रहे हैं. पहले तो डॉक्टरों को बीमारी का पता ही नहीं चला और जब पता चला तो ऐसी स्वास्थ्य सुविधाएं ही उपलब्ध नहीं थीं जो इन बच्चों को बचा सकें.
हर साल मां की गोद सूनी हो रही है बीमारों एवं बीमारियों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है लेकिन इसकी फिक्र न तो सूबे की सरकार को है और न ही केंद्र सरकार को. पूर्वांचल के बच्चे आज एक ऐसी बीमारी से लड़ रहे हैं जो या तो उनकी जान ले लेती है या फिर उन्हें विकलांग बना देती है. इस बीमारी का नाम है, इंसेफेलाइटिस!
सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक़ 1976 से अब तक 13 हज़ार बच्चे इस बीमारी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं. क़रीब इतने ही शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपंग हो चुके हैं. ग़ौरतलब है कि यह सरकारी रिकॉर्ड है. जबकि ज़मीनी सच्चाई इससे कहीं अलग है. यहां सवाल यह उठता है कि पिछले 34 सालों से जब यह महामारी इस इला़के में हर साल फैल रही है तो इससे बचने के लिए सरकार ने क्या किया? ज़ाहिर है. अगर सरकार ने कोई ठोस क़दम उठाए होते तो हर साल इतनी मौतें न होतीं. इस वर्ष अभी तक (25 सितम्बर तक) 1071 इंसेफेलाइटिस मरीज बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज, गोरखपुर में भर्ती हो चुके हैं, जिनमें से 292 की मृत्यु हो चुकी है. वर्ष 2013 में मरीजों की संख्या में कमी जरूर आई है लेकिन प्रतिशत के हिसाब से इस वर्ष सर्वाधिक 27.26 प्रतिशत मरीजों की मृत्यु हुई है.
बाबा राघवदास मेडिकल कालेज गोरखपुर में 2005 से 2013 तक भर्ती मरीजों की संख्या और मृत्यु का विवरण
वर्ष भर्ती मरीज मृत्यु प्रतिशत मृत्यु
2005 3532 937 26.52
2006 1940 431 22.21
2007 2423 516 21.29
2008 2194 458 20.87
2009 2663 525 19.71
2010 3303 514 15.56
2011 3308 627 18.95
2012 2517 527 20.86
2013 1071(25 सितम्बर तक) 292 27.26
ये आंकड़े केवल गोरखपुर मेडिकल कालेज, बाल-रोग विभाग और मेडिसिन विभाग के हैं जो वहां भर्ती मरीजों के आधार पर तैयार किये गये हैं. गरीबी से दबे पूर्वांचल के हर मरीज के नसीब में मेडिकल कॉलेज पहुंचना संभव नहीं. इसलिये संभव है कि इस महामारी के प्रकोप से 20 से 25 प्रतिशत मरीज, गांव के ओझाओं-सोखाओं के यहां दम तोड़ दिये हों और कुछ निजी अस्पतालों में. भूख, गरीबी और अशिक्षा की जकड़़बंदी में फंसे पूर्वांचल के लिये, रोग के बुनियादी कारकों को छुए बिना, कुछ अभियान और अनुदान के जरिये खात्मा करने की हसरत, दिवास्वप्न से कम नहीं लगती. विगत सैंतीस वर्षों से मस्तिष्क ज्वर, दिमागी बुखार या इंसेफेलाइटिस से अभिशप्त पूर्वांचल के दुख-दर्द को मीडिया या नियंत्रणकारी संस्थाओं ने महामारी के रूप में नहीं स्वीकारा है. बिहार के तमाम क्षेत्रों में फैले इस रोग को ‘इंसेफेलाइटिस’ कहने से परहेज किया जाता है. गोया नाम न लेने से रोग की भयावहता और सरकार की सदाशयता, दोनों को बचाया जा सकता है. इस बीमारी ने लम्बे सफर में अपने स्वरूप को बदला है. मसलन पहले यह बीमारी केवल 3 से 15 वर्ष के बच्चों में, बरसात के दिनों में दिखाई देती थी. अब हर आयु वर्ग का व्यक्ति, किसी भी माह में इसकी चपेट में आ जाता है.
जे0ई0 और इन्टरो वायरस का फैलाव सुअरों के माध्यम से मच्छरों में और मच्छरों से मनुष्य में होता है. यह वायरस मुख्यतः सुअरों में विकसित होता है, उन्हें बीमार करता है और फिर खतरनाक रूप में इंसान के शरीर में पहुंचता है. मच्छरों से बचने के कारगर तरीके इस वायरस को फैलने से रोक सकते हैं पर खुले में सोने वाले गरीबों की किस्मत में न तो मच्छरदानी है और न मच्छरों से बचाव के दूसरे उपाय. इन्टरो वायरस, दूषित पानी पीने से भी प्रवेश करता है. गंदगी, जल जमाव और बाढ़ से घिरे पूर्वांचल में पेप्सी और कोक की तुलना में शुद्ध पानी का मिलना संभव नहीं. अभी भी बहुसंख्यक आबादी सामान्य नलों का पानी पी रही है. इंडिया मार्का-2 नलों से शुद्ध पेय जल उपलब्ध कराया जा सकता है. देखा जाये तो मच्छरों से बचाव और शुद्ध पानी की उपलब्धता सीधे तौर पर बुनियादी विकास से जुड़ा मामला है. आर्थिक रूप से विपन्न समाज के जेहन में सिर्फ भूख होती है. वह शुद्ध पानी और मच्छरों से बचाव के लिये कुछ करने की स्थिति में नहीं होता. यही कारण है कि इस बीमारी का सीधा रिश्ता, गरीबी से देखा जा सकता है.
इस बीमारी की भयावहता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि प्रति वर्ष जुलाई से लेकर अक्टूबर तक मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के एक-एक बिस्तर पर तीन-तीन बच्चे लिटाये जाते हैं. कुछ मरीजों को जमीन पर भी लिटाना पड़ता है. पूरे क्षेत्र में केवल गोरखपुर मेडिकल कॉलेज ऐसी जगह है जहां इस बीमारी की समझ और इलाज की प्रक्रियाओं का ज्ञान है. लम्बे समय से अपने द्वारा इजाद किए गए संशाधनों से इस रोग से लड़ने वाले एक मात्र वरिष्ठ डॉ. के.पी. कुशवाहा, जो बालरोग विभागाध्यक्ष और प्राचार्य भी हैं, हजारों बच्चों की मौत के बावजूद, हजारों की जान बचा चुके हैं पर डाक्टरों , वार्ड, पैरामेडिकल स्टाफ की कमी और जांच की समुचित सुविधाओं का अभाव इलाज के लिये ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है. यह हमारे तंत्र की असंवेदनशीलता का ज्वलंत उदाहरण है कि विगत सैंतीस वर्षों में इस बीमारी के विरूद्ध व्यापक अभियान छेड़ना तो दूर, एक मात्र मेडिकल कॉलेज में मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था तक नहीं की जा सकी. हमारे शीर्ष कर्णधार मेडिकल कॉलेज गोरखपुर की आड़ में, कुछ टीकाकरण, कुछ वेन्टीलेटर और कुछ दवाओं की आपूर्ति कर, ठोस कार्यनीति बनाने के बजाय, अपने पापों का प्रायश्चित करते नजर आते हैं.
प्रतिदिन मेडिकल कॉलेज गोरखपुर में इंसेफेलाइटिस के अब भी 20 से पच्च्ीस मरीज भर्ती होते हैं जिनमें से पांच से छः की प्रतिदिन मृत्यु हो जाती है. हर सुबह कॉलेज का प्रांगण लाश थामें विलाप करते परिजनों के आर्तनाद से थरथराता रहता है. हजारों की संख्या में आने वाले मरीजों को कुछ अंशकालिक कर्मचारियों और बीस-पच्चीस रेजिडेंट डाक्टरों और एकाध वरिष्ठ डाक्टरों के सहारे निबटा देने की लापरवाही, तंत्र की जवाबदेही को कटघरे में खड़ी करती है. बीमारी की भयावहता से निपटने के लिये डॅाक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की, वर्तमान संख्या से चार गुने की आवश्यकता है, वह भी अनुभवी और पूर्णकालिक डाक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की. जबकि यह अमानवीय तंत्र, इस बीमारी को कुछ डाक्टरों और प्रेस मीडिया की उपज बता कर अपनी नालायकी छुपाने का प्रयास करता है. वह चाहता है कि इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतें और अपंग होते समाज की पीड़ा चर्चा में नहीं आनी चाहिये. दरअसल इंसेफेलाइटिस जैसी मच्छर और अशुद्ध पानी जनित बीमारियां, गरीबों के हिस्से में आती हैं और ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ के दर्शन की वाहक व्यवस्था की मंशा ही होती है कि ज्यादा से ज्यादा गरीब मरे.
इसे दिखावा या पाखंड कहा जा सकता है कि इस वर्ष पी.एम.एस. सेवा के सेवा निवृत्त डाक्टरों को मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए उपलब्ध कराया गया है. जाहिर है कि पी.एम.एस. के डाॅक्टर मात्र एम.बी.बी.एस. डिग्री धारक होते हैं और उन्हें ऐसी गम्भीर बीमारी के इलाज का अनुभव नहीं होता. अगर ऐसा होता तो गांव-गिरांव के मरीजों का इलाज प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर हो जाता, न कि मेडिकल कॉलेज भेजने की जरूरत पड़ती. दूसरे मेडिकल कॉलेजों से 12 रेजिडेंट डॉक्टर उपलब्ध कराये गये हैं जो अनुभवी नहीं हैं. इस कामचलाऊं व्यवस्था के बजाय, स्थाई व्यवस्था, ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकती है. पी.जी. कोर्स के डॉक्टर, वरिष्ठ डाक्टरों के निर्देशन में बेहतर काम करते थे लेकिन इस वर्ष से 269 एकड़ में फैले इस मेडिकल कॉलेज से पी.जी. की डिग्री ही समाप्त कर दी गई है. ऐसे में बिना योग्य डाक्टरों के इन्सेफेलाइटिस का इलाज कैसे हो रहा है, हो रही मौतों से स्वतः समझा जा सकता है. मेडिकल कॉलेज के बाल विभाग में इन्सेफेलाइटिस मरीजों के लिए केवल 33 वेन्टीलेटर उपलब्ध हैं. एम.आई.आर. मशीन की सुविधा नहीं है. वर्तमान में 226 बिस्तरों पर 425 मरीज भर्ती हैं. 100 बिस्तरों का बालरोग विभाग का नया वार्ड अभी निर्माणाधीन है. बहरहाल हाल ही में केंद्र सरकार ने देश के अलग.अलग हिस्सों में एम्स ;ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज की तर्ज पर छह जगहों पर अस्पताल स्थापित करने का निर्णय लियाण् बाद में दो और जगहों पर भी ऐसे ही अस्पताल खोलने की बात कही गई जिनमें से एक जगह है रायबरेली रायबरेली कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का लोकसभा क्षेत्र है सवाल यह है कि जब एम्स की तर्ज पर एक अस्पताल उत्तर प्रदेश के हिस्से में आना है तो वह रायबरेली में ही क्यों जबकि इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इला़के को हैए क्योंकि वहां सही इलाज न होने के कारण हर साल हज़ारों की तादाद में बच्चे मौत की गोद में समा जाते हैं पूर्वांचल के गरीबों को उपेक्षित रखने, उन्हें मरने देने का यह खेल वर्ष दर वर्ष जारी रहा. आज भी कुछ होने के नाम पर अखबारी बयानबाजी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा.
स्वच्छ पानी, व्यापक स्तर पर टीकाकरण का अभाव, तराई क्षेत्र में मच्छरों का प्रकोप, सुअरों के स्वतंत्र विचरण की छूट और उनके पालने की वैज्ञानिक तकनीकि का अभाव, जुलाई से अक्टूबर तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और इससे सटे बिहार के जिलों में इंसेफेलाइटिस का खौफ, मांओं को सहमाये रहता है. वे अपने लाडलों की सलामती की दुआ मांगती हैं. ये चार माह गरीबों के लिये भयावह होते हैं. वैसे तो पूरे वर्ष कुछ न कुछ मरीज अस्पतालों में आते रहते हैं पर महामारी की स्थिति बरसाती मौसम में होती है. पूर्वांचल में भगवान भरोसे सिर्फ इंसेफेलाइटिस के मरीज ही नहीं जीते, स्वास्थ्य सेवायें भी भगवान भरोसे चलती है.
इस क्षेत्र में इंसेफेलाइटिस के दो मुख्य कारक हैं. वेक्टर जनित जे0ई0(जापानी इंसेफेलाइटिस) वायरस और जल जनित इन्टरो वायरस इस क्षेत्र के लिये काल बने हुये हैं. पहले जे0ई0 वायरस ज्यादा खतरनाक समझा जाता था. जे0ई0 वायरस पीडि़त 30 प्रतिशत मरीजों की मृत्यु हो जाती थी और इससे बचे 30 प्रतिशत मरीज शारीरिक और मानसिक रूप से अपंग हो जाते थे. 19 प्रतिशत इन्टरो वायरस पीडि़त मरीजों की मृत्यु हो जाती थी और इससे बचे 15 प्रतिशत मरीज शारिरिक और मानसिक रूप से अपंग हो जाते थे. अब जल जनित इन्टरो वायरस का प्रकोप बढ़ा है और वेक्टर जनित जे0ई0 से कहीं ज्यादा खतरनाक ढ़ंग से यह पूर्वांचल की गरीब जनता को मारने में लगा है. इस बीमारी से बच जाने वाले सामान्य जिंदगी जीने की स्थिति में नहीं होते. वे मानसिक और शारीरिक, दोनों रूप से प्रभावित होते हैं. असम के बाद पूर्वांचल ही ऐसा क्षेत्र है जो इंसेफेलाइटिस से त्रस्त है. इस बीमारी में मरीजों को सिरदर्द, बुखार, आलसपन, जुकाम, उल्टी या अचेतावस्था जैसे लक्षण दिखाई देते हैं. यह बीमारी शरीर के नाड़ी तंत्र को नुकसान पहुंचाती है और बचे मरीजों को हमेशा के लिये अपंग बना देती है. इंसेफेलाइटिस की चपेट में आ जाने के बाद मरीज के जीवित बचने के बावजूद पूरी तरह सामान्य जिंदगी जीने की संभावना न के बराबर रहती है. ऐसे में यह बीमारी पूर्वांचल के जनमानस को स्थाई तौर पर लकवाग्रस्त कर रही है.
मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के ख्याति प्राप्त अनुभवी डॉक्टर डॉ0 के0पी0 कुशवाहा के अनुसार यदि सुअरों के स्वतंत्र विचरण के बजाय, उन्हें बाड़े में पालने के प्रयास किए जाये, मच्छरों की रोकथाम और आम आदमी को इंडिया मार्का-2 नलों का पानी पीने की समुचित व्यवस्था कर दी जाये तो बहुत हद तक इस वायरस को फैलने से रोका जा सकता है. उनके अनुसार इंसेफेलाइटिस से जूझने के लिये व्यापक अभियान की जरूरत है.
जिस मेडिकल कॉलेज पर इलाज का सारा दारोमदार है वह अभावों की बलिवेदी पर लेटा, रोगग्रस्त नजर आ रहा है. बिस्तरों की कमी के अलावा, ऐय्याशियों के नाम करोड़ों खर्च करने वाले स्वास्थ्य विभाग के पास गिनती के अंशकालिक कर्मचारियों के वेतन का बजट नहीं है. आलम यह है कि स्टाफ नर्सों की कटौती की जा रही है. संविदा पर तैनात सफाई कर्मियों को साल भर से वेतन न मिलने के कारण, उनकी सेवायें बंद हैं. गंदगी से मेडिकल कॉलेज बजबजाने लगा है. परिसर में जानवरों के विचरण को रोकने के लिए तैनात सुरक्षा गार्डों की सेवायें भी समाप्त कर दी गई हैं. अब हर कहीं गाय-सुअर गंदगी करती दिख जायेंगी. आखिर हम इंसेफेलाइटिस को अब भी महामारी के रूप में स्वीकार करने को तैयार होंगे या नहीं ? क्या ठोस कार्य योजना के अभाव में मर रहे गरीब बच्चों के प्रति हमारी संवेदना इतनी भोथरी और मृतप्राय हो चली है कि मात्र कुछ खानापूरी कर दायित्वों से मुक्त हो लेंगे?
koi ilaj hai na ilaj bimari desh ki vartman sarkaar
देश का दुर्भाग्य,केंद्र व प्रान्त कि सरकार के लिए लानत,जो अपने देश के भविष्य को सुरक्षित नहीं रख सकते,और करोड़ों रुपये खा जाते हैं.
देश का दुर्भाग्य,केंद्र व प्रान्त कि सरकार के लिए लानत,जो अपने देश के भविष्य को सुरक्षित नहीं रख सकते,और करोड़ों रुपये खा जाते हैं.