-संजय कुमार सिंह||
कोई भी आदमी अपराध इसी उम्मीद में करता है कि वह पकड़ा नहीं जाएगा। गुस्से में हत्या हो जाना अलग बात है। पर सोच-समझ कर अपराध करने वाला कोई भी व्यक्ति अगर सोचेगा तो ये भी कि जमानत के लिए वकील कौन होगा, उसकी फीस कितनी होगी, उसकी गिरफ्तारी के बाद ये पैसे कौन देगा (दे सकता है) और जमानत की शर्तें क्या होंगी (कुछ भले नागरिक चाहिए होते हैं जिनकी एफडी हो या जिनके नाम से कार, मकान जैसी कोई चल-अचल संपत्ति हो और जो छुट्टी लेकर जमानत कराने कम से कम एक दिन अदालत जाए)। और इतना सब सोचने वाला व्यक्ति अपराध कर ही नहीं पाएगा। फिर भी अगर अपराध होते हैं तो इसीलिए कि लोगों को उम्मीद होती है वो बच जाएंगे चाहे जाति आधार पर या धार्मिक आधार पर या पार्टी आधार पर या ऐसे ही किसी आधार पर। ऐसे में किसी अपराधी का बचाव करना दरअसल दूसरा अपराधी तैयार करना है।
कठुआ बलात्कार और हत्या कांड हो या उन्नाव का मामला। आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि किसी ना किसी बहाने अपराधी का बचाव करने वाले लोग हैं। और ये ऐसे लोगों हैं जो अपराध विश्लेषण या कानून के जानकार नहीं हैं। ये आम लोग हैं लेकिन काबिलतम अफसरों की जांच पर उंगली उठा रहे हैं। सीबीआई को नहीं जानते पर सीबीआई की जांच की मांग कर रहे हैं। और तो और, आज के अखबारों में कठुआ गैंगरेप और हत्या के अभियुक्त सांजी राम का बयान प्रमुखता से फोटो के साथ छपा है। नवोदय टाइम्स में प्रकाशित खबर का शीर्षक है, “सीबीआई से जांच हो, दोषी पाया गया तो दे दें फांसी”। कहने वाले ने कह दिया और अखबार ने छाप दिया (पहले पन्ने पर)। क्या कोई मांग कर सकता है कि उसके खिलाफ मामले की जांच कौन करे, उसकी सुनवाई कौन करे? रिवाज तो यह है कि जज या जांचकर्ता परिचित हो तो मामले से अलग हो जाता है। दूसरी ओर, अभियुक्त को जरूरत पड़ने पर सरकार की तरफ से वकील मुहैया कराया जाता है।
ऐसे में किसी अभियुक्त का यह कहना कि सीबीआई दोषी पाए तो फांसी दे दें – का क्या मतलब है? इस मामले में राज्य पुलिस की विशेष टीम ने जांच कर ली है। आप नहीं मानेंगे। जबकि इसकी अदालत में पुष्टि होनी है। और आप सीबीआई से जांच की मांग कर रहे हैं (लोग समर्थन भी कर रहे हैं) तो क्या उसकी अदालत में पुष्टि नहीं होगी। क्या तब आपका वकील जांच पर सवाल नहीं उठाएगा, जिरह नहीं करेगा। क्या यह सब नहीं होना चाहिए। सीबीआई ने अगर दोषी पाया तो किसी को सीधे फांसी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए। वह भी तब जब हाल में आरुषि हत्याकांड में सीबीआई द्वारा दोषी पाए गए आरुषि के माता-पिता को अदालत ने छोड़ दिया था (सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की है, कई मामलों में नहीं भी करती है और पता नहीं यह कैसे तय होता है)। ऐसे में किसी अभियुक्त की ऐसी मांग का कोई मतलब नहीं है।
अगर समाज में बुद्धिजीवियों, मामले या विषय के जानकारों को लगता है कि नियम गलत है तो उसे ठीक करने की मांग की जानी चाहिए। उसपर विचार होना चाहिए और उसका तरीका है। पर अभियुक्तों की ऐसी मांगों को समर्थन मिलने से मुझे लगता है कि अपराधी को अपने किए का अफसोस तो नहीं ही होता है। वह समझता है कि वह पकड़ा नहीं गया, चतुर है, लोगों ने उसकी सफाई मान ली और गलत कानून या व्यवस्था की वजह से वह फंस गया। और दूसरा भी ऐसा ही सोच कर अपराध करता है। करने को प्रेरित होता है। दूसरी ओर, हम हर बर्बर अपराध के बाद फांसी की सजा की मांग करते हैं। जैसे फांसी की सजा मुकर्रर हो जाने से अपराधी डर जाएगा जबकि उसे पता है कि एफआईआर तब दर्ज होती है जब शिकायतकर्ता का पिता पुलिस हिरासत में मर जाता है। जब एफआईआर ही नहीं होनी है तो सजा कैसे होगी? किसे होगी? हत्यारे को या बलात्कार की शिकायर युवती के पिता को? डरने को क्या यही कम है कि जमानत मिलने पर भी कई लोग शर्तें पूरी नहीं कर पाते हैं और जेल में सड़ रहे हैं।