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फिल्म जगत की दिग्गज कलाकार तबस्सुम का बीते शुक्रवार 78 बरस की आयु में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। यथा नाम, तथा गुण के मुहावरे को तबस्सुम पूरी तरह चरितार्थ करती थीं। तबस्सुम का अर्थ होता है मधुर, मंद मुस्कान और ऐसी ही मुस्कुराहट तबस्सुम के चेहरे पर हमेशा खिली रहती थी। तबस्सुम ने 75 बरस तक लगातार काम किया और इस लंबी अवधि में कई तरह के किरदार निभाए, बदलते समय के साथ खुद को बदला। शायद यही वजह है कि लंबे अरसे तक परदे पर नजर न आने के बावजूद उनका मुस्कुराता चेहरा हमेशा दर्शकों के जेहन में बसा रहा।

सियासत के कारण फिल्म इंडस्ट्री भी मतभेदों के साथ-साथ मनभेदों का शिकार दिखने लगी है। अब अलग-अलग दलों की विचारधाराओं के कारण कलाकारों के बीच अलगाव दिखने लगा है। लेकिन तबस्सुम जैसे कलाकारों ने फिल्म इंडस्ट्री में हमेशा भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को जिंदा रखा। तबस्सुम के पिता अयोध्यानाथ सचदेव और मां असगरी बेगम थीं।

दोनों ही स्वाधीनता सेनानी थे और असगरी बेगम लेखिका व पत्रकार भी थीं। उनके पिता ने असगरी बेगम की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उनका नाम तबस्सुम रखा था, जबकि मां ने अपने पति की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपनी बेटी को किरण बाला नाम दिया। इस वक्त जब देश में लव जिहाद जैसे अनावश्यक मुद्दे खड़े किए जा रहे हैं और उनका राजनैतिक लाभ लेने की कोशिशें हो रही हैं, तब तबस्सुम जैसे उदाहरण हमें याद करने चाहिए कि हमारे पुरखों ने किस तरह के भारत निर्माण के ख्वाब देखे थे।

अपने मां-पिता की खूबियां तबस्सुम के काम में जाहिराना तौर पर नजर आईं। उनका टीवी टॉक शो फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन, जिस किसी ने भी देखा, वो तबस्सुम की बातचीत करने की शैली और सवाल पूछने के तरीके से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। भारत में टॉक शो की शुरुआत का श्रेय तबस्सुम को दिया जा सकता है। क्योंकि उससे पहले फिल्मी पत्रिकाओं के लिए कलाकारों और फिल्म दुनिया से जुड़े लोगों के साक्षात्कार तो प्रकाशित होते थे, लेकिन इस तरह रू-ब-रू बातचीत तबस्सुम ने ही शुरु की। और यह महज बातचीत नहीं होती थी, इसमें संबंधित कलाकार के निजी जीवन से लेकर उसकी नयी फिल्म से जुड़े सवाल होते थे, बीच-बीच में तबस्सुम चुटकुले भी सुनाती और मौके के अनुरूप शायरी भी कहती।

भले इस बातचीत की स्क्रिप्ट पहले से लिखी होती थी, लेकिन इस स्क्रिप्ट के साथ न्याय वही कर सकता था, जिसे खुद भी साहित्य, कला और सम-सामयिक मुद्दों की समझ और जानकारी हो। अपनी मां से उन्हें ये पत्रकारों वाले गुण मिले। फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन एक अभिनव प्रयोग था, जो इतना सफल रहा कि यह शो 1972 से 1993 तक यानी करीब 21 साल लगातार चला। इसके बाद जब दूरदर्शन के अलावा निजी चैनलों का दौर शुरु हुआ तो ऐसे कई टॉक शो प्रसारित हुए, जिनका मूल विचार फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन जैसा ही रहा।

फिल्मों में भी तबस्सुम ने एक लंबा वक्त गुजारा। उन्होंने बतौर बाल कलाकार 1947 में ‘नरगिस’ फिल्म में काम किया था। इसके बाद कई फिल्मों में वे बाल कलाकार के रूप में नजर आईं और बेबी तबस्सुम के नाम से ही उनकी पहचान बन गईं। मीना कुमारी, नगरिस जैसी कलाकारों के बचपन की भूमिका उन्होंने निभाई। मेरा सुहाग, मंझधार, बड़ी बहन, ‘सरगम’, ‘संग्राम’, ‘दीदार’ और ‘बैजू बावरा’ जैसी फिल्मों में बतौर बाल कलाकार अभिनय किया। फिर युवावस्था में भी कई फिल्मों में चारित्रिक भूमिकाएं उन्होंने निभाईं। चमेली की शादी, नाचे मयूरी, सुर संगम, और जुआरी फिल्मों में उन्होंने काम किया। ऐतिहासिक फिल्म मुगले आजम में भी वे एक छोटी भूमिका में नजर आईं।

1990 में फिल्म स्वर्ग में वे बतौर मेहमान कलाकार नजर आईं और इसके बाद उन्होंने कोई फिल्म नहीं की। लेकिन फिल्मी दुनिया से उनका वास्ता बना रहा। टॉक शो के बाद उन्होंने 15 वर्षों तक महिलाओं की एक पत्रिका का संपादन किया। फिर बदलते समय के मुताबिक खुद को ढालते हुए उन्होंने अपने बेटे होशांग के साथ ‘तबस्सुम टॉकीज’ नामक अपने यूट्यूब चैनल की शुरुआत की। इस तरह वे लगातार 70 बरसों तक किसी न किसी तरह रचनात्मक तौर पर सक्रिय रहीं। शायद यही सक्रियता उनकी मीठी मुस्कान का राज था।

फिल्मों में अभिनय की सशक्त छाप भले तबस्सुम ने न छोड़ी हो, लेकिन दर्शकों के मन पर उनकी छाप हमेशा बनी रही। तबस्सुम के न रहने से फिल्मी दुनिया में एक खालीपन तो आ ही गया है, व्यापक तौर पर भारतीय परिदृश्य में अब ऐसे लोगों की कमी पहले से कहीं अधिक खटकने लगी है, जो सहजता और सरलता के साथ अपना काम करते हैं और लोगों में खुशियां बांटते चले जाते हैं।

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