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भारत और चीन के संबंध एक बार फिर संघर्षपूर्ण होते नजर आ रहे हैं। 9 दिसंबर को अरुणाचल के तवांग में दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़प हुई। जिसमें दोनों ही पक्षों के सैनिकों को कुछ चोटें आई हैं, हालांकि किसी की मौत नहीं हुई। गौरतलब है कि तवांग क्षेत्र भारत के लिए रणनीतिक लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन चीन की टेढ़ी निगाहें हमेशा यहां लगी रहती हैं।

चीन किसी न किसी तरह अरुणाचल प्रदेश पर अपना हक बताते हुए यहां घुसपैठ की कोशिश करता रहता है। जाहिर है 9 तारीख को भी कुछ ऐसी ही बात हुई होगी। जिसके बारे में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में जानकारी दी कि चीन के सैनिकों ने सीमा पर यथास्थिति बदलने की कोशिश की और भारतीय सैनिकों ने इसका दृढ़ता से जवाब दिया।

भारतीय सैनिकों की बहादुरी और निष्ठा असंदिग्ध है। चीन की विस्तारवादी नीति और भारत के क्षेत्रों पर उसकी लालची निगाहें भी सबको दिखाई देती हैं। सवाल ये है कि मौजूदा भारत सरकार की इस बारे में क्या नीति है। प्रधानमंत्री मोदी चीन से किस तरह के संबंध रखना चाहते हैं। इन सवालों के जवाब इसलिए जरूरी हैं क्योंकि चीन के मसले पर एक बार फिर सरकार टालमटोल वाला रवैया दिखाती नजर आई, लेकिन जब विपक्ष ने हंगामा किया, तो उल्टा उस पर ही इल्जाम लगाए जा रहे हैं। 9 तारीख को चीन के साथ भारत की झड़प हुई, लेकिन रक्षा मंत्री ने 13 तारीख को इस बारे में जानकारी दी।

जबकि विपक्ष सवाल पूछ रहा है कि सरकार दो दिनों तक चुप क्यों रही। याद रहे कि जून 2020 में गलवान में भारत और चीन के बीच संघर्ष में भारत के 20 सैनिक मारे गए थे। यह विवाद लंबे वक्त तक दोनों देशों के बीच तनाव का मुद्दा बना रहा। भारत ने अपना विरोध दिखाने के लिए चीन के साथ व्यापारिक संबंधों में कई प्रतिबंध लगाए, लेकिन वे ऊपरी दिखावा ही साबित हुए। तब प्रधानमंत्री का शुरुआती रवैया, हमारी सीमा में कोई नहीं आया, वाला रहा। सैनिकों की मौत को उन्होंने बिहार चुनाव में भावनात्मक तौर पर भुना भी लिया।

लेकिन चीन का नाम लेकर उसे खरी-खरी सुनाने से प्रधानमंत्री बचते दिखाई दिए। कई मौके ऐसे आए, जब प्रधानमंत्री मोदी चीन को साफ-साफ समझाइश दे सकते थे, मगर उन्होंने इन मौकों का इस्तेमाल नहीं किया। हाल ही में इंडोनेशिया के बाली में जी-20 सम्मेलन में रात्रिभोज में प्रधानमंत्री मोदी ने खुद उठकर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से हाथ मिलाया था, जिसकी काफी आलोचना हुई थी। तब विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने उनका बचाव करते हुए कहा था कि चीन के साथ संबंध की वास्तविकता यह है कि वो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और भारत का पड़ोसी भी है। हालांकि चीन के साथ हमारा इतिहास, संघर्ष और सीमा विवाद भी जुड़ा है। विदेश मंत्री ने ये भी कहा था कि प्रधानमंत्री मोदी चीन के मुद्दे पर अडिग रहे हैं।

अब भाजपा नेताओं को यह बात समझनी चाहिए कि जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों और फैसलों के कारण उन के देशप्रेम पर सवाल नहीं उठाए जा सकते, वही बात कांग्रेस और प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू पर भी लागू होती है। दरअसल संसद के मौजूदा सत्र में चीन के मसले पर जब मोदी सरकार फिर घिरने लगी, तो हमेशा की तरह अपने बचाव के लिए भाजपा ने नेहरूजी पर उंगली उठाना शुरु कर दिया।

गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि नेहरू जी के प्रेम के कारण सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता बलि चढ़ गई। यह वो आरोप है जो एक जमाने से भाजपा कांग्रेस पर लगाती आई है। एक ही झूठ को बार-बार बोलकर उसे सच बनाने में लगी हुई है। भाजपा में अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की जानकारी रखने वाले ये समझते होंगे कि दो देशों या ध्रुवों में बंटती दुनिया में आपसी रिश्ते दो और दो चार जितने आसान नहीं होते हैं। इनमें कई तरह के पेंच होते हैं। दोस्ती और दुश्मनी के बीच कई तरह के किंतु-परंतु होते हैं। इसलिए जिन देशों के साथ हमारे संबंधों में खटास होती है, फिर भी उनके साथ वार्ताओं के जरिए रिश्ते सुधारने की पहल जारी रहती है।

युद्ध जैसे अंतिम विकल्प तभी इस्तेमाल किए जाते हैं, जब कोई और रास्ता नहीं बचता। नेहरूजी की विदेश नीति, गुटनिरपेक्षता का उनका विचार, दो महायुद्धों और दो महाशक्तियों के बीच सुलगती दुनिया में शांति की उनकी कोशिशें, इन सबके लिए दुनिया आज भी उन्हें सलाम करती है। मगर अपने ही देश में भाजपा राजनैतिक स्वार्थों के कारण नेहरूजी के योगदान को कमतर साबित करने में लगी हुई है।

सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिलने का सच नेहरूजी ने 27 सितंबर, 1955 को संसद में बताया था। उन्होंने कहा था कि सुरक्षा परिषद में अनौपचारिक या औपचारिक रूप से स्थायी सदस्यता का कोई प्रस्ताव नहीं मिला। जो बात संसद में आधिकारिक तौर पर दर्ज है, उसे भाजपा गलत बताते आई है। भाजपा यह भी भूल रही है कि 1945 में सुरक्षा परिषद के जब सदस्य बनाए गए, तब भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था।

जहां तक चीन की स्थायी सदस्यता का सवाल है, तो इस बारे में अंतरराष्ट्रीय राजनीति और इतिहास के गहन अध्येता और जानकार पं. नेहरू का मानना था कि माओ त्से तुंग की सरपरस्ती में उभरे नए चीन की वजह से न केवल पूरब में बल्कि पूरी दुनिया में शक्ति संतुलन बदल गया है। इसलिए विश्व राजनीति में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को समायोजित नहीं करना न केवल मूर्खता है बल्कि ख़तरनाक भी है। पं. नेहरू का यह भी मानना था कि यदि संयुक्त राष्ट्र से पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को बाहर रखा गया तो यूएन के फ़ैसलों का चीन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

50 और 60 के दशक की वैश्विक राजनीति और देशों के परस्पर समीकरणों को समझे बिना किसी फैसले को गलत या सही ठहराना राजनैतिक बेईमानी कही जाएगी। इस वक्त भाजपा अपने ऊपर उठती उंगलियों को जानबूझकर नेहरूजी की ओर मोड़ रही है। इससे मूल मुद्दे से क्षणिक ध्यान भटक सकता है। हो सकता है कांग्रेस से लोगों की नाराजगी बढ़ाने में कुछ और मदद मिल जाए। मगर क्या नेहरूजी और कांग्रेस को गलत साबित करके भाजपा अभी खुद को सही बतला सकती है। क्या वह इन शाब्दिक प्रहारों से चीन की घुसपैठ रुकवा सकती है।

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