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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

हिन्दुस्तान में पुलिस की जांच और अदालती इंसाफ के हाल के बारे में हम कई बार यहां लिखते हैं। मौत की सजा के खिलाफ लिखते हुए भी हमारा यही तर्क रहता है कि जहां पुलिस-जांच इतनी कमजोर हो, भ्रष्टाचार लबालब हो, अदालती व्यवस्था में ये दोनों ही खामियां एक साथ हों, वहां पर किसी गरीब की क्या औकात रहती है कि वे इंसाफ की सोच भी सकें। इसलिए इस देश से मौत की सजा हटा देनी चाहिए क्योंकि कब कोई बदनीयत से, पीछे लगकर किसी को ऐसी सजा दिलवा दे इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। ऐसा एकदम ताजा एक मामला मध्यप्रदेश से अभी आया है जिसमें छिंदवाड़ा जिले की एक लडक़ी गायब हो गई। पुलिस ने उसके कत्ल के जुर्म में उसके भाई और पिता को गिरफ्तार किया, उनके घर के पास से एक खेत में दफन एक मानव कंकाल भी पुलिस ने बरामद किया, और सात बरस की जांच के बाद अभी 2021 में पुलिस ने बाप-बेटे को ही इस कत्ल में मुजरिम ठहराते हुए गिरफ्तार कर लिया, ये दोनों एक बरस जेल में रहे। लेकिन मामले में एक नाटकीय मोड़ तब आया जब मर चुकी मानी गई यह लडक़ी लौटकर आ गई, थाने पहुंची, और उसने बताया कि वह गुस्से में घर से चली गई थी, अब वह शादीशुदा है, और दो बच्चे भी हैं। इससे एक बार फिर यही साबित होता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था बुनियादी कमजोरियों और खामियों से आजाद नहीं है, और ऐसे में इसके भरोसे किसी को फांसी सुना देना ठीक नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि जो परिवार इस एक बरस की ऐसी तकलीफ झेल चुका है, उसकी भरपाई कैसे होगी?

भारतीय न्याय व्यवस्था में एक सुधार करने की जरूरत है। बल्कि दो अलग-अलग किस्म के सुधार। इन दोनों के बारे में हम अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग लिखते आए हैं, लेकिन आज उन्हें जोडक़र देखने की जरूरत है। पहले से हमारा यह मानना है कि अगर समाज में कोई ताकतवर व्यक्ति किसी कमजोर के खिलाफ कोई जुर्म करे, तो ऐसे ताकतवर की संपन्नता से एक पर्याप्त बड़ा हिस्सा उस कमजोर को मिलना चाहिए, जिसकी जिंदगी बर्बाद हुई है। यह नुकसान तय करने के कुछ फॉर्मूले होने चाहिए, और इसी तरह मुजरिम की संपन्नता को आंकने के भी। हमारा यह भी सुझाव रहा है कि कोई अपने से कमजोर तबके की लडक़ी या महिला से बलात्कार करे, तो बलात्कारी की संपत्ति का एक हिस्सा उस गरीब को उसी तरह मिलना चाहिए, जिस तरह संपत्ति में परिवार के लोगों को हिस्सा मिलता है। अब इसके साथ-साथ यह भी होना चाहिए कि अगर कोई बेकसूर पुलिस और न्याय व्यवस्था की कमजोरी या खामी से कोई सजा भुगतते हैं, तो उन्हें इसकी भरपाई का एक सरकारी इंतजाम होना चाहिए। यह इंतजाम करने के लिए सरकार को एक फंड बनाना चाहिए, जिसमें इक_ा रकम बेगुनाह लोगों की भरपाई में काम लाई जा सके। अब चूंकि सरकारें उदार और खुली अर्थव्यवस्था पर बहुत भरोसा करती हैं, इसलिए वे ऐसे हर्जाने या मुआवजे के भुगतान के लिए कोई बीमा भी कर सकती हैं। आज भी सडक़ पर चलने वाली गाडिय़ों का ऐसा बीमा होता है जिससे कि एक्सीडेंट में नुकसान पाने वाले को उससे भरपाई की जा सके। भारतीय न्याय व्यवस्था बहुत बेकसूरों के साथ ऐसा एक्सीडेंट करवाते चलती है, और वहां भी लोगों को मुआवजे का हक बहुत जरूरी है। परिवार की लडक़ी के कत्ल के आरोप में बाप और भाई की गिरफ्तारी, और उनको अदालती कैद, यह किसी भी परिवार को तबाह करने के लिए पर्याप्त बातें हैं, और इस पर जुर्माने और हर्जाने का इंतजाम इंसाफ की बुनियादी जरूरत है।

भारत में अधिकतर जुर्म के लिए पुलिस ही अकेली जांच एजेंसी है, और इसे पिछली पौन सदी में लगातार तबाह किया गया है। अलग-अलग पार्टियों की सरकारों ने अलग-अलग प्रदेशों में इसका अंतहीन राजनीतिक इस्तेमाल किया है, और अपने विरोधियों के खिलाफ इसे जुल्म ढाने का एक हथियार बनाकर रख दिया है। जाहिर है कि अपने ऐसे बेजा इस्तेमाल के खिलाफ पुलिस कुछ उम्मीद भी करेगी, और वह उम्मीद भ्रष्टाचार की गुंजाइश वाली, मलाईदार समझी जाने वाली कुर्सियों की शक्ल में पुलिस को दी जाती है। आज देश भर में पुलिस एक बहुत ही संगठित भ्रष्टाचार की मशीनरी बन गई है, और इसके सुधरने का कोई आसार नहीं दिख रहा है। हर सरकार अपने से पहली सरकार के कुकर्मों को एक शुरूआती पैमाना मानकर उसके ऊपर भ्रष्टाचार की नई तरकीबें निकालती हैं। नतीजा यह है कि अधिकतर प्रदेशों में पुलिस की कमाऊ कुर्सियां नीलाम होती हैं, और फिर पुलिस इसी तरह बेकसूरों को धांसकर उनसे वसूली-उगाही में जुट जाती है, और संगठित अपराधों से हिफाजती-हफ्ता वसूलने लगती है। बहुत सी अदालतों में पुलिस को इन्हीं सब हरकतों के लिए आड़े हाथों लिया है, और एक हाईकोर्ट जज ने हिन्दुस्तानी पुलिस को वर्दीधारी गुंडों के गिरोह किस्म की कोई बात लिखी थी। पुलिस और अदालतों की नाकामी का यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और बेकसूर जनता को उनके जुल्मों के खिलाफ मुआवजे का हक होना चाहिए।

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