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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

कांग्रेस में बुधवार 26 अक्टूबर से एक नए दौर की शुरुआत हुई है। पिछले हफ्ते मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में शशि थरूर को भारी अंतर से हराकर जीत हासिल की थी। और अब उन्होंने बाकायदा कांग्रेस की कमान संभाल ली है। पिछले ढाई दशकों से लगातार सोनिया गांधी ही कांग्रेस का नेतृत्व कर रही थीं। बीच में दो साल के लिए 2017 से 2019 तक राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद संभाला, लेकिन सोनिया गांधी फिर भी केंद्र में बनी ही रहीं। पाठक जानते हैं कि सोनिया गांधी राजनीति में आने की इच्छुक नहीं थीं। अपनी सास इंदिरा गांधी और पति राजीव गांधी की क्रूर हत्याएं उन्होंने देखी हैं।

लेकिन जब उन्होंने महसूस किया कि कांग्रेस को उनकी सख्त जरूरत है, तो अपनी अनिच्छाओं, असुविधाओं और आशंकाओं को पीछे करते हुए उन्होंने अध्यक्ष पद की महत्तर जिम्मेदारी संभाली। जब 1998 में सोनिया गांधी ने कांग्रेस की बागडोर अपने हाथ में ली, तब केवल मध्यप्रदेश, ओडिशा और मिजोरम में कांग्रेस की सरकारें थीं। उस दौर में भारतीय राजनीति के पटल पर लालू प्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव जैसे क्षेत्रीय राजनीति के पुरोधा अपना दबदबा दिखला रहे थे। और इस दौरान राम मंदिर आंदोलन से भाजपा भी राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस को चुनौती दे रही थी।

अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा केंद्र की सत्ता में आ चुकी थी। भाजपा के पास हिंदुत्व का मुद्दा था, जिसके बूते ध्रूवीकरण की राजनीति की जा रही थी। आर्थिक मोर्चे पर संकट थे, लेकिन नीतियां नरसिंह राव के शासनकाल जैसे ही थी। ऐसे माहौल में सोनिया गांधी के सामने कांग्रेस को मजबूत करने की चुनौती तो थी ही, राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस क्यों जरूरी है, इस सवाल का संतोषजनक जवाब भी जनता को देना था। कहने की जरूरत नहीं कि सोनिया गांधी ने ये दोनों काम बखूबी किए। नतीजा ये रहा है कि कांग्रेस ने 2004 का लोकसभा चुनाव जीता और यूपीए की सरकार केंद्र में बनी।

फिर 2009 में यही सफलता फिर दोहराई गई। हालांकि इसके बाद भाजपा ने भी अपनी रणनीतियों में बदलाव किया। नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति के केंद में कैसे लाया जाए, और भाजपा दीर्घकाल तक सत्ता में कैसे बनी रहे, इसकी तैयारी भाजपा ने की। 2014 से कांग्रेस की हार का सिलसिला शुरु हुआ, इसके साथ ही बिखराव भी होता गया।

अब कांग्रेस के कई कद्दावर नेता भाजपा समेत दूसरे दलों में हैं। पार्टी की केवल राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार है। बिहार, तमिलनाडु, झारखंड में कांग्रेस गठबंधन सरकार में है, लेकिन उसकी भूमिका गौण है। कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पुड्डूचेरी. पंजाब की सत्ता कांग्रेस के हाथ से जा चुकी है। उत्तरप्रदेश, प.बंगाल, ओडिशा, उत्तराखंड जैसे राज्यों में कांग्रेस अपनी पुरानी मजबूती कैसे हासिल करे, यह कठिन सवाल उसके सामने है। पार्टी के भीतर बगावती सुर पहले से अधिक तेज हो चुके हैं और कार्यकर्ताओं पर भी बड़े नेताओं की गुटबाजी का असर दिखने लगा है।

भाजपा बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देती है। इन कठिन परिस्थितियों में मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद को संभाला है। 80 बरस के श्री खड़गे अनुभवी नेता हैं। उनका जनाधार भी काफी मजबूत है। ब्लॉक स्तर से लेकर राष्ट्रीय राजनीति तक उन्होंने आधी सदी तक अपना नेतृत्व विभिन्न मुकामों पर दिया है। वे 9 बार विधायक रहे, इसके अलावा लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे। इन उपलब्धियों के बावजूद उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं कभी पार्टी हित से ऊपर नहीं रहीं। 1999, 2004 और 2013 तीन मौकों पर वे कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनने से चूक गए, उनकी जगह मौका दूसरे नेताओं को मिला। लेकिन इस वजह से नाराज़ होकर या सम्मान न मिलने की शिकायत लेकर श्री खड़गे ने कभी कांग्रेस नहीं छोड़ी। वे एक सच्चे सिपाही की तरह पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ काम करते रहे।

मल्लिकार्जुन खड़गे को गांधी परिवार का करीबी कहा जाता है। अध्यक्ष पद के चुनाव में भी यही कहा गया कि गांधी परिवार का अघोषित समर्थन उन्हें प्राप्त है। दरअसल कांग्रेस को मजबूत करने की जो भावनाएं गांधी परिवार की हैं, जिन मूल्यों के साथ वो राजनीति करता है, उन्हीं मूल्यों, सिद्धांतों और भावनाओं के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे काम करते हैं। इसलिए उनकी और गांधी परिवार की करीबी नजर आती है। हालांकि सोनिया गांधी ने यह सुनिश्चित किया कि चुनाव पूरी निष्पक्षता के साथ हों। और बुधवार को श्री खड़गे को उनके दफ्तर तक वे सम्मान के साथ पहुंचाने गयीं। श्री खड़गे जब अध्यक्ष पद का कार्यभार संभाल रहे थे तो इस मौके पर शशि थरूर भी थे। उनकी मौजूदगी यह बताती है कि कांग्रेस में फिलहाल कोई दरार नहीं है।

अब देखने वाली बात ये है कि मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस को किस तरह इस कठिन समय में सशक्त नेतृत्व देते हैं। गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव में उनके नेतृत्व का पहला इम्तिहान होगा। इसके बाद अगले साल छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक आदि के चुनावों में उन्हें अपना अध्यक्षीय कौशल दिखाना होगा। क्योंकि चुनावों के वक्त पार्टी में सबसे अधिक तोड़फोड़ होती है। छुटभैये नेता भी दबाव की राजनीति पर उतर आते हैं और इसका असर चुनाव पर पड़ता है। इस वक्त भाजपा के साथ-साथ एआईएमआईएम और आम आदमी पार्टी जैसे दल भी नए क्षेत्रीय समीकरण बना रहे हैं। समाज में कट्टरता पहले से अधिक नजर आ रही है, संवैधानिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है और संवैधानिक संस्थाएं अपने मायने खोते जा रही हैं। इस माहौल में किन आदर्शों और सिद्धांतों को लेकर श्री खड़गे कांग्रेस को आगे बढ़ाएंगे, ये देखना होगा।

आखिरी बात, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से देश में कांग्रेस को लेकर एक नयी हलचल और उत्सुकता का माहौल बना है। राहुल गांधी जनप्रिय नेता बनकर उभर रहे हैं। उन्होंने कहा है कि कांग्रेस में उनकी भूमिका नए अध्यक्ष तय करेंगे। तो देखना होगा कि भारत जोड़ो यात्रा की सफलता और राहुल गांधी की बढ़ती लोकप्रियता को कांग्रेस के पक्ष में भुनाने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे किस तरह की रणनीति बनाते हैं।

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