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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

 

-सर्वमित्रा सुरजन।।

लूला डी सिल्वा के शासनकाल में ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था भी तेज़ी से आगे बढ़ी। 2002 से 2010 के बीच ब्राजील की अर्थव्यवस्था 1.89 ट्रिलियन डॉलर के साथ दुनिया की 12वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनी और महंगाई दर 14 प्रतिशत से घट कर चार प्रतिशत पर आ गई। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इन्हीं सब वजहों से एक बार लूला डी सिल्वा को दुनिया का सबसे लोकप्रिय नेता बताया था।

दक्षिण अमेरिका के सबसे बड़े देश ब्राजील में करिश्माई नेता माने जाने वाले लूला डी सिल्वा की एक बार फिर से सत्ता में वापसी हुई है। वर्तमान राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो को चुनाव के कड़े मुकाबले में लूला डी सिल्वा ने मामूली अंतर से मात दी है। लूला को 50.9 प्रतिशत और बोलसोनारो को 49.1 प्रतिशत वोट मिले हैं। मगर यह जीत क्रांतिकारी मानी जा रही है, क्योंकि छह सालों बाद ब्राजील दक्षिणपंथ से फिर वामपंथ की ओर झुका दिख रहा है। वामपंथी वर्कर्स पार्टी के नेता लुईस ईनास्यू लूला डी सिल्वा 2003 से लेकर 2006 तक और 2007 से 2010 के बीच दो बार ब्राज़ील के राष्ट्रपति रह चुके हैं। उनके शासनकाल ब्राजील की न केवल आर्थिक प्रगति हुई, बल्कि गरीब जनता को सम्मान के साथ जीने का हक मिला। ब्राज़ील में बड़े पैमाने पर सामाजिक कल्याण के कार्यक्रम शुरू किए गए, जिनके बूते ब्राज़ील के करोड़ों लोग ग़रीबी से ऊपर उठे। बोल्सा फ़ेमिलिया जैसी योजनाओं के तहत ग़रीबों के बच्चों को स्कूल भेजने और स्वास्थ्य जांच कराने के लिए नकद सहायता दी गई। इन कार्यक्रमों की तुलना यूपीए शासन में शुरु हुई मध्याह्न भोजन, मनरेगा और सूचना का अधिकार से की जा सकती है, जिनकी बदौलत हिंदुस्तान में गरीबों का जीवन स्तर ऊंचा उठा और लोकतंत्र मजबूत हुआ।

लूला डी सिल्वा के शासनकाल में ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था भी तेज़ी से आगे बढ़ी। 2002 से 2010 के बीच ब्राजील की अर्थव्यवस्था 1.89 ट्रिलियन डॉलर के साथ दुनिया की 12वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनी और महंगाई दर 14 प्रतिशत से घट कर चार प्रतिशत पर आ गई। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इन्हीं सब वजहों से एक बार लूला डी सिल्वा को दुनिया का सबसे लोकप्रिय नेता बताया था। लेकिन लूला पर ब्राज़ील की एक भवन निर्माण कंपनी से रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया, कि इसके बदले उस कंपनी को ब्राज़ील की सरकारी कंपनी पेट्रोब्रास के ठेके मिले थे। 2017 में निचली अदालत ने लूला को दोषी ठहराया और उन्हें 10 साल की सजा हुई।

अदालत ने कहा था कि वे अपील कर जेल से बाहर रह सकते हैं। बहरहाल, लूला डी सिल्वा को 580 दिन जेल में बिताने पड़े। वह 2018 का राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ पाए थे। और माना जा रहा था कि उनका राजनैतिक जीवन खत्म हो गया है। लेकिन ब्राजील की सर्वोच्च अदालत ने उन्हें निर्दोष करार दिया और इस तरह लूला डी सिल्वा को फिर से चुनावी मैदान में उतरने का मौका मिला। सुप्रीम कोर्ट ने लूला की इस दलील को मान लिया कि उन पर आरोप दुर्भावनावश लगाए गए थे। रविवार को विजयी होने के बाद लूला ने अपने हजारों समर्थकों को संबोधित करते हुए कहा- ‘उन्होंने (विपक्षियों ने) मुझ दफनाने की कोशिश की थी, लेकिन मैं आज यहां मौजूद हूं। एक जनवरी 2023 से मैं साढ़े 21 करोड़ ब्राजीलवासियों का शासन संभालूंगा, सिर्फ उन लोगों का नहीं, जिन्होंने मुझे वोट दिया है।’

लूला डी सिल्वा के सामने घोर दक्षिणपंथी नेता जाएर बोलसोनारो को मात मिली है। 2019 में ब्राजील की कमान संभालने वाले बोलसोनारो अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का दावा करके सत्ता में आए थे। लेकिन अर्थव्यवस्था में सुधार के नाम पर उन्होंने निजीकरण को बढ़ावा दिया, बाजार को और अधिक खोल दिया और इसके साथ ब्राजील की प्राकृतिक संपदा अमेजन के वर्षावन को अंधाधुंध कटने दिया। नेशनल स्पेस रिसर्च एजेंसी इनपे के मुताबिक़, 2022 के पहले छह महीनों में ही अमेज़न में इतने अधिक पेड़ काटे गए कि न्यूयॉर्क शहर से पांच गुना बड़ा इलाका साफ़ हो गया है। आरोप है कि बोलसोनारो ने अमेजन जंगल का बड़ा हिस्सा निजी कंपनियों को दे दिया है।

राष्ट्रपति बनने से पहले भी बोलसोनारो ने अमेज़न के अधिक से अधिक व्यावसायिक दोहन के लिए अपना समर्थन ज़ाहिर किया था। और पद पर आने के बाद अपने इरादों को हकीकत में बदल दिया। इन जंगलों के कटने से यहां रहने वाली जनजातियों का अस्तित्व भी ख़तरे में पड़ गया और जलवायु के खतरे भी बढ़े। मगर इन सारी चिंताओं को दरकिनार करते हुए निजी क्षेत्रों के लाभ के लिए फैसले लिए जाते रहे और नाम लगाया गया अर्थव्यवस्था में मजबूती का। मगर ब्राजील में महंगाई लगातार दहाई अंकों में बनी रही और गरीबी, बेरोजगारी से लोगों का जीना दूभर हो गया। इसके अलावा कोरोना महामारी के दौरान बचाव के और बाद में टीकाकरण को लेकर बोलसोनारो ने जो लापरवाह रवैया अपनाया, उससे भी लोगों में नाराजगी बढ़ी। याद रहे कि अमेरिका, भारत और ब्राजील में कोरोना से मौतों के आंकड़े सबसे ज्यादा थे।

बहरहाल, बोलसोनारो की जनता की तकलीफों को लेकर संवेदनहीनता और उपेक्षा भरा व्यवहार आखिरकार उनकी सत्ता के लिए नुकसानदायक साबित हुआ। जानकारों का मानना है कि बहुत से मतदाता इस बार वोट डालने किसी उम्मीद की वजह से नहीं, बल्कि बोलसोनारो से मुक्ति पाने के मकसद से गए। और ऐसे में उनके सामने खड़े लूला डी सिल्वा को अपने पिछले कार्यकाल में हासिल आर्थिक उपलब्धियों का लाभ चुनावों में मिला। अब भी ब्राजील की संसद में बोलसोनारो के बहुत से समर्थक जीत कर पहुंचे हैं, जो लूला डी सिल्वा को शासन में बाधाएं डालकर परेशान करते रहेंगे। लेकिन लूला इसके लिए भी तैयार हैं।

उन्होंने अब धुर वामपंथ की जगह मध्यममार्ग को अपनाया है। बहुत कुछ नेहरूवादी तरीके की तरह। उन्होंने बड़ी सावधानी से अपना गठबंधन तैयार किया है और इसमें मध्यमार्गी दलों के अलावा कुछ ऐसी पार्टियों को भी शामिल किया है, जिनका रुझान दक्षिणपंथ की तरफ है। उन्होंने उप राष्ट्रपति पद के लिए साओ पाओलो राज्य के पूर्व गवर्नर जेराल्डो एल्कमिन को उम्मीदवार बनाया, जो कभी उनके खिलाफ चुनाव लड़ चुके थे। इस गठबंधन का फायदा लूला डी सिल्वा को मिला। अपनी जीत के बाद उन्होंने कहा कि इस देश को शांति और एकता की ज़रूरत है। लोग अब आपस में लड़ना नहीं चाहते।

लूला डी सिल्वा की जीत पर दुनिया भर से उन्हें बधाई के संदेश मिल रहे हैं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी उन्हें शुभकामनाएं प्रेषित की हैं। जबकि विपक्षी सांसद और इस वक्त भारत जोड़ो यात्रा में जुटे राहुल गांधी ने ट्वीट कर लूला डी सिल्वा के साथ-साथ ब्राजील की जनता को बधाई दी है। उन्होंने लिखा है कि यह गरीबों, कामगारों, हाशिए के समुदायों की जीत है, सामाजिक न्याय की जीत है।

राहुल गांधी के इस ट्वीट के राजनैतिक निहितार्थ समझे जा सकते हैं। दरअसल भारत ही नहीं, इस वक्त पूरी दुनिया में पूंजीवाद और दक्षिणपंथी ताकतों का एक नया गठजोड़ उभरा है, जिसकी वजह से सामाजिक न्याय के लिए स्थान सिमटता जा रहा है और मानवाधिकारों की बात को बुद्धिजीवियों का शगल बता दिया जाता है। लेकिन इस पूंजीवादी संकुचित विचारधारा को उदारवादियों की चुनौती मिलने लगी है। फिलहाल दक्षिण अमेरिका पूरी दुनिया में नए तरह का राजनैतिक चलन स्थापित करता जा रहा है। मैक्सिको में एंद्रे मैनुअल लोपेज, अर्जेंटीना में अल्बर्टो फ़र्नांडिस, चिली में भी गैब्रियल बोरिक, पेरू में पेद्रो कैस्तिलो और कोलंबिया में गुस्तावो पेत्रो की वामपंथी सरकारों के बाद अब ब्राजील में लूला डी सिल्वा की सत्ता फिर से आ चुकी है।

दक्षिण अमेरिकी देशों की दिखाई राह पर युद्ध, आतंकवाद, भूख और गरीबी से जूझ रही दुनिया क्या चलना मंजूर करेगी। क्या धर्म और बम की जगह रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वस्थ मनोरंजन को प्राथमिकता देने वाली सरकारों को जनता चुनेगी। ये देखना दिलचस्प होगा।

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One thought on “ब्राजील-सामाजिक न्याय की जीत

  1. Jaswant Singh says:

    Very Beautiful Factual Writeup.

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