अगले सप्ताह 12 नवंबर को होने वाले हिमाचल प्रदेश चुनाव और एक महीने बाद के गुजरात चुनाव पर इस वक्त देश का ध्यान लगा हुआ है। दोनों ही राज्यों में भाजपा की सत्ता है, जिसे बरकरार रखने के लिए पूरा जोर लगाया जा रहा है। खुद प्रधानमंत्री कभी हिमाचल प्रदेश तो कभी गुजरात में प्रचार करते नजर आ रहे हैं। इन चुनावों के नतीजे 8 दिसंबर को पता चलेंगे, लेकिन उससे पहले छह राज्यों में सात विधानसभा उपचुनावों के जो नतीजे आए हैं, वो काफी दिलचस्प हैं। उत्तरप्रदेश, बिहार, हरियाणा, ओडिशा, महाराष्ट्र, और तेलंगाना इन छह राज्यों में सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए।
बिहार में दो सीटें और बाकी प्रदेशों में एक-एक सीट पर चुनाव थे। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में तो भाजपा के सामने कांग्रेस की चुनौती है और आप मुकाबले को त्रिकोणीय बना रही है। लेकिन इन उपचुनावों में असली मुकाबला भाजपा बनाम क्षेत्रीय दलों जैसे सपा, राजद, टीआरएस, शिवसेना, और बीजद का था। जिसमें निश्चित तौर पर भाजपा बाजी मार ले गई। सात में से 4 सीटों पर उसकी जीत हुई है। भाजपा ने उप्र में गोला गोकर्णनाथ, हरियाणा में आदमपुर, बिहार की गोपालगंज और ओडिशा में धामनगर सीट जीत ली है।
हरियाणा में आदमपुर सीट पहले कांग्रेस के पास थी, लेकिन कुलदीप बिश्नोई के कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जाने और फिर विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा देने के बाद इस सीट पर उपचुनाव हुए। आदमपुर सीट भजनलाल परिवार का गढ़ मानी जाती है और इस बार भजनलाल के पोते भव्य बिश्नोई इस सीट पर भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर खड़े हुए थे। उनकी जीत तय ही मानी जा रही थी, लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश ने उन्हें कड़ा मुकाबला दिया। भव्य बिश्नोई 15 हजार वोटों के अंतर से जीते।
इस मुकाबले में आप कहीं नजर नहीं आई, जबकि कांग्रेस को हरियाणा में गुटबाजी का नुकसान भुगतना पड़ा। अगर लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस अपनी इस बड़ी खामी को दूर कर पाती है, तभी वह भाजपा की चुनौतियों का सामना कर पाएगी। महाराष्ट्र में शिवसेना के दो गुट बनने के बाद अंधेरी (पूर्व) में हुआ उपचुनाव उद्धव ठाकरे के लिए प्रतिष्ठा का सवाल था। इस सीट पर शिवसेना ने नए नाम और निशान के साथ चुनाव लड़ा। शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) और मशाल चुनाव चिह्न के साथ ऋ तुजा लटके ने ये चुनाव आसानी से जीत लिया।
भाजपा ने अपने उम्मीदवार का नाम वापस ले लिया था। बताया जा रहा है कि राज ठाकरे और शरद पवार ने भाजपा से किसी प्रत्याशी को खड़े न करने की अपील की थी। हालांकि इस चुनाव में नोटा पर वोट दूसरे स्थान पर रहे, यानी जनता किसी भी प्रत्याशी को अपना प्रतिनिधि बनते नहीं देखना चाहती। यह एक चिंताजनक बात है, क्योंकि इससे लोकतंत्र में लोगों के घटते विश्वास का पता चलता है। बहरहाल, उद्धव ठाकरे इस बात पर इत्मीनान कर सकते हैं कि अभी महाराष्ट्र में उनके गुट वाली शिवसेना ने फिर से दम दिखाया है। अब नगरीय निकायों के चुनाव में पता चलेगा कि उद्धव ठाकरे का कितना प्रभाव अब भी बाकी है।
तेलंगाना में मुनगोड़े में टीआरएस ने आसान जीत दर्ज कर ली और भाजपा को एक बार फिर मात खानी पड़ी है। इससे पता चलता है कि इस दक्षिण राज्य में तमाम कोशिशों के बावजूद अभी भाजपा के लिए आगे की राह कठिन है। इन चुनावों में सबसे दिलचस्प मुकाबला उत्तरप्रदेश और बिहार में देखने मिला। उत्तरप्रदेश की गोला गोकर्णनाथ विधानसभा सीट फिर से भाजपा के खाते में ही गई है। और समाजवादी पार्टी को एक बार फिर भाजपा के आगे घुटने टेकने पड़े। दरअसल मुलायम सिंह यादव की मृत्यु के बाद यह पहला चुनाव था, जिसमें ऐसा लग रहा था कि सपा को सहानुभूति वोट मिल सकता है। मगर भाजपा ने इस एक सीट के चुनाव को भी पूरी तैयारी के साथ लड़ा।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, के साथ दोनों उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक ने अमन गिरी के लिए वोट मांगने के लिए बड़ी जनसभाएं कीं, इसके अलावा करीब 40 स्टार प्रचारकों के साथ भाजपा ने प्रचार किया, ताकि भाजपा प्रत्याशी अमन गिरी को जीत मिले। इस सीट पर मुसलमान, दलित और ब्राह्मणों की संख्या लगभग एक जैसी है और उससे थोड़ा कम सिख व कुर्मी मतदाता हैं।
यानी अलग-अलग बिरादरियों के मतदाता यहां हैं, जिन्हें एक साथ साधने का सफल प्रयोग भाजपा ने कर दिखाया। जबकि सपा एक बार फिर भाजपा की तैयारियों के मुकाबले पिछड़ गई। इस चुनाव से बाकी राजनैतिक दलों को ये सीख ले लेनी चाहिए कि जिस तरह भाजपा एक-एक सीट के लिए पूरी जी-जान लगाकर लड़ती है, वैसी ही रणनीति उन्हें भी अपनानी पड़ेगी, तभी वे सत्ता में आने के ख्वाब देख सकते हैं।
बिहार में भी एक नया सबक क्षेत्रीय दलों और भाजपा के खिलाफ गठबंधन करने वालों के लिए निकला है। यहां मोकामा सीट पर फिर से राजद प्रत्याशी की ही जीत हुई है। बाहुबली अनंत सिंह को सजा होने के कारण उन्हें विधायक पद से इस्तीफा देना पड़ा और उनकी पत्नी मैदान में उतरी थीं। उनके सामने भाजपा ने भी एक दूसरे बाहुबली ललन सिंह की पत्नी को खड़ा किया था। अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी को जीत तो मिल गई, लेकिन इस बार वोटों की संख्या कम हुई, जो अनंत सिंह के लिए जनता का जवाब है कि अगर उसे उपेक्षित महसूस कराया गया तो अगली बार जनता किसी और को मौका दे सकती है।
बिहार की गोपालगंज सीट पर भी भाजपा और राजद के बीच ही सीधा मुकाबला था। यह सीट पहले से भाजपा के पास थी, लेकिन तब भाजपा और जदयू गठबंधन में थे। इस बार राजद और जदयू का महागठबंधन है, उन्हीं की सरकार है और भाजपा सत्ता से बाहर है। मगर फिर भी भाजपा ने यहां जीत दर्ज की, क्योंकि उसके मुकाबले में जो वोट थे, वो बंटे हुए थे। राजद प्रत्याशी को केवल 18 सौ वोट से हार मिली।
गोपालगंज तेजस्वी यादव का ननिहाल है, और उनके मामा साधु यादव ने यहां अपनी पत्नी इंदिरा यादव को बसपा की टिकट पर खड़ा किया था। बसपा प्रत्याशी को 8 हजार वोट मिले, और सबसे खास बात ये है कि असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के प्रत्याशी अब्दुल सलमान को 12 हजार से अधिक वोट मिले। इस गणित को देखकर समझा जा सकता है कि भाजपा की बी टीमों का फायदा उसे मिला। अगर गैरभाजपा दल इसी तरह बिखर कर चुनाव लड़ेंगे और एक-दूसरे के वोट काटेंगे तो फिर भाजपा की हर बार जीत तय है। अब ये विपक्षी मोर्चे को विचार करना है कि वह किस तरह भाजपा का मुकाबला कर सकती है।