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मौका भी है और दस्तूर भी..

बुधवार को देश के 50वें मुख्य न्यायाधीश के तौर पर जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने शपथ ली। यह संयोग है कि उनके पिता वाईवी चंद्रचूड़ भी भारत के मुख्य न्यायाधीश की आसंदी पर विराजमान हो चुके हैं। जस्टिस वाय वी चंद्रचूड़ इस पद पर सबसे लंबे समय तक रहे। वे 22 फरवरी, 1978 से 11 जुलाई, 1985 तक मुख्य न्यायाधीश रहे। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश के पास भी करीब दो साल का वक्त इस पद पर बने रहने का है, जो प्रभावकारी छाप छोड़ने के लिए पर्याप्त समय है। दरअसल जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ ने ऐसे वक्त में प्रधान न्यायाधीश का दायित्व संभाला है, जब देश में कई तरह की उथल-पुथल मची हुई है।

आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, तकनीकी परिवर्तनों के दौर के कारण कमजोरों के लिए न्याय के अवसर कम होते जा रहे हैं। वैसे तो न्यायपालिका का कार्य हमेशा से चुनौतीपूर्ण ही रहा है, क्योंकि इंसाफ की प्रक्रिया में यह अंदेशा हमेशा बना रहता है कि कहीं जरा सी चूक के कारण निर्दोष को मुजरिम न मान लिया जाए या कानून की कमजोरियों का लाभ उठाते हुए अपराधी बाइज्जत बरी न हो जाए। और यह चुनौती इस समय अधिक बड़ी हो चुकी है, क्योंकि अब न्याय के क्षेत्र में राजनैतिक दखलंदाजी के रास्ते तलाश कर लिए गए हैं। अपने मकसद को साधने के लिए सत्ताधारी दल न्यायपालिका की आड़ लेने लगे हैं। न्यायविद सब कुछ जानते हुए भी, कई बार खुद को लाचार महसूस करने लगे हैं।

कुछ साल पहले यह लाचारी न्यायाधीशों की प्रेस कांफ्रेंस के रूप में सामने आई थी। कई बार इसे अदालतों के बाहर किसी अन्य मंच से संकेतों में न्यायाधीश जाहिर कर चुके हैं। मीडिया, सोशल मीडिया अदालती परिसर के बाहर अपनी अलग पंचायत बिठाने लगे हैं, जिसमें तय एजेंडे के मुताबिक किसी को कठघरे में खड़े किया जाता है और फिर चर्चा के नाम पर फैसला सुनाया जाता है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने की गलती करने का यही नतीजा होना भी था कि टीवी चैनल पर बैठे एंकर खुद को न्यायाधीश मानने लग जाएं।

मीडिया के अलावा राजनैतिक दलों का दबाव भी न्यायपालिका के लिए चुनौती खड़ी करता है। जनहित के कई मुद्दों पर सरकार की उपेक्षा के कारण न्यायपालिका को स्वत: संज्ञान लेकर जब उन मुद्दों पर कोई फैसला देना पड़ता है, तो इसे सरकार की ओर से अपने कार्यक्षेत्र में दखल की तरह देखा जाता है। यानी सरकार के साथ संतुलन बनाकर चलना भी एक बड़ी चुनौती है।

इन विभिन्न चुनौतियों के बीच जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ ने प्रधान न्यायाधीश का पद संभाला है, और उनके पास दो वर्षों का वक्त भी है, तो उनसे अब देश न्यायिक व्यवस्था में बड़े सुधार की अपेक्षा लगाए बैठा है। हाल ही में एक अंग्रेजी अखबार से चर्चा में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि लोकतंत्र में कोई भी संस्थान इस बात का दावा नहीं कर सकता कि वह त्रुटिहीन है, परिपूर्ण है और हम इसमें सुधार ला सकते हैं।

जस्टिस चंद्रचूड़ के मुताबिक यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। उनकी यह बात काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे यह मान रहे हैं कि जो संवैधानिक संस्थाएं इस वक्त हैं, उनमें सुधार की गुंजाइश बाकी है। अगर यह मान लिया जाए कि जो व्यवस्था है, वह सही है और ऐसी ही रहेगी तो फिर न सुधार होगा, न हालात बेहतर होंगे। अपनी प्राथमिकताओं के बारे में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि उनकी पहली प्राथमिकता जिला अदालतों से लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में खाली पड़े पदों को भरने की है।

अदालतों पर काम का बढ़ता बोझ और खाली पड़े पद, इन दो कारणों से देश में न्याय प्रक्रिया कछुए की चाल से चलती है। कई मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतें लगाने की नौबत आती है। लेकिन न्याय प्रक्रिया में देरी का आलम ये है कि कोई व्यक्ति इंसाफ की गुहार लेकर अदालत पहुंचता है, और ऐसा भी होता है कि उसके मरने के सालों बाद फैसला आए या फिर फैसला आने में इतनी देर हो जाए कि इंसाफ अपने मायने ही खो दे। इस गंभीर स्थिति को अदालतों में खाली पड़े पदों को भरकर सुधारा जा सकता है। मगर इसके साथ नए मुख्य न्यायाधीश को न्याय व्यवस्था की अन्य विडंबनाओं पर भी ध्यान देना होगा। जैसे निचली अदालतों या कई बार उच्च न्यायालयों में भी जो लोग इंसाफ करने बैठे हैं, वे कई बार पूर्वाग्रहों से संचालित होते हैं।

भारतीय समाज में जाति, धर्म और लैंगिक भेदभाव की जो रूढ़ियां बचपन से मन में डाल दी जाती हैं, उनसे मुक्ति पाना आसान नहीं होता और इसका नुकसान ऐसे पूर्वाग्रहों से ग्रसित न्यायविदों के फैसलों के रूप में भुगतना पड़ता है। समाज में कमजोर माने जाने वाले दलित, आदिवासी, महिलाएं और गरीब लोग अक्सर इनका खामियाजा उठाते हैं। पिछले कुछ बरसों में कई ऐसे फैसले देखने मिले, जिसमें बलात्कार पीड़िता को उसके कपड़ों के आधार पर गलत ठहराया गया या किसी जाति विशेष के व्यक्ति को संदेह की नजर से देखा गया। जस्टिस चंद्रचूड़ इस खामी को कैसे दूर कर पाते हैं, ये देखना होगा। कॉलेजियम जैसे मुद्दों पर सरकार और न्यायपालिका के बीच जो विरोधाभास है, उसे भी दूर कर, टकराव की स्थिति को जस्टिस चंद्रचूड़ कैसे ठीक करते हैं, यह देखना भी दिलचस्प होगा।

अपना कार्यभार संभालने से पहले जस्टिस चंद्रचूड़ महात्मा गांधी को श्रद्धासुमन अर्पित करने गए। आज के दौर में जब बापू के हत्यारे गोडसे का महिमामंडन सार्वजनिक तौर पर घमंड के साथ किया जा रहा है, उस समय गांधीजी के साथ खड़ा होना ही उम्मीद की किरण देता है। गांधीजी आंख पर पट्टी बांध कर किसी बात को नहीं मानते थे, बल्कि सच कहने और बताने के लिए उसे हर तरह से परखते थे। सत्य और अहिंसा के अपने सिद्धांतों को भी उन्होंने खुद पर बार-बार परखा कि वे इन पर सही तरीके से चल पा रहे हैं या नहीं। उम्मीद की जा सकती है कि अब नए मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में देश की अदालतें भी अपनी कमियों को परख कर उन्हें दूर करेंगी। अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति को इंसाफ मिले, ऐसा माहौल बनेगा।

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