Latest Post

कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

कर्नाटक की भाजपा सरकार ने राज्य में विवेका योजना के तहत बनाए जा रही 7,500 से अधिक नई कक्षाओं को भगवा रंग में रंगने का फैसला लिया है। इसके अलावा सरकार ध्यान कक्षाएं लगाने की भी तैयारी में है। स्कूलों में गीता को पाठ्यक्रम में शामिल करने का फैसला तो कर्नाटक सरकार ने पहले ही ले लिया था। शिक्षा के क्षेत्र में एक के बाद एक किए जा रहे ये प्रयोग कट्टर हिंदुत्व की मानसिकता से उपजे दिखाई दे रहे हैं।

लेकिन इन्हें कभी संस्कृति, कभी आध्यात्म और कभी वास्तुकारों के सुझावों का नाम दिया जा रहा है। जी हां, कक्षाओं को भगवा रंग में रंगने का फैसला शिक्षा मंत्री बी सी नागेश के मुताबिक वास्तुकारों की सलाह पर लिया गया है और यह किसी विचारधारा से संबंधित नहीं है।

जबकि कांग्रेस ने कक्षाओं पर भगवा रंग चढ़ाने का विरोध किया तो मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने कहा कि ऐसे मुद्दों पर राजनीति करना ठीक नहीं है। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में भगवा रंग होता है। भगवा रंग देखकर कांग्रेसी इतने दुखी क्यों हैं? उन्होंने कहा कि हम कक्षाओं का निर्माण कर रहे हैं और उन्हें स्वामी विवेकानंद को समर्पित कर रहे हैं जो भगवा वस्त्र पहनने वाले संत थे। ऐसे में गलत क्या है?

ऐसे मासूम तर्कों की आड़ में, स्वामी विवेकानंद के सहारे भाजपा किस तरह शिक्षा का भगवाकरण करने में लगी है, यह समझना कठिन नहीं है। वैसे इस साल मार्च में तत्कालीन उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने हरिद्वार स्थित देव संस्कृति विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई शांति एवं सुलह संस्थान का उद्घाटन करते हुए मैकाले द्वारा बनाई गई शिक्षा प्रणाली को खारिज करने का आह्वान किया था। तब श्री नायडू ने कहा था कि शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण भारत की नई शिक्षा नीति का केंद्र है, जो मातृ भाषाओं को बढ़ावा देने पर बहुत जोर देती है। इसके साथ ही उन्होंने पूछा था, ‘हम पर शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप है, लेकिन भगवा में गलत क्या है?’

पूर्व भाजपा नेता और उपराष्ट्रपति का सवाल और अब कर्नाटक के मुख्यमंत्री का सवाल लगभग एक जैसा ही है। और इनका जवाब यही है कि रंग कोई भी खराब नहीं होता, लेकिन किसी रंग को बढ़ावा देने के पीछे जो विचारधारा काम कर रही है, जिस नीयत से एक खास रंग को बढ़ावा दिया जा रहा है, उस पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

वैसे तो काले रंग में भी कोई बुराई नहीं है। फिर भी प्रधानमंत्री की कई सभाओं में काले रंग के कपड़े, टोपी, बाजू की पट्टी सब पर प्रतिबंध क्यों होता है। क्या भाजपा इस सवाल का जवाब देगी कि उसे काले रंग से क्या परेशानी है।

यह अच्छी बात है कि स्वामी विवेकानंद को समर्पित विवेका योजना में नई कक्षाओं का निर्माण हो रहा है। स्वामी जी खुद महान शिक्षाविद थे। वे भले भगवा वस्त्र पहनते थे, लेकिन धर्म की कट्टरता से वे कोसों दूर थे। उनके विचारों को टुकड़ों में प्रस्तुत कर उन्हें बार-बार हिंदुत्व तक सीमित करने की कोशिश की जाती है। जैसे गांधीजी को केवल स्वच्छता अभियान तक सीमित कर दिया गया या सरदार पटेल को केवल भारतीय रियासतों के विलय तक या सुभाषचंद्र बोस को अंग्रेजों के मुकाबले आजाद हिंद फौज खड़ी करने तक।

लेकिन इन महान व्यक्तियों के कार्य और विचार का दायरा यहीं तक नहीं रहा, बल्कि ये सब बेहद उदार और व्यापक दृष्टिकोण रखते थे, जो सही मायनों में भारतीय दर्शन के अनुकूल है। अगर इनके विचारों में कट्टरता होती तो भारत के इतिहास में इनका नाम अमर नहीं होता। स्वामी विवेकानंद ऐसी शिक्षा के हिमायती थे, जिससे चारित्रिक, बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक हर तरह का विकास हो। शिक्षा उनके लिए अपने भीतर पैठे ज्ञान को खोजने का साधन थी। अपनी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था को हमें इसी कसौटी पर परखना चाहिए।

शिक्षा के नाम पर तरह-तरह के प्रयोग बरसों से किए जा रहे हैं। अगर उनसे विद्यार्थियों की बेहतरी के रास्ते खुलते हैं, तो इन प्रयोगों को जारी रखना चाहिए। मगर शिक्षा को राजनीति का मैदान बनाकर बच्चों को प्यादों की तरह इस्तेमाल करना अपने ही भविष्य को कुएं में धकेलने जैसा है। इसी कर्नाटक में हिजाब विवाद इस आधार पर खड़ा हुआ था कि शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक प्रतीकों का दखल नहीं होना चाहिए। अब अपनी ही राय के विपरीत सरकार कक्षाओं को भगवा रंग में रंग रही है। कुछ समय पहले उत्तरप्रदेश में इसी तरह कई इमारतों पर भगवा रंग चढ़ा दिया गया था।

मूर्ति की राजनीति के बाद, प्रमुख स्थानों, शहरों, सड़कों के नाम बदलने का सिलसिला चल पड़ा और अब रंग से राजनैतिक मकसद साधे जा रहे हैं। इस सिलसिले पर रोक लगनी चाहिए। सरकारें ऐसे फैसलों को अदालत में सही साबित कर भी देंगी, तब भी जनता को अपने विवेक से फैसला लेना चाहिए कि भावनाओं की ऐसी राजनीति में उसे क्या हासिल हो रहा है।

कर्नाटक समेत देश के तमाम राज्यों में सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारने पर बात होनी चाहिए। सरकारों से पूछा जाना चाहिए कि स्कूलों में बच्चों के लिए वैसी सुविधाएं क्यों नहीं हैं, जैसे संपन्न तबकों के बच्चों, अधिकारियों और नेताओं के बच्चों को उनके स्कूलों में मिलती हैं।

धन और सत्ता की शक्ति से संपन्न वर्ग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेज देते हैं या फिर देश में ही महंगे शिक्षा संस्थानों में उनकी डिग्रियों का इंतजाम होता है और पढ़ने के बाद बड़ी कंपनियों में नौकरियों का भी। मगर मध्यम और गरीब तबके के छात्रों को डिग्री और नौकरी के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है, फिर भी क्या मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। जनता को रंगों की राजनीति में उलझाकर असली मुद्दों से उसका ध्यान भटकाया जा रहा है।

इसलिए जनता को ही सतर्क रहना होगा कि वह सरकार से अपने हक का हिसाब मांगे और अपना ध्यान भटकने न दे।

Facebook Comments Box

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *