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देश में इस वक्त गुजरात विधानसभा चुनावों की चर्चा है और राजधानी दिल्ली में गुजरात चुनाव के साथ-साथ नगरीय निकाय यानी एमसीडी चुनावों की भी हलचल है। दिल्ली पर सत्तारुढ़ आम आदमी पार्टी, केंद्र पर सत्तारुढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस समेत एआईएमआईएम जैसे दल भी एमसीडी चुनावों की तैयारियों में लगे हैं। इन चुनावों को राष्ट्रीय महत्व का बना दिया गया है, क्योंकि इसके बाद दिल्ली के और फिर केंद्र के चुनावों पर इसका असर पड़ सकता है। सभी दलों के दिल्ली की आम जनता से बड़े-बड़े वादे हैं।

बिजली, पानी, सड़क, विद्यालय, अस्पताल, अवैध बस्तियां, कूड़े के पहाड़, सफाई जैसे मुद्दों पर अपने-अपने रोडमैप सभी दल पेश कर रहे हैं। जनता अब इस दिखावे की आदी हो चुकी है। क्योंकि चुनाव खत्म होते ही उसे फिर अपने जीवन की बेहतरी के इंतजाम खुद ही करने पड़ते हैं। सरकारों के पास काम न करने के बहानों की सूची भी बनी ही होती है। इसलिए अब भी देश की राजधानी दिल्ली में सीवर में मौतों का सिलसिला रोका नहीं जा सका है, न ही सीवर में सफाई कर्मियों को गलत तरीके से उतारने का सिलसिला थमा है।

पिछले सितंबर माह में दिल्ली के मुंडका इलाके में सीवर की सफाई के लिए उतरे एक सफाईकर्मी और उसे बचाने गए सुरक्षाकर्मी की जहरीली गैस की चपेट में आने से मौत हो गई थी।

उच्च न्यायालय ने इस घटना पर प्रकाशित/प्रसारित खबरों का जनहित याचिका के रूप में स्वत: संज्ञान लिया था और छह अक्टूबर को अदालत ने डीडीए को मृतकों के परिवारों को 10-10 लाख रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में देने का निर्देश दिया गया था। इस घटना में पीड़ित परिवारों ने आय अर्जित करने वाले अपने एकमात्र सदस्य को गंवा दिया था।

मगर अदालत के आदेश का पालन नहीं हुआ। इस सप्ताह मंगलवार को दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के ‘सर्वथा असहानुभूतिपूर्ण रवैये’ पर खेद प्रकट करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सतीशचंद्र शर्मा और जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने कहा, ‘हम ऐसे लोगों से बर्ताव कर रहे हैं जो हमारे लिए काम कर रहे हैं ताकि हमारी जिंदगी आसान हो, और यह वह तौर -तरीका है जिससे अधिकारी उनके साथ व्यवहार कर रहे हैं।’ मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘मेरा सिर शर्म से झुक गया।’ पीठ ने कहा, ‘छह अक्टूबर से अब हम 15 नवंबर पर आ गए हैं। जब इस अदालत ने डीडीए को धनराशि का भुगतान करने का निर्देश दिया था तब ऐसा क्यों नहीं किया गया। यह प्रश्न है।

माननीय अदालत के सवाल जायज हैं और उच्च न्यायालय की संवेदनशीलता भी गौर करने लायक है। जब सरकार और प्रशासन का रवैया क्रूरता की हद तक उपेक्षा करने वाला दिखता है, तब अदालतों का ही आसरा बचता है कि वे आम आदमी की तकलीफों को देखेंगी और समझेंगी। अदालत ने पीड़ित परिवारों की तकलीफों का संज्ञान भी लिया है।

मगर एक सवाल और है कि क्या इस मामले में सरकार और समाज का सिर भी शर्म से नहीं झुक जाना चाहिए, क्योंकि जिस प्रथा पर कानूनन रोक लगी है, उसे जारी रखा गया है, और उसमें लोगों की जान जा रही है, तो चंद रूपयों का मुआवजा भी फौरन नहीं दिया जा रहा।

चुनावों में करोड़ों रूपए पानी की तरह बहाए जाएंगे। ताकि बड़े बजट वाली योजनाएं बनाने का मौका मिले और फिर बड़ी राशियों की बंदरबांट हो। लेकिन वो परिवार जिनके घर में केवल एक ही सदस्य कमाने वाला था, उसके जिंदा न रहने पर उनकी गुजर-बसर किस तरह होती होगी, क्या इस पर राजनैतिक दल और सत्ताधारी लोगों ने विचार किया।

गौरतलब है कि 1993 में देश में मैला ढोने की अमानवीय प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था। लेकिन फिर भी इसे रोका नहीं जा सका तो 20 साल बाद 2013 में कानून बनाकर इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया था। और अब यह नजर आ रहा है कि कानून बनने के बाद भी सफाईकर्मियों के साथ यह अन्याय रुक नहीं रहा है।

अरबों की राशि खर्च कर शहरों का सौंदर्यीकरण होता है, स्मार्ट सिटी बनाई जाने लगी हैं, लेकिन बुनियादी ढांचे की कमियों को सुधारा नहीं जाता। सरकारी एजेंसियों की लापरवाही और अनदेखी के कारण अपशिष्ट प्रबंधन की सुनियोजित प्रणाली विकसित नहीं हुई है, जिसके कारण नालियां जाम होती हैं, सीवर लाइनें भरने के बाद गंदगी बाहर बहाने लगती हैं, बारिश के दिनों में यह समस्या और बढ़ जाती है। तब सफाई के लिए कर्मचारियों को सीवर में उतार दिया जाता है और फिर दुर्घटनाएं होती हैं।

सितंबर में ऐसे ही एक वाकये में 32 साल के रोहित और 30 साल के अशोक की मौत हो गई, जिनके परिजनों पर मुआवजा न मिलने पर अदालत ने कड़ी टिप्पणी की है।वैसे ध्यान देने वाली बात ये है कि दिल्ली में पिछले पांच सालों में हाथ से मैला ढोने वाले कम से कम 46 लोगों की मौत हो चुकी है। देश के बाकी इलाकों में भी यह प्रथा रुकी नहीं है।

मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 के तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। फिर भी किसी विपरीत हालात में सफाईकर्मी को सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए 27 तरह के नियमों का पालन करना होता है। लेकिन इन नियमों का भी उल्लंघन होता है और सीवर सफाई के लिए बिना सुरक्षा उपकरणों के सफाईकर्मियों को उतार दिया जाता है, जिससे उनकी जान को खतरा होता है।

दिल्ली के ताजा मामले में अदालत ने स्वत: संज्ञान ले लिया, लेकिन यह विचारणीय है कि न्यायपालिका कहां-कहां व्यवस्थाओं को देखेगी। यह काम सरकार और प्रशासन का है, लेकिन उनकी दिलचस्पी अन्य चीजों में अधिक दिखती है। इसलिए सिर तो पूरे समाज का शर्म से झुकना चाहिए।

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