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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

कतर में हो रहे विश्व कप फुटबॉल में अपने पहले मैच के पहले ईरान की टीम ने राष्ट्रगान नहीं गाया। आयोजकों की तरफ से हर टीम के देश का राष्ट्रगान बजाया जाता है, और परंपरागत रूप से सभी खिलाड़ी उसे गाते भी हैं। लेकिन ईरान में पिछले कुछ महीनों से जिस तरह जनता सरकार के खिलाफ सडक़ों पर है, मानवाधिकार आंदोलन पर जिस तरह सरकारी जुल्म टूट पड़े हैं, और करीब चार सौ मौतों का पिछले कुछ महीनों का ही अंदाज है, उसे देखते हुए ईरानी फुटबॉल टीम ने अपने देश की जनता का साथ देने और सरकार का विरोध करने का यह प्रतीकात्मक तरीका निकाला है। जाहिर है कि वे अपने देश की टीम बनकर वहां उतरे थे, न कि देश की सरकार की टीम बनकर।

आज दुनिया में कई जगहों पर सरकारों के खिलाफ लोगों के आंदोलन चलते रहते हैं। जो लोकतांत्रिक देश हैं, वहां पर भी देश या प्रदेशों की सरकारें अपनी नीतियों और फैसलों के खिलाफ किसी जनआंदोलन को बर्दाश्त नहीं करतीं। अब यह उस देश में लोकतंत्र की मजबूती या कमजोरी की बात रहती है कि वहां पर जनआंदोलन कितने जिंदा रह पाते हैं। ईरान के बारे में जो कुछ भी सुनाई पड़ता है, वहां की सरकार एक धर्म की, कट्टर और दकियानूसी सरकार है, और उसका मानवाधिकार का बहुत ही खराब रिकॉर्ड रहा है। जो फुटबॉल टीम आज प्रतीकात्मक विरोध में राष्ट्रगान गाए बिना खेल रही है, उसकी घरवापिसी के बाद उसकी गिरफ्तारी हो सकती है, और उसे सजा हो सकती है। ईरान जैसा इस्लामिक देश ही क्यों, आज तो भारत जैसे लोकतांत्रिक इतिहास वाले देश को देखें, तो यहां पर भी अगर कोई टीम अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में इस तरह का प्रतीकात्मक विरोध करेगी, तो उसके देश लौटने के पहले ही सोशल मीडिया पर दसियों लाख लोग उसे गद्दार और देशद्रोही करार देंगे, और उसके लिए कैद की मांग करेंगे, एयरपोर्ट पर कालिख लिए उनका इंतजार करेंगे। जब दुनिया के ऐसे लोकतांत्रिक देश, जहां पर कि संवैधानिक संस्थाओं के ढांचे तो हैं, वहां पर भी जब लोगों के लिए अहिंसक और शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध मुमकिन नहीं रह गया है, वह सजा का सामान बन गया है, तब ईरान की फुटबॉल टीम की बहादुरी की तारीफ की जानी चाहिए कि एक धर्मान्ध तानाशाह देश से कुछ दिनों के लिए बाहर आने पर भी उन्होंने ऐसा हौसला दिखाया है जो कि घर लौटने पर उनके लिए कैद और सजा का सामान बनना तय है।

ईरान के खिलाडिय़ों के इस हौसले से दूसरे देशों के और लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि ईरान के मुकाबले अधिक आजादी वाले देशों को अगर अपनी जमीन पर हक अधिक मिलते हैं, तो उनकी जिम्मेदारी भी अधिक होती है। हिन्दुस्तान में खासकर यह देखने में आ रहा है कि सरकारों के जुल्म के सामने लोकतांत्रिक हौसले घुटने टेक दे रहे हैं। जुल्म का सिलसिला इतना लंबा है कि सामाजिक आंदोलनकारियों को कई-कई बरस बिना जमानत जेल में रखा जा रहा है। यह जरूर है कि कुछ महीनों के भीतर जिस तरह ईरान में सैकड़ों लोगों को सरकारी दस्तों ने मार डाला है, उतनी बुरी नौबत हिन्दुस्तान में नहीं है, लेकिन दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों के लोगों को यह समझना चाहिए कि ईरान की अवाम के मुकाबले आज वे कितने महफूज बैठे हुए हैं, और कट्टरपंथी और जुल्मी ईरान सरकार के मुकाबले वहां की जनता किस हौसले से खड़ी है। अब या तो एक बात यह भी हो सकती है कि जुल्म का सिलसिला जब हद पार कर जाता है तब जनता उठ खड़ी होती है। ईरान में जिस तरह हिजाब न पहनने, या खिसक जाने पर एक लडक़ी को सरकारी नैतिक-पुलिस ने कैद में मार ही डाला, और उसी को एक प्रतीक मानकर ईरानी महिलाओं के आजादी के हक के लिए जिस तरह वहां का हर तबका उठकर खड़ा हो गया है, वह एक बहुत ही अभूतपूर्व नौबत है, और इससे दुनिया भर की अलोकतांत्रिक सरकारों को जाग जाना चाहिए। जागना तो सरकारों से परे दुनिया भर की जनता को भी चाहिए कि ईरानी जनता हक की लड़ाई की जैसी मिसाल बनकर उभरी है, उसे देखकर दूसरे देशों में भी लोगों को सीखना चाहिए, अपनी सामाजिक जवाबदारी पूरी करनी चाहिए।

जिस तरह सरकारें एक-दूसरे के जुल्म देखकर जुल्म की नई तरकीबें सीखती हैं, उसी तरह जनता को भी लोकतांत्रिक आंदोलनों की दूसरी मिसालें देखकर अपने भीतर ऐसे आंदोलन का हौसला पैदा करना चाहिए। एक तरफ हिन्दुस्तान में अंग्रेजों से अहिंसक लड़ाई लड़ रहे गांधी और उधर अमरीका में मानवाधिकार के लिए लड़ रहे मार्टिन लूथर, किंग जूनियर के सामने स्थितियां बिल्कुल अलग-अलग थीं, दोनों की कभी मुलाकात नहीं हुई थी, लेकिन किंग ने गांधी की अहिंसा की सोच को पढक़र अपना एक रास्ता बनाया था, और लिखा था कि गांधी उनके लिए राह दिखाने वाली रौशनी रहे। दो लोगों के बीच दुनिया में कोई बात होना भी जरूरी नहीं रहता, पाकिस्तान ने लड़कियों के पढऩे के हक के लिए कट्टरपंथी आतंकियों की गोलियां खाने वाली मलाला हो, या विकसित देशों के बीच से पर्यावरण बचाने के लिए लडऩे वाली ग्रेटा थनबर्ग हो, उनकी मिसालें ही दुनिया में बहुत से लोगों को हौसला देती हैं, राह दिखाती हैं। ईरान की फुटबॉल टीम और ईरान में देश भर में सडक़ों पर आंदोलन कर रही जनता आज दुनिया भर के सामने एक बड़ी मिसाल हैं, और दुनिया को इनसे सीखने का मौका चूकना नहीं चाहिए। दुनिया की सरकारें तो कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जाल के चलते एक-दूसरे के खिलाफ कुछ नहीं बोलती हैं, लेकिन आम जनता को तो दूसरे देश की लोकतांत्रिक अवाम के साथ खड़ा रहना आना चाहिए। हिन्दुस्तान की सरकार और हिन्दुस्तान की जनता, इन दोनों की सोच भी अलग-अलग हो सकती है, और दोनों के तरीके भी अलग-अलग हो सकते हैं। जनता को अपने देश की सरकार से परे अपनी खुद की अंतरराष्ट्रीय नैतिक जिम्मेदारी समझनी चाहिए।

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