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-रूपम गंगवार॥

पिछले दिनों एक लड़की से बात हो रही थी। उसने कहा कि वह फेमिनिस्ट नहीं है लेकिन इक्वालिटी की समर्थक है।

मैं सोच में पड़ गई। जो बात उसने कही यह डर अधिकांश लडकियों में देखती हूं मैं। इसे डर इसलिए कह रही हूं कि मैं स्वयं इस फेज से गुज़र चुकी हूं। एक वक्त था जब मैं खुद फेमिनिज्म को शराब पीना, लड़कों के साथ देर रात पार्टी करना, पुरुषों को भद्दी गालियां देना इस सब से जोड़ कर देखती थी। तो मैं अच्छी तरह समझ पाई कि क्यों वे फेमिनिस्ट होने को नकारती हैं और इक्वालिटी की पैरवी करती हैं।

जबकि वास्तव में अगर कोई इक्वालिटी का समर्थक है तो वह फेमिनिस्ट ही है। क्योंकि फेमिनिज्म इक्वालिटी की ही बात करता है, स्त्रियों की सत्ता की नहीं। यह फेमिनिज्म ही है जो पुरुष को भी रोने का अधिकार देता है, जबकि पितृसत्ता नहीं देती। पितृसत्ता पुरुष को कमज़ोर होने का अधिकार नहीं देती, स्त्रियों को मुखर होने का।

उधर पितृसत्ता को लेकर भी बहुत भ्रांतियां हैं लोगों के मन में। पितृसत्ता पिता की सत्ता नहीं है। बिल्कुल सरल शब्दों में समझा जाए तो पितृसत्ता एक सामाजिक व्यवस्था है जो लड़कियों को पैतृक हकों से वंचित करके दूसरे के घर विदा करती है। एक ऐसी व्यवस्था जो पैसे कमाने का मूल कर्तव्य पुरुष के पास और घर के अंदर के अवैतनिक कार्य स्त्रियों को सौंपती है। बदलते परिदृश्य में स्त्री चाहे तो कमा सकती है लेकिन घरेलू दायित्व उसी के रहेंगे, उन्हें पूरा करके वह अगर अतिरिक्त कार्य करके पैसे कमाना चाहती है तो सोने पे सुहागा। बहुत से लोग इसे ही फेमिनिज्म समझते हैं। स्त्रियों को पैसे कमाने का अधिकार। लेकिन यह दोहरा शोषण है। जब तक घरेलू कार्य में बंटवारा नहीं होता तब तक स्त्री द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य उसका शोषण है।
अब लड़कों को पैतृक घर में रहना और लड़कियों की विदाई करना इस व्यवस्था के अनुसार जो भी कोई जीवन जी रहा है वे सभी पितृसत्तात्मक ही हैं, पुरुष और स्त्री दोनों। वैसे शुरुआत में हर कोई पितृसत्तात्मक ही होता है। क्योंकि चारों तरफ यही व्यवस्था चल रही है, और सबको यही ट्रेनिंग दी जाती है। बाद में लोग अनलर्निंग करके फेमिनिज्म की तरफ कदम बढ़ाते हैं।

एक चीज़ और ध्यान रखने योग्य, फेमिनिज्म न केवल स्त्री और पुरुष को बल्कि एलजीबीटीक्यूए, विकलांगों, जातीय शोषितों, सामाजिक आर्थिक वंचितों, आदिवासियों सभी के लिए बराबरी के व्यवहार और अधिकार का समर्थन करती है।

लेकिन फेमिनिज्म शब्द को इतना निगेटिव फैला दिया गया है कि जैसे मानो हाथ में पिस्तौल चाकू लिए कोई तेज़ खूंखार लड़की पुरुषों को अपने इशारों पर नचाएगी 😊।

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