Latest Post

कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाने वाला इलाहाबाद विश्वविद्यालय पिछले कुछ वक्त से अकादमिक कारणों की जगह विवादों के कारण सुर्खियों में बार-बार आ रहा है। अब खबर आई है कि इस ऐतिहासिक विश्वविद्यालय में गोलीबारी और आगजनी की घटना हुई, जिसमें कई छात्रों को गंभीर चोटें आई हैं और कुछ सुरक्षाकर्मियों समेत कम से कम 40 लोगों के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज किया है। दरअसल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 4 सौ प्रतिशत की शुल्क वृद्धि की गई थी, जिसके खिलाफ छात्र बार-बार मोर्चा खोल रहे थे। इसके अलावा छात्रसंघ चुनाव को लेकर भी विश्वविद्यालय प्रशासन और छात्र आमने-सामने थे। विवि प्रशासन ने छात्रसंघ भवन के गेट पर ताला लगा दिया था, जिसे यहां के छात्र काफी समय से खोलने की मांग कर रहे हैं, लेकिन विवि प्रशासन इस के लिए राजी नहीं हुआ।

बताया जा रहा है कि पिछले दिनों विवि के पूर्व छात्रनेता और कांग्रेस के प्रदेश सचिव विवेकानंद पाठक की गाड़ी इसी गेट पर मौजूद गार्डों ने रोक दी। श्री पाठक का कहना है कि उन्हें सुरक्षा कर्मियों ने मारा-पीटा। जिसके बाद इस बात की खबर लगते ही करीब एक घंटे के अंदर सभी हॉस्टल और आसपास के सैकड़ों छात्र विश्वविद्यालय पहुंच गए। नाराज छात्रों ने चक्का-जाम कर दिया, वाहनों में आग लगाई, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। जबकि विवेकानंद पाठक को एक भाजपा समर्थित अखबार ने विवि का अवैध छात्र बताते हुए लिखा है कि अराजक तत्वों ने उनके साथ मिलकर छात्र संघ गेट का ताला तोड़ने की कोशिश की, और सुरक्षाकर्मियों से मार-पीट की।

एक ही खबर को दो नजरिए से पेश करना ही यह बताता है कि देश का एक और जाना-माना विश्वविद्यालय राजनीति की भेंट चढ़ चुका है। दरअसल हमारी पूरी शिक्षा नीति ही राजनीति का शिकार हो चुकी है और संभावनाओं से भरे युवा इस राजनीति के मोहरे बन गए हैं। इलाहाबाद विवि मामले में दावा तो किया जा रहा है कि निष्पक्ष जांच होगी। लेकिन अब जनता समझ चुकी है कि इस तरह के मामलों में निष्पक्षता के लिए अगर जगह होती तो न चिंगारी भड़कती, न आग लगती। कुछ निर्दोष जिंदगियां फिर दांव पर लग जाएंगी और विवि के हजारों छात्र पूरे साल इस घटना का खामियाजा भुगतेंगे।

देश में वैसे भी उच्च शिक्षा में सरकार के भरोसे रहने वाले छात्र किसी न किसी तरह की कमियों को भुगत ही रहे हैं। कहीं सत्र देरी से शुरु हो रहे हैं, कहीं स्नातक के बाद लगभग साल भर के इंतजार स्नातकोत्तर में प्रवेश के लिए करना पड़ रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय में ही इस बार स्नातक और स्नातकोत्तर में प्रवेश परीक्षाओं में छात्रों को कई तरह की उलझनों का सामना करना पड़ा। मगर इसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होगी। क्योंकि सरकार आजादी का अमृतकाल मना रही है। अभी अमृतकाल में देश में बदलाव के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। अगले 30-50 बरसों में क्या होगा, इसके सपने दिखाए जा रहे हैं। ये सारा खेल शायद इसलिए है ताकि वास्तविकताओं से ध्यान भटकाया जा सके।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वाकांक्षी रोडमैप का प्रस्ताव रखा गया है। जिसके तहत वर्ष 2030 तक देश की उच्च शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण होना है। योजना है कि दुनिया के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में से कुछ को भारत में काम करने की इजाज़त दी जाएगी, ऐसे विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश को सुगम बनाने के लिए ज़रूरी क़ानूनी सुधार किए जाएंगे।

ऐसे विश्वविद्यालयों को नियामक व्यवस्था और प्रशासनिक स्तर पर विशेष दर्जा दिया जाएगा। उन्हें देश के अन्य स्वायत्त शिक्षण संस्थानों की तरह की छूट दी जाएगी। ऐसे वजनदार दावों को पढ़-सुन कर लगता है कि मौजूदा केंद्र सरकार उच्च शिक्षा में कितना गुणात्मक सुधार लाना चाहती है। मगर ये सुधार होगा कैसे, ये कोई नहीं जानता। कम से कम मौजूदा तस्वीर तो उच्च शिक्षा की भयावह हकीकत ही दिखाती है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक के बाद एक विवाद खड़े किए जा रहे हैं। कभी नारेबाजी, कभी कैंटीन में मांसाहारी भोजन, कभी जाति की लड़ाई, जेएनयू में सिर उठाने लगी है।

जामिया मिल्लिया विवि में भी यही हो रहा है। यहां के पुस्तकालय में किस तरह पढ़ते हुए छात्रों को पीटा गया, वह दृश्य भुलाए नहीं भूलता। हैदराबाद विवि में रोहित वेमुला जैसे नौजवान को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा। वाराणसी में बीएचयू में भी तरह-तरह के विवाद खड़े हुए। और अब इलाहाबाद विवि विवादों का शिकार बना दिया गया है।

ऐसा लगता है मानो बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत उच्च शिक्षा में प्रगति के दरवाजे बंद किए जा रहे हैं, ताकि छात्र न विवि का रुख करें, न डिग्री हासिल करें, न नौकरियों की मांग करें। खाली दिमाग, शैतान का घर जैसी कहावतों का सफल प्रयोग मौजूदा राजनीति करना चाहती है। खाली बैठे नौजवानों के हाथ में सस्ता इंटरनेट और मोबाइल देकर उन्हें बहकाना आसान होगा।

राजनैतिक रैलियों या फसादों के लिए रोजी के हिसाब से भीड़ जुटाने में भी आसानी होगी। बाहुबलियों को हमेशा ही लठैतों की जरूरत पड़ती है और राजनीति तो बाहुबलियों का ही अड्डा बन गई है, चाहे शारीरिक ताकत की बाहू हो या धन की। जो सक्षम होंगे, वो अपने बच्चों को निजी विवि या विदेशी संस्थानों में पढ़ने भेज देंगे।

जब भाजपा के नेता अंग्रेजी की जगह हिंदी में पढ़ाई पर जोर देते हैं, तो इसमें उनकी मंशा शायद यही रहती है कि गरीब लोग अंग्रेजी के ज्ञान से वंचित रहें और बाहर जाने के बारे में सोच भी न सकें। यानी शिक्षा पर संपत्ति का एकाधिकार हो जाएगा। यही तो भारत का पुरातन कड़वा सच भी है, जहां केवल ब्राह्मणों या क्षत्रियों की संतानों को पढ़ने का अधिकार था और बाकी गरीब, निचले दर्जे में बांध दिए गए लोग उनकी सेवा को मजबूर कर दिए गए। हम एक बार फिर अज्ञान के उसी अंधकार में देश को लौटता देख रहे हैं।

Facebook Comments Box

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *