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राजस्थान के कोटा शहर में ऐसी दर्जनों फैक्ट्रियां चल रही हैं। यह शहर पिछले दो-ढाई दशकों में अपने कोचिंग संस्थानों के लिए मशहूर हो गया है। मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए बच्चे यहां के कोचिंग संस्थानों में प्रवेश लेते हैं। मां-बाप अगर अधिक संपन्न और महत्वाकांक्षी हुए तो बच्चों को यहां नौवीं कक्षा से ही किसी संस्थान में भर्ती करा देते हैं। उसके बाद अगले चार साल की स्कूल की पढ़ाई औपचारिकता के लिए करवा दी जाती है।

इस बार फीफा का रोमांच शुरु से आखिर तक खूब बना रहा। कई जानी-मानी टीमें उम्मीदों के अनुरूप नहीं उतर पाईं, जबकि मोरक्को, जापान, अर्जेन्टीना, सऊदी अरब जैसी टीमों ने अपने प्रदर्शन से दर्शकों को अचंभित कर दिया। इस बार कई युवा खिलाड़ियों ने अपनी ओर खास ध्यान आकर्षित दिया। पाब्लो मार्टिन पाइज़ गाविरा, युसूफ़ा मौकोको, जमाल मुसियाला, पेड्रो गोंजालेज लोपेज़, 18 से 20 आयु तक के इन खिलाड़ियों ने मैदान पर अपना ऐसा जलवा दिखाया कि पूरी दुनिया में इनके हजारों-लाखों प्रशंसक बन गए हैं।

भारत में एक कहावत है पूत के पांव पालने में, यानी अच्छे गुणों के लक्षण बचपन में ही दिख जाते हैं। अंग्रेजी और बाकी भाषाओं में भी ऐसी ही कहावतें अवश्य होंगी। और कहावत हो या न हो, दूसरे देशों में बच्चों के गुणों और लक्षणों की अनदेखी नहीं होती होगी, तभी वहां 16-17 बरस में ही बच्चे न केवल अपने पैरों पर खड़े होने की जद्दोजहद में जुट जाते हैं, बल्कि अपनी रूचि और काबिलियत के अनुरूप अपने भविष्य के निर्माण में लग जाते हैं। खेल, चित्रकारी, संगीत, लेखन, पाकशास्त्र, गणित, इतिहास, विज्ञान, घुड़सवारी, सर्फिंग, तैराकी, पर्यटन गाइड, समाजसेवा जिसका जिस चीज में मन लगे, वो उसी काम को पूरी शिद्दत से करने में जुट जाता है। और कुछ नहीं, तो छोटे-मोटे काम करके अपने पैसे कमाकर देशाटन पर युवा निकल जाते हैं, ताकि दुनिया देखें और दुनियादारी समझें।

उन बच्चों और युवाओं पर परिजनों और रिश्तेदारों का दबाव नहीं होता कि तुम्हें अभी ये पढ़ना है, फिर ये परीक्षा देनी है और उसके बाद इस काम में जुट जाना है। बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे आते ही रिश्तेदारों के संदेश आने शुरु नहीं हो जाते कि बच्चा कौन सी श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। एक हद तक ही मां-बाप का बच्चों के जीवन में दखल होता है और उसके बाद उन्हें खुद तय करने दिया जाता है कि वे आगे चलकर क्या बनना चाहते हैं, क्या करना चाहते हैं। यही वजह है कि फीफा हो या ओलंपिक या अन्य अंतरराष्ट्रीय आयोजन, भारतीय उपमहाद्वीप के युवाओं से कहीं ज्यादा आगे अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया, या यूरोपीय देशों के युवा रहते हैं। ऐसा नहीं है कि इन देशों के युवाओं में कोई कमी नहीं होती।

तमाम मानवीय कमजोरियां उनमें भी रहती हैं और वहां भी बहुत से युवा सामान्य जीवन ही बिता पाते हैं, कोई खास मुकाम हासिल नहीं कर पाते। लेकिन इसके लिए वे खुद जिम्मेदार होते हैं। उनकी नाकामी की जिम्मेदारी परिजनों या सरकार पर नहीं डाली जा सकती। और ऐसा नहीं है कि भारत में प्रतिभावान युवाओं की कमी है। हमारे यहां भी सचिन तेंदुलकर या सानिया मिर्जा जैसे लोगों ने बहुत कम उम्र में अपनी काबिलियत से काफी शोहरत कमा ली थी। खेलों के अलावा कला, साहित्य, विज्ञान, व्यापार में भी बहुत से लोगों ने काफी कम उम्र में नाम कमा लिया, लेकिन ऐसे लोग गिनती के हैं। भारत के अधिकतर बच्चे तो मां-बाप की हसरतें पूरी करने के लिए कच्चे माल की तरह होते हैं, जिन्हें फैक्ट्रियों की तरह चलने वाले कोचिंग संस्थानों में एक जैसे सांचे में ढलने के लिए झोंक दिया जाता है।

राजस्थान के कोटा शहर में ऐसी दर्जनों फैक्ट्रियां चल रही हैं। यह शहर पिछले दो-ढाई दशकों में अपने कोचिंग संस्थानों के लिए मशहूर हो गया है। मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए बच्चे यहां के कोचिंग संस्थानों में प्रवेश लेते हैं। मां-बाप अगर अधिक संपन्न और महत्वाकांक्षी हुए तो बच्चों को यहां नौवीं कक्षा से ही किसी संस्थान में भर्ती करा देते हैं। उसके बाद अगले चार साल की स्कूल की पढ़ाई औपचारिकता के लिए करवा दी जाती है। यानी स्कूल की हाजिरी से लेकर परीक्षा तक के सारे कर्मकांड कोचिंग संस्थान किसी अन्य तरह से करवा देते हैं। इसमें बच्चे को सामाजिक विज्ञान, हिंदी या बाकी विषयों के अध्ययन की खास जरूरत नहीं होती।

विज्ञान, गणित और अंग्रेजी जैसे विषयों पर पूरा ध्यान दिया जाता है। बल्कि जरूरत से अधिक अभ्यास बच्चों से करवाया जाता है, ताकि 12वीं के बाद जब ये बच्चे जेईईई या नीट दें तो उनकी सफलता सुनिश्चित हो। एक शहर किस तरह इंजीनियर और डॉक्टर तैयार करने की फैक्ट्री बन गया, इसका चित्रण कुछ समय पहले आई वेब सीरीज़ कोटा फैक्ट्री में किया गया है। इसका एक संवाद काफी चर्चित हुआ कि ‘शर्मा जी पूछेंगे तो बताएंगे आईआईटी, नीट की तैयारी कर रहा है कोटा से, कूल लगता है।’ सारी दिक्कत इस कूल लगने के दबाव से ही है। मां-बाप अपने बच्चों पर हर दौड़ में आगे रहने का दबाव इस तरह डालते हैं कि बच्चों से उनका व्यक्तित्व जुदा हो जाता है।

एक थोपी हुई महत्वाकांक्षा का बोझ लिए वे जीते रहते हैं, ताकि समाज में मां-बाप की इज्जत बनी रहे। पढ़ाई के दबाव को वे किसी तरह झेल लें, तो फिर अच्छे पैकेज वाली नौकरी का दबाव रहता है। इससे भी पार पा जाएं, तो फिर उनकी पसंद के लड़के या लड़की से शादी का दबाव होता है। जीवनसाथी अपनी जाति का, सुंदर, कामकाजी यानी सर्वगुण संपन्न होना ही चाहिए। दबाव का ये सिलसिला यहीं तक नहीं रुकता, इसके बाद बच्चे कब हों, कितने हों, इस में भी मां-बाप अपनी इच्छा थोपते ही हैं। दबावों की इन गठरी में कौन सा बच्चा, किस लायक था, क्या कर सकता था, ये सारे सवाल गुम हो जाते हैं। अपना व्यक्तित्व खो देने की हताशा कभी अवसाद, कभी कुंठा के रूप में निकलती है। लेकिन फिर भी नसीहत यही मिलेगी कि हमने तुमसे अधिक दुनिया देखी है। हमने जो किया, तुम्हारे भले के लिए किया।

आज से 15-20 पहले तक भी भारतीय समाज ऐसा ही था, लेकिन तब दुनिया इतनी तेजी से नहीं बदली थी। अब हर पांच साल में दुनिया के नए रंग देखने मिल रहे हैं। भारत के बच्चे भी इस रंग में रंग रहे हैं, मगर मां-बाप अब भी उन्हें दो दशक पहले वाली परवरिश देना चाहते हैं। इस वजह से बच्चों को सामंजस्य बिठाने में तकलीफ आ रही है। इस तकलीफ का एक भयावह परिणाम पिछले दिनों कोटा में सामने आय़ा। जहां एक ही दिन में तीन बच्चों ने आत्महत्याएं कर लीं। सामान्य परिवारों के ये बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर बन कर अपने मां-बाप की महत्वाकांक्षा पूरी करने में खुद को नाकाम समझ रहे थे और इस वजह से तनाव में थे। 17-18 साल के बच्चों की आत्महत्याओं ने संवेदनशील लोगों को झकझोर कर रख दिया है।

सवाल उठने लगे कि आखिर कोचिंग संस्थानों में किस तरह की पढ़ाई होती है, जिससे बच्चे मानसिक तनाव में आ जाते हैं। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें कोचिंग संस्थानों से अधिक मां-बाप की जिम्मेदारी है। बात सही भी है एक शहर फैक्ट्री में तब्दील इसलिए ही हुआ, क्योंकि बहुत से मां-बाप अब भी हैं, जो अगले दस सालों में सफलता की गारंटी के लिए अपने बच्चों को कच्चे माल की तरह वहां भेजने के लिए तैयार बैठे हैं। कोचिंग से लेकर हॉस्टल तक के खर्च का इंतजाम वे किसी तरह कर लेते हैं और बच्चों पर एक दबाव ये भी रहता है कि देखो, हमने तुम्हारे लिए कितना त्याग किया है। अब तुम्हें इस त्याग की कीमत भारी पैकेज वाली नौकरी से चुकानी है।

तीन बच्चों की एक दिन में आत्महत्या से अब बहुत से मां-बाप अपने बच्चों को लेकर चिंता में हैं। इस घटना से अगर समाज सबक लेता है, तो अच्छी बात है। लेकिन मानसिकता में कोई बड़ा बदलाव शायद ही देखने मिले। कुछ दिनों पहले ही खबर आई है कि पिछले साल 13 हजार 89 बच्चों ने फेल होने के डर से आत्महत्या कर ली। 2022 भी बीतने को है और एनसीआरबी फिर आत्महत्या के नए आंकड़े बताएगा।

इतने सारे बच्चों की आत्महत्या से अगर हमारे समाज में कोई हलचल नहीं होती, तो ये मान लेना चाहिए कि हमने बच्चों को कच्चा माल नहीं बनाया, खुद भी मशीनों जैसे संवेदनहीन हो गए हैं। वैसे भी जिस देश में प्रधानमंत्री एक्जाम वारियर्स जैसी किताब लिखकर बच्चों को ये बताए कि परीक्षा युद्ध के समान है और बच्चों को वहां लड़ना है, तो फिर बच्चों में हार का डर भी बना ही रहेगा। क्योंकि लड़ाई में एक पक्ष जीतता है औऱ दूसरा हारता है।

लेकिन समाज को याद रखना चाहिए कि लड़ाई कैसी भी हो, हथियार उपलब्ध कराने वाले व्यापारी तो हमेशा ही मुनाफे में रहते हैं। युद्ध बना दी गई परीक्षा में कोचिंग संस्थान, नकल कराने वाले लोग, पेपर लीक माफिया इन सबका मुनाफा तय है। बस बच्चों का नुकसान है। कोटा फैक्ट्री का एक औऱ संवाद है- च्ज्बच्चे दो साल में कोटा से निकल जाते हैं, कोटा सालों तक बच्चों से नहीं निकलता।ज्ज् बच्चों के मन से कोटा बाहर निकल जाए, इसकी कोशिश अब करना चाहिए।

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