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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार।।

जब किसी शहर या प्रदेश में कत्ल या लूट की वारदातें बढऩे लगती हैं, या बलात्कार अधिक होने लगते हैं तो लोगों के बीच यह चर्चा होने लगती है कि पुलिस का खौफ खत्म हो चुका है। और इस एक शब्द, खौफ, के इस्तेमाल को छोड़ दें, तो यह बात सही रहती है कि कई मामलों में लोगों को कानून का डर नहीं रह जाता, उन्हें पुलिस के भ्रष्टाचार पर भरोसा रहता है कि वे कोई केस दर्ज होने से रोक लेंगे, गवाहों और सुबूतों को खरीदने पर भरोसा रहता है, अदालत में वकीलों से लेकर जजों तक को खरीदने का भरोसा रहता है, और वे जुर्म करने के पहले से बाद में बचने का भरोसा रखते हैं। लेकिन जनधारणा को लेकर हमारा कुछ अलग तजुर्बा है। अभी छत्तीसगढ़ में एक परिवार ने बाप-बेटे ने मिलकर भाड़े के कातिलों के साथ साजिश करके परिवार के ही एक बेटे का कत्ल कर दिया। खुली सडक़ पर दिनदहाड़े हुए इस कत्ल को लेकर शहर की पुलिस की बड़ी थू-थू हुई, राजनीतिक बयानबाजी भी हुई, लेकिन पुलिस ने दो दिनों के भीतर सबको गिरफ्तार करके पूरी साजिश उजागर कर दी। अब पुलिस के नजरिए से देखें तो घर के भीतर के लोग परिवार के किसी को कत्ल करना तय कर लें, और इस साजिश में परिवार की औरतें भी शामिल हों, तो पुलिस उसे कैसे बचा सकती है? इसी तरह इन दिनों छत्तीसगढ़ का ही एक दूसरा मामला खबरों में बना हुआ है जिसमें एक उद्योगपति ने अपनी ही 9 बरस की बेटी से बलात्कार किया, और मां-बेटी ने पुलिस में रिपोर्ट की, महीनों बाद जाकर मजिस्ट्रेट के सामने बयान हुआ, और सरकारी कमेटी बच्ची को मां के हवाले करने को तैयार नहीं है, और ऐसा लगता है कि सरकारी अफसर इस उद्योगपति के प्रभाव में हैं, इसीलिए वह गिरफ्तारी से बाहर है, और शिकायतकर्ता मां अपनी बेटी पाने के लिए सडक़ पर धरना दे रही है। यहां पर समझ में आता है कि परिवार के भीतर का बलात्कार तो पुलिस नहीं रोक सकती थी, लेकिन उसके बाद तो उस बच्ची का बयान तुरंत करवाया जा सकता था, उसके बलात्कारी पिता को गिरफ्तार किया जा सकता था, बच्ची को मां के हवाले किया जा सकता था, लेकिन इन सब मामलों में पुलिस की भूमिका संदिग्ध दिखाई पड़ती है।

जब-जब पुलिस बेअसर होने लगती है, तब-तब लोग कानून अपने हाथ में लेने को मजबूर होने लगते हैं। कई जगहों पर लोग आपस में हिंसा करके हिसाब चुकता करने में लग जाते हैं। आज ही गुजरात की एक खबर छपी है जिसमें बीएसएफ के एक हवलदार ने अपनी नाबालिग बेटी का वीडियो इंटरनेट पर अपलोड करने से जब एक नौजवान को मना किया, तो दोनों परिवारों में झगड़ा हुआ, और इस युवक के परिवार ने इस बीएसएफ हवलदार को पीट-पीटकर मार डाला। जिस गुजरात में कानून-व्यवस्था बेहतर होने का दावा 7वीं बार की भाजपा सरकार करती है, उसके तहत बीएसएफ हवलदार को भी ऐसी मौत झेलनी पड़ी। गनीमत यही है कि देश के आज के नफरती माहौल में ये दोनों ही परिवार गुजराती-हिन्दू परिवार हैं, इसलिए किसी को सबक सिखाने की नौबत नहीं आई है। लेकिन इस हत्या से परे के हिस्से को देखें, तो किसी के ऐसे वीडियो पोस्ट करने और बदनाम करने का काम देश भर में जगह-जगह हो रहा है। इस छोटे राज्य छत्तीसगढ़ में तकरीबन हर दिन ऐसी एक रिपोर्ट लिखाई जाती है कि सोशल मीडिया पर तस्वीरें या वीडियो पोस्ट करके ब्लैकमेल किया, या करने की धमकी देकर ब्लैकमेल किया।

अब हम ऐसे सौ फीसदी मामलों को इस तरह का नहीं पाते कि पुलिस उन्हें रोक सकती है। इसकी तोहमत हम पुलिस पर नहीं देते, लेकिन जब ऐसे मामले दर्ज हो जाते हैं, तो उनकी तेजी से सुनवाई, और अदालत से सजा दिलवाने तक का काम पुलिस को मेहनत से करना चाहिए, ऐसा न होने पर उस किस्म के और जुर्म करने की हसरत रखने वाले लोगों का हौसला बढ़ता है। पुलिस की अधिक जिम्मेदारी और जवाबदेही रिपोर्ट होने के बाद शुरू होती है। और यह बिल्कुल अलग बात है कि समाज में, खासकर लड़कियों और महिलाओं में ऐसे साइबर खतरे में न फंसने की जागरूकता बढ़ाई जाए, और यह पुलिस के बुनियादी काम में नहीं आता है। इसे सरकार का दूसरा अमला, या समाज के लोग करें, और ऐसे खतरों को घटाएं। इस मुद्दे पर आज यहां लिखने का मकसद यह है कि पुलिस पर इतनी गैरजरूरी तोहमतें न लग जाएं कि पुलिस का हौसला ही पस्त हो जाए, और जहां उसकी जवाबदेही बनती है, वहां भी उसे लापरवाह होने का मौका मिल जाए। जिम्मेदारी तय करते हुए समाज को यह जिम्मेदारी तो दिखानी ही चाहिए कि अपने हिस्से की तोहमत पुलिस पर न थोप दी जाए। पुलिस सरकार का सबसे सामने दिखने वाला चेहरा रहता है, वर्दी और काम के मिजाज की वजह से पुलिस सबसे सामने दिखती है, और खासकर अप्रिय स्थितियों में और अधिक दिखती है। यह भी एक बड़ी वजह है कि पुलिस पर अधिक तोहमतें लगती हैं, लेकिन यह एक वजह होनी चाहिए कि पुलिस की जिम्मेदारियों की संभावनाओं और सीमाओं को ठीक से समझ लिया जाए, न तो उसके साथ रियायत बरती जाए, और न ही उस पर बिना वजह तोहमतें लगाई जाएं।

समाज को पुलिस तक पहुंचने की नौबत आने देने से बचना चाहिए। लोगों के बीच जुर्म के खिलाफ, खतरों के बारे में जागरूकता अधिक रहनी चाहिए। लोगों को अपने आसपास के जुर्म पर आमादा लोगों को समझाने की जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए। परिवार के भीतर अगर कोई जुर्म हो रहा है, तो लोगों को उस नौबत को भी खत्म करना चाहिए। आज अगर पूरे देश में अदालतों पर अंधाधुंध बोझ होने की बात हर कोई कह रहे हैं, तो इस बोझ को भी समाज की सावधानी से घटाया जा सकता है ताकि बाकी मामलों पर इंसाफ होने की संभावना बन सके। वैसे भी इस बात को समझना चाहिए कि हर जुर्म न सिर्फ सरकार पर बोझ है, अदालत पर बोझ है, बल्कि इस बोझ को ढोने का खर्च तो जनता से ही निकलता है। इसलिए लोगों को अपने परिवार से शुरू करके अड़ोस-पड़ोस और जान-पहचान तक जुर्म से बचने की सावधानी पर भी चर्चा करनी चाहिए, और जुर्म करने पर जिंदगी कैसे बर्बाद होती है इसकी मिसालें भी अपने लोगों को देनी चाहिए। जब आपस के लोग ऐसे खतरों को गिनाते हैं, तो वे लोगों के दिमाग में अधिक पुख्ता तरीके से बैठते हैं, और लोग चौकन्ने रहते हैं। लोगों को अपने आसपास के लोगों को यह भी बताना चाहिए कि आज मोबाइल फोन, इंटरनेट, सोशल मीडिया, और सीसीटीवी फुटेज जैसे सुबूतों से अधिकतर मुजरिम आनन-फानन पकड़ में आ जाते हैं, इसलिए कभी किसी जुर्म के बारे में सोचें भी नहीं। बढ़ती हुई आबादी के साथ अगर जुर्म इसी तरह बढ़ते चलेंगे, तो जो अधिक पुलिस लगेगी, अधिक अदालतें लगेंगी, वे सब जनता के ही पैसों पर चलेंगी, इसलिए किफायत और बचाव का अकेला तरीका जुर्म के खिलाफ सावधानी है।

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