-सुनील कुमार।।
मध्यप्रदेश के इंदौर में आज से प्रवासी भारतीय सम्मेलन शुरू होने जा रहा है। इसके लिए पूरे शहर को सजाया जा रहा है। और खासकर जिन सडक़ों से प्रवासी भारतीय गुजरेंगे, उनमें सडक़ किनारे जो बस्तियां और गरीब कॉलोनियां हैं, उन्हें मेहमानों की नजरों से छिपाने के लिए कांक्रीट की दीवार उठाई जा रही है, और उसके ऊपर लोहे की चादरें लगाई जा रही हैं ताकि कोई प्रवासी भारतीय किसी बस की छत पर खड़े होकर भी देखे तो उसे शहर की कोई गरीब बस्ती और कॉलोनी न दिखे। पिछले चार महीनों में दीवारों के पीछे की इन बस्तियों का हाल ऐसा बताया जा रहा है कि यहां तक एम्बुलेंस पहुंचना भी मुश्किल है। और गरीब बस्तियों को बुलडोजर का डर दिखाकर दहशत में लाना आसान रहता है। इन बस्तियों में आने-जाने का रास्ता अब पीछे किसी दूसरी तरफ से है, लोगों का अपने घर पहुंचना मुश्किल हो गया है।
लोगों को याद होगा कि जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप नरेन्द्र मोदी के न्यौते पर गुजरात के अहमदाबाद आए थे, तो उनकी राह की बस्तियों को छुपाने के लिए भी इसी तरह की दीवारें बनाई गई थीं। सरकार की सोच में मेहमान की नजरों में गरीबी अगर आंखों की किरकिरी की तरह खटकेगी, तो हो सकता है कि वे गुजरात या मध्यप्रदेश में पूंजीनिवेश नहीं करेंगे। लेकिन पूंजीनिवेश करने वाले उस देश-प्रदेश की गरीबी से अच्छी तरह वाकिफ रहते हैं, और उन्हें पता होता है कि जिस देश में गरीबों के हक नहीं है, वहीं पर पूंजीनिवेश बेहतर होता है। जहां मजदूर जागरूक और ताकतवर होते हैं, वहां पंूजीवाद का जुल्म नहीं चल सकता। इंदौर में दीवारें इतनी ऊंची बना दी गई हैं कि अब छोटे घरोंं पर धूप आना भी बंद हो रही है, वहां बनाया हुआ मजदूरी का सामान भी बाहर निकालना मुश्किल है, और बीमार रहें तो अस्पताल ले जाना उससे भी अधिक मुश्किल है।
यह पाखंड हिन्दुस्तान के मिजाज में सदियों से बैठा हुआ है। किसी प्रदेश में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का आना हो, तो भी वहां की साज-सज्जा में सरकारी खजाने को झोंक दिया जाता है। अभी गुजरात के मोरवी में एक झूलता पुल गिरा था, बड़ी संख्या में लोग मरे थे, और चुनाव के ठीक पहले का वक्त था, प्रधानमंत्री भी वहां घायलों को देखने पहुंचे थे। उनके लिए शहर की सडक़ों का फिर से डामरीकरण हुआ, अस्पताल की पूरी इमारत का रंग-रोगन हुआ, और अपने ही देश के प्रधानमंत्री को झांसा देने के लिए करोड़ों रूपये खर्च किए गए। हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही देखते हैं कि विधानसभा के हर सत्र के पहले विधानसभा तक जाने वाली सडक़ों का डामरीकरण किया जाता है ताकि विधायकों को जरा भी धक्का न लगे। जब अपने ही देश के लोगों को हकीकत से दूर रखने के लिए इतना धोखा देने की पुख्ता सरकारी परंपरा है, तो फिर वह विदेशी मेहमानों के आने पर जारी रहने में क्या हैरानी है?
लेकिन सडक़ों और शहरों की सजावट से परे बस्तियों को छुपाने की इस हरकत को मानवाधिकार आयोग से लेकर अदालत तक चुनौती देनी चाहिए क्योंकि यह गरीबों को नजरों से दूर कर देने, और उन्हें अछूत बना देने का एक बड़ा जुर्म है जिसकी कोई जगह लोकतंत्र में नहीं होनी चाहिए। यह सिलसिला हाल के बरसों में गुजरात के बाद मध्यप्रदेश में दिखा है, और हो सकता है कि बाकी राज्य भी अपने आपको गरीबमुक्त दिखाने के लिए गरीबों के हक के पैसे को इस तरह से रातोंरात खर्च करने पर उतारू रहें। यह समझ लेने की जरूरत है कि सरकार के पास कोई भी पैसा बजट में पास हुए बिना नहीं आता, और इस तरह के काम में जब खर्च होता है तो वह विधानसभा या म्युनिसिपल के बजट को धोखा देते हुए किसी और मद का खर्चा इस जगह पर किया जाता है, और जागरूक जनसंस्थाओं को सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी भी मांगनी चाहिए कि ऐसी दीवार बनाने का खर्च आखिर आया कहां से है? और फिर जरूरत हो तो अदालत जाकर ऐसी हरकत के खिलाफ जनहित याचिका लगानी चाहिए।
ऐसा भी नहीं है कि भाजपा सरकारें ही ऐसा करती हैं। हम इसी मुद्दे पर लिखते हुए इसी जगह पर पहले कई बार लिख चुके हैं कि किस तरह ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर के कोलकाता आने पर वहां की वामपंथी सरकार ने पूरे शहर को सजाकर रख दिया था, और फुटपाथ पर जीने वाले लोगों को, भिखारियों और विक्षिप्त लोगों को, सबको पकडक़र शहर के बाहर ले जाकर छोड़ दिया था। मजदूरों की वामपंथी सरकार को एक गोरे प्रधानमंत्री के आने पर स्वागत-सत्कार की ऐसी सामंती दहशत में क्यों आना चाहिए था? लेकिन इस बारे में उस वक्त भी बहुत सी खबरें छपी थीं, बहुत सी तस्वीरें आई थीं। यह सिलसिला पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है। कुछ मिनटों के लिए किसी सडक़ से प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के, या किसी विदेशी नेता के गुजरने के लिए उस पूरी सडक़ को एक बार फिर नया बनाया जाए, तो यह इन नेताओं की निजी जेब से नहीं होता है, यह काम आम जनता के हक के सरकारी खजाने से होता है, और दूसरी जरूरी चीजों को रोककर होता है। ऐसा जहां कहीं भी होता है उसका गैरराजनीतिक आधार पर जमकर विरोध होना चाहिए, ऐसे खर्च का हिसाब मांगना चाहिए, और अदालत से यह मांग करनी चाहिए कि ऐसा फैसला लेने वाले लोगों पर निजी जुर्माना लगाकर ऐसे बेइंसाफ खर्च की उगाही की जाए।
-सुनील कुमार