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दस साल पहले जून 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में भयंकर तबाही हुई थी। भयंकर बारिश और मंदाकिनी नदी में उफान ने हजारों जिंदगियां लील ली थीं, सैकड़ों घर तबाह हो गए थे। इस आपदा को प्राकृतिक कहा गया, लेकिन असल में यह प्रकृति से अधिक मानव निर्मित आपदा थी। बारिश, गर्मी और सर्दी ऋतुचक्र का हिस्सा हैं।

धरती के नीचे भी तरह-तरह के परिवर्तन होते रहते हैं, इसलिए धरती कभी कांपती है, कभी उसके नीचे की सतहें एक जगह से दूसरी जगह सरकती हैं। ये सारी व्यवस्थाएं इसलिए हैं ताकि धरती का अस्तित्व बना रहे। पेड़, पौधे, कीड़े-मकौड़े, जानवर सब इस व्यवस्था के हिसाब से चलते हैं।

लेकिन इंसान ने अपनी बुद्धि के घमंड में इस व्यवस्था को चुनौती देनी शुरु कर दी। जिन जगहों पर पहाड़ों को होना था, जहां जंगलों का विस्तार होना था, जहां नदियों को बहने के लिए जगह चाहिए, जहां बारिश के पानी को समाने के लिए स्थान चाहिए, उन सारी जगहों पर इंसान ने अपना कब्जा जमाना शुरु कर दिया। लेकिन जब उसके कब्जे को प्रकृति का नुकसान पहुंचा, तो उसे प्राकृतिक आपदा का नाम दे दिया गया। यह नाम देने की सुविधापूर्ण चालाकी ही फिर से भारी पड़ती दिखाई दे रही है। केदारनाथ संकट से कोई सबक न लेने का नतीजा है कि अब उत्तराखंड के ही एक और शहर जोशीमठ के धंसने का खतरा पेश आ गया है।

जोशीमठ ग्लेशियर की मिट्टी पर बसा शहर है, जिसकी जमीन बहुत मजबूत नहीं है। इस बात का उल्लेख 50 साल पहले एमसी मिश्रा समिति की रिपोर्ट में किया गया है। इस रिपोर्ट में अनियोजित विकास के खतरों को रेखांकित करते हुए चेतावनी दी गई थी कि जोशीमठ में छेड़खानी भारी पड़ सकती है। रिपोर्ट में जड़ से जुड़ी चट्टानों, पत्थरों को बिल्कुल भी न छेड़ने के लिए कहा गया था। वहीं यहां हो रहे निर्माण को भी सीमित दायरे में समेटने की गुजारिश की गई थी।

लेकिन 1976 में दी गई इन नसीहतों को अनदेखा, अनसुना किया गया। इसके बाद और भी अध्ययनों में ऐसी ही बातें सामने आईं कि इस पहाड़ी इलाके में विकास के नाम पर चल रही बड़ी परियोजनाएं आखिरकार तबाही का सबब बन सकती हैं। पहले उत्तरप्रदेश और बाद में उत्तराखंड बनने के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों की सरकारें यहां रहीं, लेकिन इन चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया गया। पिछले साल ही उत्तराखंड में फिर से भाजपा ने सरकार बनाई और यहां प्रचार के लिए प्रधानमंत्री मोदी जब भी आए, उन्होंने पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी का जिक्र करते हुए विकास के बड़े-बड़े सपने दिखाए।

उत्तराखंड को देवभूमि कहते हुए यहां धार्मिक गतिविधियों को बढ़ाने की योजनाएं बनाई गईं। धार्मिक और प्राकृतिक पर्यटन बढ़ाकर आर्थिक समृद्धि के ख्वाब दिखाए गए। लेकिन यह सब किस कीमत पर हासिल होगा, इस पर विचार नहीं किया गया।
पहाड़ों की नाजुक जमीन पर सीमेंट की संरचनाओं और मानव आबादी का जरूरत से अधिक बोझ डालने का दुष्परिणाम पहले केदारनाथ के रूप में सामने आया और अब जोशीमठ वैसे ही खतरे से जूझ रहा है। पिछले साल ही चमोली के विकासखंड नन्दानगर में विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा था कि विकास को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाना हमारा लक्ष्य है।

यहीं उन्होंने जोशीमठ का पौराणिक नाम ज्योर्तिमठ करने की घोषणा भी की। भाजपा सरकारों की नाम बदलने की ये राजनीति केवल भावनाओं में उफान ला सकती है, लेकिन जमीनी सच्चाइयों को बदल नहीं सकती। जोशीमठ का नाम ज्योर्तिमठ होने से यहां की जमीन मजबूत नहीं हो जाएगी, न ही जिन घरों में दरारें पड़ी हैं, वो मिट जाएंगी। पिछले साल दिसंबर में मुख्यमंत्री धामी ने ये घोषणा की थी और उससे पहले नवंबर से ही लोग घरों में दरारें आने की शिकायत कर रहे थे। अगर तब नाम बदलने की घोषणा करने की जगह मुख्यमंत्री ने इन शिकायतों पर ध्यान दिया होता, तो शायद आज 6 सौ परिवारों को उनके घरों से निकालकर दूसरी जगह शरण देने की नौबत नहीं आती।

जोशीमठ में हालात की गंभीरता को देखते हुए अब एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना और मारवाड़ी-हेलंग बाईपास मोटर मार्ग को अगले आदेश तक तत्काल प्रभाव से बंद कर दिया गया है। संकट औऱ दहशत के बीच जी रहे लोग लगातार सरकार से ध्यान देने की मांग कर रहे थे, जिस पर अब जाकर प्रधानमंत्री मोदी ने उच्च स्तरीय बैठक बुलाई है। इसबैठक के बाद मुमकिन है, कुछ वक्त के लिए सारे निर्माण कार्य रोक दिए जाएंगे। जिन इमारतों में दरारें बढ़ गई हैं, वहां से लोगों को हटाकर दूसरी जगह ले जाया जाएगा।

लेकिन इसके बाद क्या होगा, ये बड़ा सवाल है। क्या इस पहाड़ी प्रदेश में चल रही करोड़ों की विकास परियोजनाओं को रोकने की हिम्मत सरकार दिखा पाएगी। क्या पर्यटन को नियंत्रित करने में सरकार सक्षम होगी। और ये केवल एक राज्य की बात नहीं है। देश के कई पहाड़ी इलाके अपनी सुंदरता के कारण इसी तरह बर्बाद हो गए हैं। क्या उन सब जगहों के बारे में सरकार विचार करेगी।

एक सवाल हिंदू समाज से भी है कि क्या वह अपनी आस्था के ऐतिहासिक, धार्मिक स्थानों की रक्षा के लिए कभी जागृत होगा। हाल ही में सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल बनाने के फैसले से सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े, क्योंकि जैन समुदाय ने एकजुट होकर अहिंसक तरीके से अपने इस पवित्र स्थान को पर्यटन का केंद्र बनाने का विरोध किया। क्या हिंदू समाज इससे कोई प्रेरणा लेगा।

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