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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-अनिल शुक्ल।।

कुछ वर्ष पहले पत्रकारिता से जुड़े अपने कुछ छात्रों को मैंने ‘पानसिंह तोमर’ फ़िल्म देखने की सलाह दी। उनमें से एक छात्र ने लौट कर प्रतिक्रिया दी- “फिल्म तो अच्छी है लेकिन इसे फ़ीचर फ़िल्म की जगह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म की श्रेणी में रखा गया होता तो ज़्यादा बेहतर होता।“ मैंने मुस्करा कर पूछा- ‘क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह इस फ़िल्म की विशेषता भी हो सकती है?’ यह फ़िल्म दरअसल इतनी वास्तविक है कि डॉक्युमेंटेशन का भ्रम देने लग जाती है। फ़िल्म ‘पानसिंह तोमर’ सचमुच ऐसा सच-सच घटती दिखती है कि डॉक्युमेंटेशन जैसा दिखने लग जाती है और अभिनेता इरफ़ान सचमुच का पानसिंह तोमर।
ऐसी अप्रतिम फ़िल्म के लेखक संजय चौहान अचानक चले गए। बीते गुरुवार की रात मुंबई के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। 62 वर्षीय संजय कुछ महीनों से अस्वस्थ थे। उनकी असमय विदाई न सिर्फ़ मुंबई फ़िल्म जगत को खलेगी बल्कि यह हिंदी लेखन और पत्रकारिता का भी बहुत बड़ा नुक्सान है। ‘आइएम कलाम’, ‘धूप’ तथा ‘साहेब बीवी और गैंगस्टर’ सरीकी शानदार फिल्मों की रचना भी संजय ने ही की थी। उन्होंने मुंबई फिल्म लेखन की दुनिया में ऐसे समय में प्रवेश लिया था जब वहां की फ़िल्में एक नए सूर्योदय की ओर निहार रही थीं। सिर्फ़ निर्माण और निर्देशन ही नहीं बल्कि लेखन के क्षेत्र में भी ऐसी सोच दाखिल हो रही थी जो फ़िल्म को कल्पना और फंतासी की दुनिया से परे डॉक्युमेंटेशन की सच्चाई से रूबरू कराना चाहती थी और जो इसके लिए बाक़ायदा प्रशिक्षित भी थी।
फ़िल्म रिलीज़ होने के कई सालों बाद मैंने पानसिंह तोमर के भाई डाकू बलवंत सिंह तोमर से फ़िल्म को लेकर लंबी बातचीत की थी। बलवंत का चरित्र फिल्म में भी है। अब जेल से रहा होने के बाद वह ग्वालियर में रहते हैं। उन्होंने बताया कि कैसे फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने से पहले संजय चौहान उनसे लगातार आकर बातचीत करते रहे थे। बलवंत सिंह तोमर न तो बहुत शिक्षित हैं और न तब ‘स्क्रिप्ट’ और ‘रिसर्च’ जैसी बातों को ठीक से समझ ही सकते थे लेकिन उन्हें इतना अंदाज़ा होने लगा था कि ये आदमी फ़िल्म यूनिट का कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति है। बलवंत ने मुझे बताया कि कैसे संजय उन्हें पानसिंह के जीवन के अनेक महत्वपूर्ण घटनास्थल पर लेकर गए थे और वहां पहुंचकर उन घटनाओं के बारे में एक-एक इंच सवाल करते थे।
“कई बेर तो मोए झुंझल आ जायती। जे सब जगहे हमाए दुखते फोड़ा हती। मैं वहां से चल निकलता। बो लेकिन फिर काऊ तरह से मेई मनवार कर लेते।”
संजय चौहान मूलतः पत्रकार थे। स्क्रिप्ट लेखन से पहले वह पेशेवर पत्रकारिता में थे। ‘सन्डे मेल’ और ‘इंडिया टुडे’ जैसे अख़बार और पत्रिकाओं में उन्होंने काम किया था। उन्होंने जो अनेक कहानियां लिखी, वे भी किसी न किसी सत्य घटना पर आधारित थीं। वह मानते थे कि कहानी तभी प्रभाव छोड़ सकती है जब उसके पीछे पूरा-पूरा सच हो। फिल्म ‘पानसिंह तोमर’ के निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने उन्हें एक ‘टेबलॉइड’ में छपी संक्षिप्त सी एक ‘न्यूज़ क्लिपिंग’ दी थी। वह एक ऐसे डाकू की जीवनी थी जो पहले भारतीय सेना में रहा और जिसने बाधा दौड़ की अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं जीतीं थीं। संजय उस ‘क्लिपिंग’ को लेकर पानसिंह तोमर के गाँव गए और उन तमाम लोगों से मिले जो पानसिंह के जीवन में अच्छे और बुरे व्यक्ति के रूप में शामिल हुए थे। वह पुलिस और प्रशासन के उन तमाम लोगों से मिले जिनका साबका पानसिंह तोमर से पड़ा था। वह सेना के उन अधिकारियों से भी मिले जिनके मातहत पानसिंह ने नेक ‘जवान’ की तरह सेवा दी थी। कई महीनों की कठोर जाँच के बाद उन्होंने वह अद्भुत पटकथा लिखी जिस पर तिग्मांशु धूलिया ने सच्ची दिखने वाली विराट फिल्म ‘पानसिंह तोमर’ का निर्माण किया।
आम तौर पर हिंदी फ़िल्मों का संसार कल्पना और फैंटसी का संसार है। यहाँ सच और कहानी के बीच कोई रिश्ता बनाने की कोशिश कभी नहीं की गयी। यह बात और है कि चुनिंदा हिंदी फ़िल्मों में कहानी का आधार ढूंढने के लिए रिसर्च का सहारा पहले भी लिया गया है। संजय चौहान का बहुत बड़ा योगदान इस बात में है कि उन्होंने न सिर्फ कहानी का आधार ढूंढने के लिए शुद्ध रिसर्च का सहारा लिया बल्कि अपनी पटकथा को भी सच के रूप में ही रचा और उनके निर्देशकों ने उनके सच को ही ‘सच’ बनाकर पेश भी किया। ‘पानसिंह तोमर’ से 2 साल पहले आई संजय की फ़िल्म ‘आई एम कलाम’ भी दिल्ली के ‘स्लम’ में रहने वाले एक ऐसे किशोर की सच्ची कहानी है जो राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मुतअस्सिर होकर अपने जीवन की दिशा निर्धारित करने में जुट जाता है। इसकी पटकथा को भी डॉक्युमेंटेशन की तर्ज पर ही रचा गया था। इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर भी संजय को उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ स्क्रिप्ट का ‘फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार’ मिला था।
रिसर्च और पत्रकारिता संजय चौहान की रग-रग में व्याप्त थी। उम्र के पूर्वार्द्ध के उत्तरार्द्ध में वह अपनी इन्हीं ‘रगों’ को लेकर मुंबई की मायानगरी में दाखिल हुए और उन्होंने स्क्रिप्ट के चाल-चरित्र को बदल दिया। वह कहते थे कि मैं बिना रिसर्च और डॉक्युमेंटेशन के कथा या पटकथा की परिकल्पना ही नहीं कर सकता। उनके हाथ में कुछ दूसरे शानदार प्रोजेक्ट भी थे। देखते हैं उनका भविष्य क्या होगा।


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