देश में अब तक की सबसे मजबूत सरकार होने का दावा करने वाली मोदी सरकार एक डॉक्यूमेंट्री से डर गई, ये देखकर आश्चर्य होता है। बीबीसी यानी ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन पत्रकारिता की दुनिया में एक बेहद प्रतिष्ठित औऱ विश्वसनीय नाम माना जाता है। 101 बरसों के सफर के साथ बीबीसी दुनिया का सबसे पुराना राष्ट्रीय प्रसारक है और जाहिर है इस लंबे सफर में कई उतार-चढ़ाव आए होंगे। लेकिन इस बार बीबीसी की मुठभेड़ सीधे भारत की मोदी सरकार से हो रही है। बीबीसी की डाक्यूमेंट्री इंडिया- द मोदी क्वेश्चन का पहला भाग इस 17 जनवरी को प्रसारित हुआ और दूसरा भाग 24 तारीख को आना है।
लेकिन अब इस डाक्यूमेंट्री के न केवल प्रसारण पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है, बल्कि आईटी रुल्स 2021 की आपात शक्तियों के तहत आदेश देकर यूट्यूब और ट्विटर पर इसके वीडियो हटवा दिए हैं। ये सारा हंगामा इसलिए है क्योंकि डॉक्यूमेंट्री में 2002 के गुजरात दंगों और इसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं। इसका शीर्षक भी सवाल की बात ही करता है, जबकि देश के लोग अच्छे से जानते हैं कि हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री ने पिछले 9 बरसों में एक बार भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है, किसी पत्रकार को बिना किसी पूर्व सूचना के सवाल पूछने की अनुमति नहीं दी है। जो दो-चार पत्रकारों को उन्होंने तथाकथित साक्षात्कार दिया है, वह पटकथा और संवाद तैयार करके दिया है।
लेकिन बीबीसी ने सवाल की बात करके सरकार की नजरों में हिमाकत की और अगले आम चुनाव से पहले गुजरात दंगों के बारे में कुछ अनसुनी बातें बतलाकर सरकार को असहज स्थिति में डाल दिया है। इसलिए मोदी सरकार का नाराज होना स्वाभाविक है।
बीबीसी का दावा है कि इस डॉक्यूमेंट्री के लिए उच्चतम संपादकीय मानकों का पालन करते हुए गहन शोध किया गया है। इसके लिए कई गवाहों, विश्लेषकों और आम लोगों से बात की गई है। इनमें भाजपा के लोग भी शामिल हैं। बीबीसी ने यह भी कहा है कि भारत सरकार ने इस फिल्म में लगाए गए आरोपों पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है।
अगर भारत सरकार ने कोई टिप्पणी की होती, तो उसे भी डॉक्यूमेंट्री में शामिल किया जा सकता था। तब हम वाकई एक परिपक्व लोकतांत्रिक देश की तरह व्यवहार करते, जो एक अप्रिय विषय पर चर्चा से घबराया नहीं, बल्कि उसका सामना करके अपना पक्ष भी रखा। लेकिन सरकार ने पहले तो कोई बयान नहीं दिया और डॉक्यूमेंट्री प्रदर्शित होने के बाद विदेश मंत्रालय ने प्रतिक्रिया दी कि यह डॉक्यूमेंट्री भारत के खिलाफ एक खास किस्म के दुष्प्रचार का नरेटिव चलाने की कोशिश है।
डॉक्यूमेंट्री में दिखता है कि इससे जुड़े हुए लोग और संगठन खास किस्म की सोच रखते हैं, क्योंकि इसमें फैक्ट ही नहीं हैं। यह औपनिवेशिक यानी गुलामी की मानसिकता को दर्शाती है।
कमाल की बात है कि आजादी के अमृतकाल में सरकार औपनिवेशिक मानसिकता का डर दिखाकर अपने असली डर को लोगों से छिपा रही है। इस देश में गांधीजी के हत्यारे गोडसे का कई तरह से महिमामंडन होता रहा है, लेकिन सरकार को राष्ट्रपिता के हत्यारे के गुणगान पर विचलित होते नहीं देखा गया। कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म में आतंकवाद जैसी गंभीर समस्या का इकतरफा वर्णन होता है, तब कोई सेंसरशिप लागू नहीं होती।
बल्कि उसे टैक्स फ्री करके दिखाया जाता है। मगर एक विदेशी डॉक्यूमेंट्री पर सारे तरह के प्रतिबंध सरकार लगा देना चाहती है, ताकि उसके लिए उलझनें न बढ़ें। यह डॉक्यूमेंट्री मनगढ़ंत बातों पर नहीं बनाई गई है, बल्कि बीबीसी का कहना है कि तत्कालीन ब्रिटिश विदेश मंत्री जैक स्ट्रा ने कूटनयिकों से इन दंगों की जांच करवाई थी, जिसकी रिपोर्ट अप्रकाशित है। बीबीसी ने इस अप्रकाशित रिपोर्ट को ब्रिटिश विदेश विभाग से हासिल कर उस पर डाक्यूमेंट्री बनाई है। रिपोर्ट का दावा है कि श्री मोदी साल 2002 में गुजरात में हिंसा का माहौल बनाने के लिए ‘प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार’ थे। रिपोर्ट कहती है कि हिंसा का विस्तार, मीडिया में आई रिपोर्टों से कहीं अधिक था और दंगों का उद्देश्य हिंदू इलाक़ों से मुसलमानों को खदेड़ना था।
इस रिपोर्ट के अलावा भी तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी पर हिंसा न रोकने के आरोप लगे थे, इसी को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उनसे राजधर्म के पालन की सलाह दी थी। हालांकि श्री मोदी ने हमेशा ऐसे आरोपों से इन्कार किया है और सारे सवालों को तथ्यहीन बताया है।
मोदीजी को हर तरह से क्लीन चिट भी मिल चुकी है, न्यायिक अदालत से भी और जनता की अदालत से भी। फिर भी सरकार क्यों डर रही है, ये सवाल तो उठेगा ही। क्या इसलिए कि भाजपा चुनावों के पहले फिर से गुजरात दंगों की चर्चा नहीं चाहती। हालांकि दंगों के बाद के सारे चुनाव भाजपा ने जीते हैं। और इस बार के चुनाव में गृहमंत्री अमित शाह ने बीस साल पहले सबक सिखा दिया, वाली जो टिप्पणी की थी, वह किस संदर्भ में थी, यह भी जनता ने खूब समझ लिया था। फिर भी भाजपा को भारी बहुमत मिला था।
जबकि कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर जितनी बार जनता के बीच गई, उसे मात मिली। मगर अब हालात बदल गए हैं। अब कन्याकुमारी से श्रीनगर तक भारत जोड़ो यात्रा निकाल कर राहुल गांधी ने अपनी छवि के साथ-साथ कांग्रेस को भी काफी मजबूत कर दिया है। तो क्या भाजपा का यह डर भारत जोड़ो यात्रा के कारण है। इस यात्रा में राहुल गांधी नफरत को नकारने का आह्वान करते आए हैं। अब उनकी तर्ज पर मोदीजी को भी भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपने लोगों को ये नसीहत देनी पड़ी कि चुनाव के लिए बचे 4 सौ दिनों में वे अल्पसंख्यकों तक पहुंचे, उन्हें अपने साथ होने का अहसास कराएं।
ये संदेश अगर सत्ता की शुरुआत से दिया जाता तो शासन के आखिरी 4 सौ दिनों में ऐसी समझाइश की जरूरत नहीं पड़ती। बहरहाल, अब देखना ये है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित कर क्या मोदीजी इस बार राजधर्म का पालन करेंगे।