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शाहरुख खान की फिल्म पठान ने प्रदर्शन के पहले ही एडवांस बुकिंग से कम से कम 14 करोड़ का व्यापार कर लिया था। अब बताया जा रहा है कि दुनिया भर की 7700 स्क्रीन्स पर रिलीज होकर फिल्म ने कमाई के नए रिकार्ड बनाए हैं। हिंदी के साथ-साथ तेलुगू, तमिल में भी फिल्म डब हुई है। कुछ दिनों पहले दुबई के बुर्ज खलीफा पर इस फिल्म का ट्रेलर दिखाया गया था।

हिंदी फिल्मों में बादशाह का खिताब शाहरूख खान को यूं ही नहीं मिला है, उनके चाहने वालों ने उन्हें यह दर्जा दिया है। लगभग चार साल बाद उनकी फिल्म आई है, तो उसे उनके प्रशंसक हाथों हाथ लेते ही। लेकिन इस बार फिल्म को जो प्रचार मिला है, उसकी एक बड़ी वजह भाजपा नेताओं का विरोध और उनकी शह पर फिल्म के बहिष्कार करने का सिलसिला है।

पाठकों को याद होगा कि कुछ वक्त पूर्व जब इस फिल्म का गाना रिलीज हुआ था, तो उसमें दीपिका पादुकोण के वस्त्र और उसके रंग को हिंदुत्व से जोड़ कर इसका विरोध किया गया था। उसके बाद पठान फिल्म के बहिष्कार की मांग ने तेजी पकड़ ली। भाजपा को इसमें भी चुनावी फायदा नजर आ रहा होगा। लेकिन जब इस संकुचित सोच का जवाब देते हुए लोगों ने कुछ कलाकारों के जो अब भाजपा नेता हैं, केसरिया वस्त्रों में ऐसे ही वीडियो सोशल मीडिया पर जारी करने शुरु कर दिए, तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो गई। इस बीच भारत जोड़ो यात्रा से प्रेम और भाईचारे के संदेश ने भी असर दिखाना शुरु कर दिया।

नतीजा ये हुआ कि भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री मोदी को इशारों में समझाना पड़ा कि किसी फिल्म का विरोध न करें। हालांकि इसका भी खास असर नहीं हुआ। कई स्थानों पर हिंदूवादी संगठनों के लोगों ने पठान के पोस्टर फाड़े, फिल्म थियेटरों पर प्रदर्शन किया। गुवाहाटी में भी ऐसा ही हुआ और इस पर सवाल पूछा गया तो मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वासरमा ने कौन शाहरुख खान, पूछकर इस विवाद को हल्का करने की कोशिश की।

लेकिन अगले ही दिन उनका ट्वीट आया कि शाहरुख खान ने रात 2 बजे उन्हें फोन किया और फिल्म के सुरक्षित प्रदर्शन का आग्रह किया। असम के मुख्यमंत्री को यह यू टर्न क्यों लेना पड़ा, शाहरुख खान ने उन्हें रात 2 बजे फोन क्यों किया और इसकी जानकारी उन्होंने पूरे देश को क्यों दी, इन उलझे हुए सवालों के जवाब शायद अगले चुनाव तक कभी मिल जाएं।

फिलहाल पठान विवाद और फिल्म की सफलता से ये समझ आता है कि जिस चीज पर जितनी रोक लगाने की कोशिश की जाए, उसे करने या देखने की इच्छा उतनी ही तीव्र होती है। और लोकतंत्र में तो अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत इस तरह के बहिष्कारों या प्रतिबंधों का कोई औचित्य ही नहीं है। फिर भी अलग-अलग दौर में सत्ता ऐसे प्रतिबंध लगाने की गलतियां करती है और एक अरसा गुजर जाने के बाद उस गलती की कीमत समझ आती है।

केंद्र सरकार ने बीबीसी की गुजरात दंगों पर बनी डाक्यूमेंट्री को भी इसी तरह जनता तक पहुंचने से रोकने की कोशिश की है। 17 तारीख को बीबीसी ने गुजरात दंगों पर एक डाक्यूमेंट्री का पहला पार्ट जारी किया था, जिसे सरकार ने भारत में देखने से प्रतिबंधित कर दिया। इसके सारे लिंक सोशल मीडिया से हटा दिए गए। मगर फिर भी बहुत से लोगों ने किसी न किसी तरह इसे समाज के बड़े हिस्से तक पहुंचाने की हिम्मत दिखाई। इन लोगों ने सवाल उठाए कि क्या भारत इतना कमजोर है कि एक डाक्यूमेंट्री से हिल जाएगा। या ये सरकार इतनी कमजोर है, जो एक डाक्यूमेंट्री से डर गई।

जाहिर है सरकार ने इन सवालों का कोई जवाब नहीं दिया और प्रतिबंध जारी रखे। लेकिन अब देश के कई हिस्सों में इस डाक्यूमेंट्री को अलग-अलग तरीकों से पहुंचाने की कोशिश हो रही है। खबर है कि हैदराबाद विवि में इस डाक्यूमेंट्री का प्रदर्शन छात्रों ने किया। ऐसी ही कोशिश जेएनयू औऱ जामिया विवि में हुई, लेकिन इस पर प्रशासन ने सख्ती दिखाकर रोक लगा दी। सरकार के पास ताकत है, तो उसने इन प्रदर्शनों को रोक दिया। लेकिन यहां सवाल निडरता के जज्बे का है, जिसे सरकार नहीं दबा पाई।

गौरतलब है कि भारत जोड़ो यात्रा जब राहुल गांधी ने शुरु की थी, तो उसमें उन्होंने कहा था कि देश में फैली नफरत, बेरोजगारी और महंगाई के खिलाफ ये यात्रा वो निकाल रहे हैं। इसके बाद यात्रा के आगे बढ़ने के साथ-साथ राहुल गांधी ने कई मौकों पर डरो मत का संदेश दिया। देश के युवाओं, महिलाओं, किसानों, व्यापारियों सभी को उन्होंने एक ही मंत्र दिया कि डरो मत। इस संदेश का मतलब यही है कि सत्ता अगर अपनी ताकत का इस्तेमाल आपके लोकतांत्रिक अधिकारों को ्कुचलने के लिए करे तो आप उसका विरोध करने का हौसला दिखाएं। डरे नहीं, बल्कि खुलकर अपने बचाव के लिए आवाज बुलंद करें। पानी टंकी पर 40 फीट ऊपर चढ़कर या बरसते पानी में या बम धमाकों के बाद उन्हीं रास्तों से गुजरकर राहुल गांधी ने हिम्मत का जो पैगाम देशवासियों को दिया, अब उसका असर दिखाई देने लगा है।

आज जब पूरा देश गणतंत्र दिवस मना रहा है। राजपथ पर राज्यों की मनोहारी झांकियों के साथ सेना के शौर्य और पराक्रम का साक्षी बन रहा है, बहादुर बच्चों और जाबांज सैनिकों को सम्मानित होते देख रहा है, तो ऐसे मौके पर निडरता का यह संदेश और खास हो जाता है। संविधान हमें देश को सही दिशा में ले जाने में मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। लेकिन यह काम तभी होगा, जब संविधान में वर्णित अधिकारों और कर्तव्यों दोनों का पालन हो। इस काम में कई तरह की बाधाएं आ सकती है।

स्वार्थ से संचालित शक्तियां इसमें रोड़ा बन सकती हैं। इनका मुकाबला डर कर नहीं हो सकता। बल्कि डरो मत के नारे को चरितार्थ करके ही हो सकता है। फिलहाल पठान की सफलता ने बता दिया है कि जनता अब बेसिर पैर के फरमानों को अधिक वक्त तक बर्दाश्त नहीं कर सकती है। जनता के इस पैगाम को सत्ताधारी समझ लें, तो उनके लिए बेहतर होगा।

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