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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥


अमरीका के टेनेसी राज्य में पुलिस ने अपनी एक स्पेशल यूनिट को भंग कर दिया है। इस यूनिट की एक टीम के पांच अफसरों को पिछले हफ्ते एक काले नौजवान को बुरी तरह पीटने के आरोप में, उसकी मौत हो जाने के बाद, नौकरी से निकाल दिया गया है। यह पूरी हिंसक पिटाई एक सार्वजनिक जगह पर वीडियो में दर्ज हुई है, और यह वीडियो सामने आने के बाद इस पुलिस के नाम पर थूका जा रहा था। इस मामले को लेकर अमरीका में कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे, और लोग पुलिस के आतंक की कुछ पुरानी कुख्यात वारदातों को भी इस सिलसिले में याद कर रहे थे। अश्वेत की मार-मारकर हत्या के इस मामले में तकनीकी रूप से कोई नस्लभेद नहीं है, क्योंकि मारने वाले तमाम पुलिस-अफसर अश्वेत ही थे। अमरीका में नस्लभेद के माहौल में काले लोग अपने को काला कहलाना पसंद करते हैं, क्योंकि उनका यह मानना है कि उनकी पहचान श्वेत लोगों से तुलना करते हुए अश्वेत के रूप में नहीं होनी चाहिए, काले के रूप में होनी चाहिए। अमरीका बुरी तरह से नस्लभेद का शिकार देश है, फर्क सिर्फ यही है कि वहां का कानून इसके खिलाफ तेजी से काम करता है।

अब एक काले नौजवान को सडक़ पर ट्रैफिक जांच करते हुए पांच काले पुलिस वालों ने मार-मारकर मार डाला, तो क्या यह पूरी तरह नस्लभेद से परे का मामला है? इस मामले को हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक सत्ता की ताकत के साथ जुड़े हुए लोगों के मिजाज को देखकर समझने की जरूरत है। खुद अमरीका का एक सर्वे यह कहता है कि जब किसी काले पर जुल्म की वारदात होती है, तो पुलिसवर्दी के काले लोग भी पीछे नहीं रहते। हिन्दुस्तान की राजनीति और सत्ता में ऊपर आए हुए लोगों को देखें, तो उनके बीच भी यही बात दिखती है कि वे चाहे दलित-आदिवासी तबकों की रिजर्व सीटों से लडक़र आ जाएं, चाहे उन तबकों के वोटों को पाकर आ जाएं, जब वे सत्ता पर आ जाते हैं, तो उनका मिजाज सत्ता का हो जाता है। कोई दलित या आदिवासी अफसर किसी दलित या आदिवासी का जायज काम भी नाजायज रिश्वत लिए बिना करते हों, ऐसा सुनने में नहीं आता। सत्ता तक पहुंचने के लिए जाति की जिस सीढ़ी का इस्तेमाल किया जाता है, लोग सबसे पहले उसी सीढ़ी को लात मारकर गिराते हैं, ताकि उनकी बिरादरी के दूसरे लोग उन सीढिय़ों से उनकी बराबरी तक न पहुंच जाएं।

सत्ता का मिजाज ऐसा होता है कि जो महिलाएं सत्ता पर पहुंचती हैं, वे भी सत्ता पर बैठे हुए मर्दों की तरह ही सोचने लग जाती हैं, और हिन्दुस्तान के संदर्भ में देखें तो बलात्कार की शिकार महिलाओं के खिलाफ जितने बयान मर्दों के आते हैं, उनसे कुछ ही कम बयान औरतों के भी आते हैं। अगर महिलाओं को दूसरी महिलाओं की, उनके हकों की फिक्र होती, तो फिर सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती, और महबूबा की पार्टियां मिलकर महिला आरक्षण विधेयक को कब का कानून बनवा चुकी रहतीं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि भारतीय संसदीय राजनीति पर हावी मर्दों का दिल औरतों की बराबरी मानने के खिलाफ हमेशा अड़े रहा, और महिलाएं पार्टी की अध्यक्ष रहते हुए भी, उन पर मालिकाना हक रखते हुए भी कोई कोशिश करते नहीं दिखीं।

अमरीका में काले पुलिस अफसरों के हाथों एक गरीब काले नौजवान की इस तरह हत्या से उस देश और बाकी दुनिया में यही सवाल उठ खड़े होते हैं कि सत्ता की ताकत, ओहदे की ताकत, क्या लोगों को अपनी जाति, अपने धर्म, और अपने रंग के प्रति भी संवेदनशील नहीं छोड़ती है? सत्ता लोगों की बुनियादी सोच को ही बदल देती है, और वह औरत-मर्द का फर्क भी खत्म कर देती है। अभी साल भर के भीतर की बात है, बंगाल में एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार के मामले में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने ऐसी गैरजिम्मेदारी का बयान दिया था कि जिसे लोगों ने जमकर धिक्कारा। ममता ने इस बलात्कार पर सवाल उठाया और कहा- ‘यह खबर बताती है कि एक नाबालिग की बलात्कार की वजह से मौत हो गई है, क्या आप इसे बलात्कार कहेंगे? क्या वह गर्भवती थी, या उसका किसी से कोई प्रेम-प्रसंग था? क्या इसकी जांच हुई है? मैंने पुलिस से जांचने कहा है। मुझे बताया गया है कि इस लडक़ी का किसी लडक़े के साथ कोई चक्कर था, और परिवार को इसके बारे में मालूम था। अगर एक जोड़े में कोई संबंध है, तो क्या मैं उसे रोक सकती हूं?’ एक मुख्यमंत्री की हैसियत से, और एक महिला होते हुए लोगों ने इस बयान को जमकर धिक्कारा था। लेकिन अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग महिला लीडर, या उनकी पार्टी के पुरूष लीडर ऐसे बयान देते हैं, और इनसे यही साबित होता है कि महिलाएं भी अपनी पार्टी की लीडर बनने के बाद महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता कुछ या बहुत हद तक खो बैठती हैं। ताकत एक नशा होता है, और इसके असर से बचना मुश्किल होता है। अगर सरकारों में बैठे दलित या आदिवासी अफसर और कर्मचारी ही दलित और आदिवासी जनता के काम बिना रिश्वत लिए करने लगते, उनके काम करवाने के लिए कुछ मेहनत करते होते, तो आज इन दबे-कुचले तबकों की हालत इतनी खराब नहीं होती। किसी समाज से आकर ताकत के ओहदे तक पहुंचने वाले लोगों को उनके समाज का प्रतिनिधि मानना ठीक नहीं है, वे सिर्फ सत्ता के प्रतिनिधि होकर रह जाते हैं।

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