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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

देश के एक सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय, जेएनयू, के एक प्राध्यापक सुरजीत मजूमदार अभी ओडिशा में राजधानी के उत्कल विश्वविद्यालय सभागार में एक नागरिक मंच के कार्यक्रम में अंबेडकर पर बोल रहे थे कि कुछ लोगों ने चिल्लाते हुए उन्हें गालियां बकीं, और आयोजकों के साथ धक्का-मुक्की की। प्रोफेसर मजूमदार अंबेडकर के सिद्धांतों और उद्देश्यों पर बात करते हुए प्राकृतिक संसाधनों को कुछ लोगों को सौंपे जाने की बात कह रहे थे, तो यह बात कुछ बाहरी लोगों को नागवार गुजरी। वहां मौजूद लोगों का कहना है कि उन्होंने अडानी जैसे किसी उद्योगपति का नाम नहीं लिया था, लेकिन इस मुद्दे पर बोलना ही कुछ लोगों को गवारा नहीं हुआ, और वे विरोध और धक्का-मुक्की पर उतर आए। इस धक्का-मुक्की में एक स्थानीय प्राध्यापक गिरफ्तार भी हुए हैं, और हमलावरों को दक्षिणपंथी गुटों से जुड़ा बताया गया है।

अब अंबेडकर वैसे भी लोगों को नहीं सुहाते हैं। उनकी बातें संविधान के तहत तो हैं ही, वे बातें सबसे कुचले और वंछित तबकों को हक दिलाने की बातें भी हैं। जिस तरह वे संविधान के लिए अपनी सोच सामने रखते हुए हमेशा ही एक सामाजिक न्याय की वकालत करते रहे, उसकी वजह से वे दलितों के लिए एक प्रेरणा भी बने कि वे जात-पात और छुआछूत मानने वाले हिन्दू समाज को छोडक़र बाहर निकलें, और जात-पात न मानने वाले बौद्ध समाज में जाएं। इस तरह देश के कट्टर हिन्दुओं की नजरों में अंबेडकर इसलिए भी खटकते हैं कि उन्होंने हिन्दू समाज के सबसे निचले कहे जाने वाले तबके, पैरोंतले लगातार कुचले जाने वाले दलितों को हिन्दू समाज से हटा दिया। अब इसके बाद अगर उनकी नसीहत को याद दिलाते हुए कोई जानकार और विद्वान प्रोफेसर प्राकृतिक स्रोतों को लेकर यह फिक्र जाहिर करता है कि ये स्रोत कुछ लोगों को दिए जा रहे हैं, तो इसका एक मतलब यह भी होता है कि वे हिन्दू समाज के भीतर के दलितों के शोषण की चर्चा करते हुए उससे आगे बढक़र आदिवासियों के हक की बात भी कर रहा है, और यह बात हिन्दुत्व के ठेकेदारों, और कारखानेदारों के दलालों, दोनों को खटकने वाली बात है, और आज के हिन्दुस्तान में एक तबका ऐसा खड़ा हो गया है जो कि ये दोनों ही झंडे अपने डंडों पर लगाकर चल रहा है।

जेएनयू जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को सुनने का ओडिशा में यह गिना-चुना मौका ही रहा होगा। ओडिशा के बारे में लोगों को यह याद रखना चाहिए कि वहां दलितों से बड़ा मुद्दा आदिवासियों का है, और आदिवासियों के जंगल, उनके पहाड़, इन सबको कारखानेदारों को देने के खिलाफ दुनिया का एक सबसे चर्चित आंदोलन ओडिशा में चल रहा है। ऐसे में अभी की इस ताजा घटना को समझने की जरूरत है कि सिर्फ पढ़े-लिखे और समझदार, सोचने वाले लोगों के बीच अगर एक सभागृह में कोई कार्यक्रम हो रहा है, तो वहां पहुंचकर विरोध करना अनायास नहीं हो सकता, और यह विरोध जेएनयू के नाम का भी रहा होगा, और जंगलों पर आदिवासियों के हक की वकालत का भी विरोध रहा होगा। ऐसा लगता है कि विरोध की यह साजिश हमलावर हिन्दुत्ववादियों और कारखानेदारों की तरफ से पहले से गढ़ी गई होगी। क्योंकि हमलावर हिन्दुत्ववादियों को खुद होकर तो जंगलों पर आदिवासियों के हकों की अलग से समझ नहीं है। ऐसा लगता है कि कारखानेदारों के दलालों ने अपने प्राकृतिक समर्थक हिन्दुत्ववादी हमलावरों को साथ लेकर इस कार्यक्रम में यह विरोध किया। यह विरोध अपने आपमें बतलाता है कि आज के हिन्दुस्तान में अंबेडकर की सोच की कितनी जरूरत है, और इस सोच का विरोध करने वाली ताकतें कितने हमलावर तेवरों के साथ मौजूद हैं।

न सिर्फ हिन्दुस्तान में, बल्कि दुनिया के तमाम बड़े जंगलों वाले देशों में कारखानेदार और कारोबारी जिस तेज रफ्तार से और जितनी बड़ी मशीनों के साथ कुदरत पर हमला कर रहे हैं, उसकी भरपाई अगले लाखों बरस तक होने के कोई आसार नहीं रहेंगे। अमेजान के जिन जंगलों से दुनिया भर में बिखरा हुआ कारोबार करने वाली कंपनी अमेजान ने अपना नाम लिया है, अमेजान के उन जंगलों को खत्म करने की पूरी कोशिशें चल रही हैं। यह कुदरत का बड़ा अजीब सा इंतजाम है कि जहां खनिज हैं वहीं पर जंगल हैं, और जहां पर जंगल हैं वहीं पर आदिवासी हैं, और इसलिए आदिवासियों की बेदखली के बिना खनिज निकालना मुमकिन नहीं है। यह हाल हम छत्तीसगढ़ में हसदेव के सबसे घने जंगलों के नीचे से कोयला निकालने की अडानी की हड़बड़ी में भी देख रहे हैं, और दुनिया भर के जंगलों में अलग-अलग कंपनियों के हमलों की शक्ल में भी। ऐसे में अगर अंबेडकर को याद करते हुए कोई विचारक इन हमलों के खतरे गिनाता है, तो आज ऐसे विचारक को ही एक खतरा मानकर उस पर हमले किए जा रहे हैं। इनसे पहली बात तो यही साबित होती है कि आज लोगों के कुदरत पर हक बनाए रखने के लिए अंबेडकर की सोच कितनी जरूरी है। दूसरी बात यह साबित होती है कि हिन्दुस्तान में कारोबारी हमलावर गिरोह सिर्फ राष्ट्रवादी खाल ओढक़र नहीं आते, वे हिन्दुत्ववादी खाल ओढक़र भी आ सकते हैं, आ रहे हैं। अभी जब एक अंतरराष्ट्रीय भांडाफोड़ एजेंसी ने अडानी पर खाता-बही में हेरफेर करके, विदेशी रास्तों से संदिग्ध पैसा लाकर कारोबार को बड़ा दिखाने की तोहमत लगाई, तो रातों-रात अडानी ने इसे हिन्दुस्तान पर हमला करार दिया। और अडानी के बचाव में स्वघोषित हिन्दू सांस्कृतिक संगठन आरएसएस ने झंडा-डंडा उठा लिया। जहां पर साफ-साफ जांच एजेंसियों के हरकत में आने की जरूरत थी, वहां पर तिरंगे झंडे से लेकर भगवा झंडे तक की ढाल खड़ी कर दी गई। इस पूरे सिलसिले को समझने की जरूरत है। और ऐसे सिलसिले को समझाने वाले न रहें, इसलिए भी जेएनयू जैसी जगह को खत्म करने की खुली कोशिश चल रही है। जिस दिन जेएनयू जैसे संस्थानों से उपजी हुई जागरूकता खत्म हो जाएगी, उस दिन हिन्दुस्तान में जल, जंगल, जमीन को बचाने के आंदोलन भी खत्म हो जाएंगे। और देश का एक हमलावर तबका वैसे ही ‘अच्छे दिन’ लाने में लगा हुआ है।

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