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-सुनील कुमार॥

अमरीका में सिएटल वहां का ऐसा पहला शहर बना है जहां पर स्थानीय कानून बनाकर जाति के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाया गया है। म्युनिसिपल की एक निर्वाचित प्रतिनिधि, भारतवंशी क्षमा सावंत ने यह कानून लिखकर सदन में रखा था, और जाति व्यवस्था को शोषण का भी एक पहलू बताया था। भारत की तीन हजार बरस पुरानी जाति व्यवस्था भारतीयों के साथ-साथ उन सब जगहों पर चली जाती है, जहां-जहां वे जाकर बसते हैं। हल्के अंदाज में यह भी कहा जाता है कि हिन्दुस्तानी हिन्दू जहां जाते हैं, वहां जाति व्यवस्था और अचार, इन दो चीजों को ले जाते हैं। ऐसे में अमरीका में भी हिन्दू समुदायों के बीच जाति-आधारित भेदभाव को बड़ा मजबूत माना जाता है, और इसीलिए एक भारतवंशी जनप्रतिनिधि ने वहां यह पहल की। इसके बाद कनाडा में भी एक बड़े स्कूलबोर्ड ने अपने कोर्स के तहत चलने वाले स्कूलों में जातिगत भेदभाव पर रोक लगाई है। क्षमा सावंत राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक समाजवादी हैं, और उनका कहना है कि सवर्ण हिन्दू ब्राम्हण समाज हिन्दुस्तान में भी जातिगत भेदभाव करता है, और इन्हीं के साथ-साथ इनके संस्कारों में यह जातिवाद दूसरे देशों तक भी चले जाता है। दिलचस्प बात यह है कि सिएटल के म्युनिसिपल में क्षमा सावंत अकेली भारतवंशी अमरीकी हैं, और उनके इस प्रस्ताव को गंभीरता से मंजूर किया गया। हालांकि अमरीका के एक हिन्दू संगठन ने इसका विरोध करते हुए एक खुली चि_ी लिखी है कि हिन्दुओं को उनके मूल देश की वजह से गैरजरूरी निशाना बनाया जा रहा है। उनका तर्क है कि अमरीका में भारतीयों की आबादी बहुत कम है और ऐसे कोई खास सुबूत नहीं है कि उनके बीच बड़े पैमाने पर कोई जातिगत भेदभाव होते हैं। इतिहास में यह दर्ज है कि हिन्दुस्तान में 1948 से ही जातिगत भेदभाव को गैरकानूनी करार दिया गया था।

यह सिलसिला थोड़ा सा हैरान करता है क्योंकि हिन्दुस्तान से अमरीका जाकर बसने वाले लोग एक तो पढ़े-लिखे होते हैं, वे जिंदगी में कामयाब भी होते हैं, और अपनी संपन्नता के बीच उन्हें दूसरे भारतवंशियों के साथ जातिगत भेदभाव करने की कैसे तो फुर्सत मिल पाती है, और कैसे उन्हें आधुनिक कामयाबी में इतना आगे बढऩे के बाद भी हजारों बरस पुरानी इस अमानवीय व्यवस्था की बात सूझती है? लेकिन यह बात वहां बसे हुए सवर्ण हिन्दू तो गलत बताते हैं, लेकिन वहां बसे हुए गैरसवर्ण हिन्दू इसे एक हकीकत बताते हैं, खासकर दलित तबके के लोग। अब इस बात को हिन्दुस्तान के साथ जोडक़र देखें, तो यहां भी हिन्दुओं में सवर्ण तबके को यह लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो चुकी है, उनमें से बहुतों को तो यह भी लगता है कि अब आरक्षण की भी जरूरत खत्म हो गई है जो कि एक सीमित समय के लिए लागू की गई व्यवस्था थी, और जिसे बाद में बार-बार आगे बढ़ाया गया। दूसरी तरफ जो आरक्षित तबके हैं, उनको यह बात लगती है कि जातिगत भेदभाव सिर चढक़र बोलता है, और न सिर्फ आरक्षण जारी रहना चाहिए, बल्कि भारत में ऊंची अदालतों के जजों के लिए जो आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं है, उसे भी लागू करना चाहिए। दिलीप मंडल जैसे बहुत ही आक्रामक और दलित-ओबीसी समुदायों के हिमायती लेखक सोशल मीडिया पर लगातार इस बात को लिखते हैं कि देश के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट से लेकर हिन्दुस्तान की क्रिकेट टीम तक किस तरह सवर्ण तबका हावी है, और न तो ओबीसी, और न ही दलित आदिवासी को कोई हक मिल पाता है। वे लगातार क्रिकेट नतीजों की मिसाल देते हुए यह बात लिखते हैं कि खराब प्रदर्शन के बावजूद सवर्ण खिलाडिय़ों को किस तरह आगे के मैचों के लिए टीम में रखा जाता है, और ओबीसी या दूसरे गैरसवर्ण खिलाडिय़ों को शानदार प्रदर्शन के बावजूद टीम में मौका नहीं मिलता है, और धीरे-धीरे उनका रिकॉर्ड कमजोर दिखने लगता है। इसी तरह एक पक्षपाती चयन की वजह से कई सवर्ण खिलाडिय़ों को बार-बार मौका मिलता है, और उनके नाम रिकॉर्ड जुड़ते चलते हैं।

अब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के लिए आरक्षण लागू नहीं है, लेकिन क्या इसका यह असर नहीं हो रहा है कि जजों में इन समुदायों के लोगों की तकलीफों का अहसास नहीं रहता? हो सकता है कि इन जजों में आरक्षित तबकों के प्रति हमदर्दी हो, लेकिन जैसा कि दलित साहित्य लिखने के मुद्दे पर दलितों की तरफ से कहा जाता है कि सहानुभूति का साहित्य अलग होता है, और अनुभूति का साहित्य अलग। इसलिए बहुत से दलित लेखक इस बात को लेकर हमलावर रहते हैं कि गैरदलितों को दलित जिंदगियों पर साहित्य नहीं लिखना चाहिए। क्या ऐसी ही नौबत दलित मामलों पर, या आदिवासियों के मामलों पर फैसले देने वाले सवर्ण जजों के साथ नहीं आती होंगी कि उन्होंने कभी इन तबकों की जिंदगी को न जिया है, न करीब से देखा है।

जिस अमरीका से हमने आज की यह चर्चा शुरू की है उस अमरीका में भी काले लोगों के बीच से किसी का सुप्रीम कोर्ट का जज बनना बहुत बड़ा मुद्दा रहता है। और वहां पर चूंकि राष्ट्रपति अपनी पसंद के जज का नाम सुझाते हैं, और उनकी लंबी संसदीय-सुनवाई के बाद अमूमन उन्हें जज बना दिया जाता है, इसलिए वहां की दोनों प्रमुख राजनीतिक विचारधाराओं के राष्ट्रपति अपनी-अपनी पसंद से जज मनोनीत करते हैं, और वहां पर राष्ट्रपति, यानी सरकार, की दखल जज बनाने में सबसे अधिक रहती है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में जजों का कॉलेजियम ही जज चुनता है, और सरकार के हाथ उन्हीं नामों में से अधिकतर को मंजूरी देने, और कुछ को रोक देने की ताकत ही रहती है। इसलिए अब हिन्दुस्तान में जिन तबकों के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट जज न के बराबर हैं, उन तबकों के लोगों को मौका कैसे मिल सकता है, यह सोचना कॉलेजियम का ही काम है क्योंकि उसने जजों के नाम छांटने को अपना एकाधिकार बना रखा है।

जाति व्यवस्था कमजोर हो रही है, खत्म हो रही है, ऐसी सोच जमीन से जुड़ी हुई बिल्कुल नहीं है। हिन्दुस्तानी हिन्दू जहां-जहां रहते हैं, वहां वे या तो जातिगत भेदभाव को लादते हैं, या उसके शिकार रहते हैं। अमरीका में लोकतांत्रिक मूल्य एक बड़ा मुद्दा रहते हैं, वहां रंगभेद के खिलाफ बहुत कड़ा कानून है, और बहुत बड़े आंदोलन भी चलते हैं। वहां पर आज भारत के हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था के खिलाफ अगर कानूनी जागरूकता खड़ी हुई है, तो वह एक नया संघर्ष जरूर है, लेकिन इस संघर्ष का फायदा हिन्दुस्तान तक कभी न कभी पहुंचेगा। कामयाब देशों और आधुनिक लोकतंत्रों में पहुंचने के बाद हिन्दुस्तानियों का पाखंड खत्म हो जाता हो, वैसा भी नहीं है। आज भी वहां बसे हुए भारतवंशियों का एक तबका भारत के सबसे कट्टर और साम्प्रदायिक आंदोलनों को आगे बढ़ाता है, उनकी मदद करता है। यह पूरा सिलसिला तमाम जगहों पर खत्म होना चाहिए। सिएटल और कनाडा की यह शुरुआत बहुत अच्छी है।

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