-सुनील कुमार॥
हिन्दुस्तान में लोग अगर किसी जगह वक्त पर पहुंच जाएं तो मजाक में उन्हें अंग्रेज कह दिया जाता है। हो सकता है कि अँग्रेज वक्त के पाबंद रहे होंगे। और जब कोई खासे लेट पहुंचते हैं, तो यह कह दिया जाता है कि वे इंडियन टाईम के मुताबिक आए हैं। कुछ जिम्मेदार लोग जो कि हर जगह, हर कार्यक्रम में वक्त पर पहुंचते हैं, उनकी जिंदगी निराशा और कुंठा से भरी होती है क्योंकि वे औरों का इंतजार करते बैठे रहते हैं। जो लेट-लतीफ रहते हैं (अब लतीफ तो लोगों का नाम भी होता है, और इस तरह का उसका इस्तेमाल पता नहीं किस लतीफ के लेट होने से शुरू हुआ होगा) उन्हें कोई तनाव नहीं रहता। सरकारों में जो जितने ऊंचे ओहदों पर रहते हैं, वे आमतौर पर उतना ही अधिक लेट होने को अपना हक मान लेते हैं। कुछ मंत्री ऐसे भी रहते हैं जो मुख्यमंत्री के लिए अपनी हिकारत उजागर करने को उनके बाद ही किसी कार्यक्रम में पहुंचते हैं। और बहुत से लोग कार्यक्रमों में स्कूली बच्चों को सभागृह भरने के लिए इक_ा करवा लेते हैं, और घंटों बाद पहुंचते हैं। छत्तीसगढ़ के एक भूतपूर्व मंत्री के बारे में यह आम जानकारी रहती थी कि अधिक शादियों वाले दिन वे कुछ शादियों में आधी रात के इतने बाद पहुंचते थे कि कभी-कभी दूल्हा-दुल्हन सुहागरात के कमरे में जा चुके रहते थे, और बड़ी मंत्रीजी के आने पर उन्हें फिर तैयार करके आशीर्वाद के लिए लाया जाता था।
ऐसे देश में जब देश की सबसे बड़ी अदालत की मुख्य न्यायाधीश कोर्ट में दस मिनट लेट पहुंचने पर तुरंत माफी मांगते हैं, और वजह बताते हैं कि वे साथी जजों के साथ एक विचार-विमर्श में थे, और इसलिए लेट हो गए। जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ को अपने इस मिजाज के लिए भी जाना जाता है कि कभी किसी बहुत ही जरूरी वजह से वे कुछ मिनट भी लेट होते हैं, तो सार्वजनिक रूप से माफी मांगते हैं। और वे दूसरे संदर्भों में यह बात बता भी चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जज हफ्ते में सातों दिन काम करते हैं, और अदालत में उनकी मौजूदगी काम का एक छोटा हिस्सा ही है, बाकी वक्त वे कमरे में और घर पर अगली सुनवाई की तैयारी में या फैसले लिखवाने में लगाते हैं। उनकी नर्मदिली और रहमदिली के और भी कुछ किस्से सामने आए हैं कि वे किस तरह एक बार अपने सहकर्मियों को दिल्ली के एक रेस्त्रां में खाने को ले गए, और वहां एक साधारण आदमी की तरह टेबिल खाली होने की कतार में बारी का इंतजार करते रहे।
जो लोग सच में ही बड़े होते हैं, वे फलों से लदे हुए पेड़ की तरह झुके रहते हैं। बाकी लोगों का हाल क्या रहता है यह लोगों ने देखा हुआ है। और ऐसे बाकी लोग अपनी कुर्सी की ताकत की वजह से चाहे इज्जत पा लें, लेकिन उससे परे लोगों की नजरों में वे गिरे ही रहते हैं। अपने शहर में, अपने लोगों के बीच, बिना किसी जरूरत या हड़बड़ी के पुलिस-पायलट गाड़ी और सायरनों के साथ ट्रैफिक तोड़ते हुए जो लोग घूमते हैं, वे लोगों की बद्दुआ भी पाते हैं। जो लोग किसी कार्यक्रम में मंच पर घंटों लेट पहुंचते हैं, वे वहां मौजूद तमाम लोगों की हिकारत भी झेलते हैं, फिर चाहे वह उनके चेहरे पर जाहिर न की जाए। हिन्दुस्तान में जिस तरह देर से पहुंचने को, कार्यक्रम देर से शुरू करने को एक संस्कृति बना दिया गया है, उससे देश का बहुत सा उत्पादक वक्त बर्बाद होता है। कार्यक्रम से जुड़े तमाम लोग तय वक्त के भी घंटों पहले से तैनात और जुटे रहते हैं, दर्शक या श्रोता भी वक्त के पहले लाकर बिठा दिए जाते हैं, और इसके बाद माननीय के पहुंचने में जितना वक्त लगता है, वह बाकी सबके वक्त की बहुत बर्बादी भी होती है, और सबकी बेकद्री भी होती है। दूसरे इंसानों को इतना खराब, और इतना गैरजरूरी गिनकर चलना ठीक नहीं है।
जस्टिस चन्द्रचूड़ की मिसाल और लोगों के बीच बांटनी चाहिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का विनम्र होना भी कानूनी जरूरत नहीं है, हमने लाल कपड़ा देखते ही भडक़ने वाले, आपा खोने वाले, अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा के लिए तुरंत तलवार निकाल लेने वाले कई किस्म के जजों के बारे में सुना है। अभी तो आए दिन अलग-अलग प्रदेशों से ये खबरें आ रही हैं कि किस तरह सत्ता और राजनीति से जुड़े हुए लोग दूसरों के साथ हिंसा कर रहे हैं, उन्हें बेइज्जत कर रहे हैं। चूंकि अब हर हाथ में मोबाइल की शक्ल में एक वीडियो कैमरा होता है इसलिए ऐसी हरकतें दर्ज हो जाती हैं, और लोगों की हिंसा और बदसलूकी उजागर हो जाती है। लेकिन कैमरों की पहुंच से परे ऐसी हरकतें चलती ही रहती हैं। सत्ता और पैसों की ताकत हर किसी को नहीं पचती, इन्हें पचाकर विनम्र बने रहने के लिए एक खास दर्जे की उदारता लगती है, जो हर किसी को नसीब नहीं रहती।
ताकत की जगहों पर बैठे हुए लोगों को वक्त का पाबंद बनाने का काम जनता ही कर सकती है, जो किसी कार्यक्रम में मौजूद रहें, उनका यह हक रहता है कि वे लेट आने वाले माननीय लोगों से सवाल कर सकें। और इसके साथ-साथ लोगों को सोशल मीडिया पर लिखना भी चाहिए कि किस कार्यक्रम में कौन कितने लेट पहुंचे। किसी को दूसरों को यह हक नहीं देना चाहिए कि वे उनका वक्त बर्बाद कर सकें। इन दिनों कुछ जिम्मेदार लोग जब किसी को मिलने का समय देते हैं, तो साथ-साथ यह भी उजागर कर देते हैं कि उन्हें अगला काम कितने बजे से है। इससे यह साफ हो जाता है कि मिलने आने वाले लोगों को उस वक्त तक निकल भी जाना है। किसी भी मुलाकात को बारात के जनवासे की तरह अंतहीन नहीं चलाना चाहिए कि दो-तीन दिन रूकना ही है। किसी बैठक के शुरू होने का वक्त भी तय रहना चाहिए, और खत्म होने का भी। बैठक या कार्यक्रम खत्म होने के वक्त पर लोगों को उठकर चले भी जाना चाहिए। अगर हिन्दुस्तान की संस्कृति को सुधारना है, तो कम से कम कुछ लोगों को ऐसी पहल करनी होगी। आज तो हालत यह है कि जिस वक्त कार्यक्रम खत्म हो जाना चाहिए, उस वक्त तक बहुत से कार्यक्रम शुरू भी नहीं होते हैं। यह सिलसिला खत्म करने के लिए लोगों को आपस में बात करके एक पहल करनी चाहिए, और इससे देश और दुनिया का बहुत वक्त बचेगा।