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-कृष्ण कल्पित॥

आखिरकार तीन वर्ष बाद जब राज्य की कला, साहित्य और भाषा अकादमियों में अध्यक्षों की राजनीतिक नियुक्तियां की गई तो यह आशा जगी थी कि निष्क्रिय पड़ी अकादमियों में अब कामकाज शुरू होगा लेकिन अधिकतर अकादमियां अपने चहेतों को पुरस्कार, अनुदान और सहायता बांटने में व्यस्त हो गईं। राजनीतिक नियुक्तियों के दम पर राजस्थान की अकादमियों का हाल सुधरने वाला नहीं लगता। पहली बात तो यह कि साहित्य, संस्कृति व कला किसी भी सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं हैं। अमूमन सरकार बनने के तीन-चार साल बाद अकादमियों में अध्यक्षों की नियुक्ति होती है। वे कामकाज शुरू करते हैं तब तक नई सरकार आ जाती है और अकादमियों को भंग कर देती है। राजस्थान की भाषा, साहित्य व कला अकादमियां इसी दुश्चक्र में फंसी हुई हैं।

विशेषज्ञता के क्षेत्र में राजनीतिक नियुक्तियां खतरनाक साबित होती हैं। इस बार राजस्थान साहित्य अकादमी का अध्यक्ष एक कांग्रेस कार्यकर्ता और राजस्थानी भाषा के लेखक को बना दिया गया, जो हिंदी का लेखक नहीं है। ललित कला अकादमी का अध्यक्ष उस मूर्तिकार को बना दिया जो नए संसद भवन में लगने वाले अशोक चक्र की रिप्लिका बनाने वालों में शामिल रहा है। आश्चर्य की बात कि दिल्ली स्थित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुख्यालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस करके इस विकृत रिप्लिका का विरोध किया गया, उसी कांग्रेस की राज्य सरकार ने इस विवादित मूर्तिकार को ललित कला अकादमी का अध्यक्ष बना दिया। संगीत नाटक अकादमी का अध्यक्ष जिसे बनाया गया उसका संगीत और नाटक से कोई संबंध रहा हो, इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। पिछली सरकार ने उर्दू अकादमी का अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति कार्यकर्ता को बना दिया, जो उर्दू भाषा ही नहीं जानता था।

 

सरकार बदलते ही राजस्थान की सारी अकादमियों का रंग-ढंग भी बदल जाता है। राजनीतिक नियुक्तियों से बने अकादमियों के अध्यक्षों की मुख्य प्राथमिकता अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रखना होता है। राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ के संपादक ने इसे अखिल भारतीय प्रतिष्ठा की पत्रिका बना दिया था। लेकिन अकादमी के नव नियुक्त अध्यक्ष ने आते ही ‘मधुमती’ के संपादक को हटा कर अपने एक मित्र को संपादन का भार सीप दिया जो हिंदी के लेखक नहीं हैं। राजस्थान साहित्य

 

साहित्य, संस्कृति व कला किसी भी सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं हैं। अमूमन सरकार बनने के 3-4 साल बाद अकादमियों में अध्यक्ष नियुक्त होते हैं। वे कामकाज शुरू करते हैं तब तक नई सरकार आ जाती है और अकादमियों को भंग कर देती है।

 

अकादमी के अतिउत्साही अध्यक्ष को क्या यह पता नहीं कि वे राजस्थान की हिंदी अकादमी के अध्यक्ष हैं। राजस्थानी के लिए सरकार ने अलग अकादमी बना रखी है। इस बार सरकार ने जवाहरलाल नेहरू के नाम से एक बाल साहित्य अकादमी भी शुरू की है, जो अभी अकादमी संकुल स्थित सिंधी अकादमी के कार्यालय में चल रही है और सिंधी अकादमी अभी भी अपने अध्यक्ष की नियुक्ति का इंतजार कर रही है। अधिकतर अकादमियों का कामकाज बिना बजट के रुका हुआ है। इन्हें इतना कम बजट आवंटित किया जाता है। कि रोजमर्रा के खर्चे भी पूरे नहीं होते।

 

वहीं इन अकादमियों की पुरस्कारों की राशि भी दूसरे राज्यों से काफी कम है। राजस्थान साहित्य अकादमी के मीरा पुरस्कार के लिए 75 हजार की मामूली राशि दी जाती है, जबकि दूसरी राज्य सरकारों द्वारा दिए जाने वाले सर्वोच्च पुरस्कार की राशि लाखों में होती है। सरकार को राज्य की सभी कला, भाषा, साहित्य की अकादमियों को केंद्रीय साहित्य अकादमी की तरह स्वायत्त बनाना चाहिए। वह अकादमियों का कार्य पूर्ण रूप से कवियों, लेखकों, कलाकारों और विद्वानों को साप सकती है। राजनीति को जितना जल्दी हो साहित्य और कलाओं में अपना हस्तक्षेप बंद करना चाहिए।

 

इतिहास गवाह है कि जब साहित्य और भाषाएं पलटकर वार करते हैं तब राजसत्ताएं और सरकारें धूल धूसरित हो जाती हैं। साहित्य राजनीति के आगे जलने वाली मशाल है। यह प्रेमचंद ने कहा था। लेकिन राजस्थान की कला व साहित्य अकादमियों के हाल देखकर लगता है कि साहित्य राजनीति और राजनीतिज्ञों के पीछे उड़ती हुई धूल है। इस परिदृश्य को बदलना चाहिए।

 

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