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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सर्वमित्रा सुरजन॥

साहित्य ही नहीं, राजनीति भी तो समाज का दर्पण है। जैसा समाज, वैसे राजनेता, वैसी ही राजनीति। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, या जय जवान, जय किसान जैसे नारों का आज बच्चे क्या करेंगे। वे हंसेंगे कि आजादी की बात तुम कर रहे हो, तो खून भी तुम्हीं दो। क्योंकि आज के बच्चे गोली मारो, जैसे नारे सुनकर बड़े हो रहे हैं।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एमए के पाठ्यक्रम में ‘लोकप्रिय साहित्य’ के प्रश्न पत्र का विकल्प रखा गया है। इसके तहत गुलशन नंदा, वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक के ‘नीलकंठ’ और ‘वर्दी वाला गुंडा’ जैसे उपन्यास पढ़ाने की बात की गई है। छात्रों को लुगदी साहित्य पढ़ने दिया जाएगा, इस बात को लेकर बहुत से लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं। दरअसल कुछ लोगों की आदत ही होती है, हर बात में आदर्शों और सिद्धांतों की बात करने की। इन्हें लगता है कि जीवन में केवल अच्छी-अच्छी बातें ही की जाएं, हर बात को गलत और सही को पैमाने पर परखा जाए, तो दुनिया बेहतर बनेगी। लेकिन ऐसा कहीं होता है भला। मर्यादाओं की बात करने से राम राज्य स्थापित नहीं होता। दुनिया के राजनैतिक, सामाजिक इतिहास के पन्ने पलट कर देखिए, बदलते वक्त के साथ नए-नए सिद्धांत पेश किए जाते रहे, ताकि इंसान और अधिक सभ्य बने, जिम्मेदार नागरिक बने, मानवाधिकारों की रक्षा हो, प्रकृति का संरक्षण हो। लेकिन क्या ऐसा हुआ, नहीं। दुनिया में अणु बम बने भी और गिराए भी गए। इसलिए अच्छा यही है कि कोरे आदर्शों की बात छोड़कर व्यावहारिक ज्ञान नई पीढ़ी को दिया जाए। गोरखपुर विश्वविद्यालय यही तो कर रहा है।
विश्वविद्यालय ने इस बात का भी संज्ञान लिया ही होगा कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। भले ही गुलशन नंदा और सुरेंद्र मोहन पाठक गुजरे जमाने के लेखक हैं, लेकिन समाज में चारों ओर नजर दौड़ाइए तो पता चलेगा कि उनकी लेखनी आज के माहौल को ही चित्रित कर रही है अर्थात उनके उपन्यास समाज का सही चेहरा दिखाएंगे। प्रेमचंद, निराला या महादेवी वर्मा इस समाज के लेखक अब कहां रहें या उनकी लेखनी के स्तर का समाज अब कहां रहा। गबन और गोदान में लिखी गई बातें अब मूर्खता लगेंगी। जब देश में आजादी का अमृतकाल चल रहा है, तब समाज में भाईचारा, जाति प्रथा की बुराइयां, गुलामी के कारण, सांप्रदायिक तनाव इन सब पर कौन माथापच्ची करता रहे। किसे फुर्सत है कि परिचय इतना, इतिहास यही की व्याख्या करे और स्त्रियों का दर्द समझे। हिंदी के जो कालजयी उपन्यास या कहानियां हैं, उनमें वही सारी बातें हैं, जो उस वक्त के समाज में थीं। लेकिन अब समाज वैसा नहीं रहा, देश वैसा नहीं रहा, तो साहित्य का अध्ययन भी वैसा क्यों रहे। अब बच्चों को वही पढ़ना चाहिए, जो उन्हें रोजमर्रा के जीवन में नजर आता है और जिसमें उन्हें भी जीवन गुजारना है। सब के सब तो उठकर विदेशों में पढ़ाई के लिए नहीं जा सकते। सरस्वती शिशु मंदिर के बाद आगे की पढ़ाई यहीं करनी पड़ेगी, तो क्यों न इस सच को स्वीकार करके ही पढ़ा जाए। और इस सच को स्वीकार करने में लुगदी साहित्य बड़े काम आएगा। क्योंकि इसमें बच्चों को वही सब मिलेगा, जो वो टीवी चैनलों पर देख रहे हैं, अखबारों में पढ़ रहे हैं। जैसे प्रेमचंद दलित को ठाकुर के कुएं से पानी न मिलने की मार्मिक व्याख्या करते हैं, लेकिन उससे क्या समाज में दलितों को ठाकुरों के कुओं से पानी पीने मिल जाएगा। संविधान कहता है, तब भी ऐसा नहीं होता। बच्चे तो यही देख रहे हैं कि एक स्कूल का प्रधानाचार्य दलित बच्चे को अपने मटके से पानी पीने के कारण इतना पीटता है कि वो मर जाता है। किताब के सच और समाज के सच में इस फर्क को देखकर बच्चे भ्रमित हो जाएंगे कि सच क्या है। बच्चों को इस भ्रम से बचाने के लिए ही तो सारी कवायद की जा रही है।
साहित्य ही नहीं, राजनीति भी तो समाज का दर्पण है। जैसा समाज, वैसे राजनेता, वैसी ही राजनीति। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, या जय जवान, जय किसान जैसे नारों का आज बच्चे क्या करेंगे। वे हंसेंगे कि आजादी की बात तुम कर रहे हो, तो खून भी तुम्हीं दो। क्योंकि आज के बच्चे गोली मारो, जैसे नारे सुनकर बड़े हो रहे हैं। कोई छुटभैया नेता ऐसी बातें करे, तो उस पर गुंडे-मवाली का टैग लगाया जा सकता है। लेकिन माननीयों के मुख से अब ऐसी ही बातें निकल रही हैं, तो उन्हें किस तरह गुंडा-बदमाश कहा जा सकता है। उन्हें तो झोले वाला या सूट-बूट वाला गुंडा भी नहीं कह सकते। क्योंकि वे तो खुद को विश्वगुरु कहते हैं। अपनी गुरुता में वे सुपारी ले ली है, या उल्टा लटका कर सीधा कर देंगे, जैसी बातें जनसभाओं में करते हैं। अब लुगदी साहित्य के आलोचक जरा बताएं कि इन नारों को किस साहित्य में रखा जा सकता है। इससे पहले देश में प्रधानसेवक स्तर के किसी व्यक्ति ने ऐसा नहीं कहा कि मुझे बदनाम करने की फलाने ने सुपारी ले ली है। ऐसी भाषा तो हिंदी फिल्मों के मुंबइया डॉन लोग बोला करते थे। तब मां-बाप बच्चों को ऐसी फिल्में देखने से रोकते थे, ताकि उनके विचारों और भाषा का स्तर खराब न हो। तब लुगदी साहित्य भी दूसरी किताबों के भीतर रखकर पढ़ा जाता था। बड़ों के सामने ऐसी किताबें हाथ में नहीं ली जाती थीं। लेकिन अब राजनैतिक सभाओं में माफिया वाली भाषा बोली जा रही है, तो मां-बाप बच्चों को ऐसे भाषण सुनने से रोक नहीं सकते। वैचारिकता के साथ भाषायी गिरावट का झरना जब ऊपर से नीचे तक बह रहा है, तो विद्यार्थियों को उससे बचाया नहीं जा सकता।
इसलिए गोरखपुर विश्वविद्यालय का तो धन्यवाद करना चाहिए कि उसने सच का सामना करने और करवाने की हिम्मत सबसे पहले दिखाई है। जल्द ही इसका अनुसरण बाकी विश्वविद्यालय करते दिखें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे भी हमारे विश्वविद्यालयों में अब जमाना गुटबाजी से गैंगबाजी तक पहुंच गया है। गुटबाजी में थोड़ी मासूमियत बची रहने का एहसास होता था, लेकिन अब बच्चों के साथ गैंग शब्द नत्थी करने का राजनैतिक दौर चल रहा है। इस गैंग युग में बच्चे देख रहे हैं, समझ रहे हैं कि स्कूलों में मॉरल साइंस यानी नैतिकता के जितने पाठ पढ़ाए गए, हकीकत में उनका कितना कम इस्तेमाल किया जा रहा है। बच्चों को अंकों की दौड़ में आंख पर पट्टी बांधे जानवर की तरह दौड़ाया जाता है, उन्हें हांफने की इजाज़त भी नहीं होती, वर्ना वे असफल करार दिए जाते हैं। लेकिन ऊंचे पदों पर बैठे 56 इंची छाती वाले लोग अपनी असली डिग्री दिखाने की हिम्मत भी नहीं करते। कोई उस पर सवाल करे तो उसे जुर्माना भरना पड़ता है। शिक्षा और ज्ञान के अलावा भी डिग्री दूसरे तरीकों से हासिल की जाती है, इस सच को भी बच्चे देख रहे हैं। इसलिए अच्छा है कि उन्हें वर्दी वाला गुंडा ही पढ़ने दिया जाए। कम से कम इससे वे आगे कुंठित होने से बच जाएंगे।
बच्चों की आसानी के लिए अब विश्वविद्यालय के अलावा स्कूली स्तर के पाठ्यक्रम में भी बदलाव किया गया है। मुगलों के इतिहास को स्कूली पाठ्यक्रम से लगभग गायब किया जा रहा है। लोकतंत्र और विविधता, लोकतंत्र और चुनौती जैसे अध्याय नागरिक शास्त्र से हटाए जा रहे हैं। गांधी की हत्या के कारण और हत्यारों के इरादों को किताब से मिटा दिया गया है। भारत का इतिहास और राजनीति इन सबके बिना बन ही नहीं सकता। लेकिन अभी तो नया इतिहास और नयी राजनीति रची जा रही है। जिसमें यही सारी बातें बाधाएं लग रही हैं। इसलिए अभी बाधाओं को हटाने का काम चल रहा है। केवल सड़कों और शहरों के नाम बदलने से देश थोड़ी ना बदल जाएगा। देश तो लोगों के बदलने से बदलेगा। इसलिए नयी रस्सियां बांध कर कठपुतलियां तैयार की जा रही हैं।

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