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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

गुरुवार 6 अप्रैल को संसद भवन के सामने विपक्षी दलों के कई सांसद हाथों में तिरंगा लिए जिस तरह चले जा रहे थे, उस दृश्य को देखकर फिल्मों में दर्शाए गए वे प्रसंग याद आ गए, जिनमें गुलामी से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते देश के लोग हाथों में परचम और होठों पर आजादी के तराने लिए बेखौफ निकल पड़ते हैं। पर्दे पर आजादी के संघर्ष को देखना अलग बात है, यह हमें भारत में अंग्रेजी राज की याद दिलाता है और ये अहसास गहरा करता है कि कितने मुश्किलों से आजादी मिली है। इसके लिए कितने लोगों ने कुर्बानियां दी हैं। लेकिन जिस समय सरकार आजादी के 75 साल को अमृत महोत्सव नाम देकर भव्य आयोजनों में लगी हुई है, उस वक्त विपक्षी सांसदों का तिरंगा लेकर निकलना विचारणीय और चिंतनीय मसला है कि लोकतंत्र को किस हाल में पहुंचा दिया गया है। आज विपक्ष के सांसदों ने संसद से विजय चौक तक जो तिरंगा मार्च निकाला, उसमें यही नारे लगाए कि लोकतंत्र की हत्या बंद करो।
लोकतंत्र हाड़-मांस का कोई जीव नहीं है, लेकिन भारत जैसे देश के लिए लोकतंत्र धड़कनों के समान है। जब तक लोकतंत्र धड़कता रहेगा, देश जीवित रहेगा। और इस धड़कन को प्राणवायु संसद से मिलती है। इसी संसद में देश भर के निर्वाचित प्रतिनिधि साथ में बैठते हैं, बहसें करते हैं, एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, सवाल पूछते हैं, जवाब देते हैं और तमाम तरह के मंथन के बाद विधेयकों को पारित किया जाता है, जिनसे देशहित और जनहित का काम सधता है। लेकिन इस बार बजट सत्र सरकार के अड़ियल रुख के कारण हंगामे की भेंट चढ़ गया। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च नामक थिंक टैंक के अनुसार, इस बार के बजट सत्र में लोकसभा में 133.6 घंटे काम होना था, लेकिन केवल 45 घंटे से थोड़ा ही अधिक कामकाज हुआ जबकि राज्यसभा में 130 घंटे की निर्धारित अवधि के मुकाबले 31 घंटे से थोड़ा ही अधिक कामकाज हुआ। लोकसभा में 34.28 प्रतिशत और राज्यसभा में 24 प्रतिशत ही काम हुआ। बाकी पूरा वक्त शोर-शराबे, विरोध, नारेबाजी में गुजर गया। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने बजट सत्र के दौरान हुए कामकाज का जो ब्यौरा प्रस्तुत किया उसके मुताबिक सदन में आठ विधेयक पेश किए गए और पांच विधेयक पारित हुए हैं। संसद में भाजपा का बहुमत है तो विधेयकों को पारित करने में यूं भी कोई अड़चन नहीं आती, लेकिन सवाल ये है कि इन विधेयकों पर कितनी देर चर्चा की गई और विपक्ष की इसमें कितनी भागीदारी रही। क्योंकि विपक्ष बजट सत्र में लगातार जिस मांग पर अड़ा रहा, उस पर तो सरकार अब भी मौन ही है।
हिंडनबर्ग रिसर्च फर्म की अडानी समूह पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप वाली रिपोर्ट के बाद से विपक्ष सरकार से यही मांग कर रहा है कि इस मसले पर एक संयुक्त संसदीय समिति बनाकर जांच कराई जाए। लेकिन सरकार इसके लिए किसी भी तरह तैयार नहीं हो रही, बल्कि अडानी शब्द के उच्चारण से ही बचती दिख रही है। विपक्ष की मांग के जवाब में सत्तारुढ़ भाजपा के लोग राहुल गांधी के ब्रिटेन में दिए भाषण पर माफी की मांग करते रहे। राहुल गांधी ने माफी तो नहीं मांगी, इस बीच मानहानि मुकदमे में उन्हें सजा हुई और लोकसभा की सदस्यता खत्म कर दी गई। कांग्रेस विरोधियों के लिए बजट सत्र का सबसे बड़ा हासिल शायद यही है कि अब राहुल गांधी संसद में नहीं हैं। लेकिन उन्होंने जो सवाल वहां उठाए थे, वे अब भी अनुत्तरित संसद के गलियारों में गूंज ही रहे हैं। संसद के बाहर भी राहुल गांधी लगभग हर रोज सरकार से अडानी मुद्दे पर सवाल पूछ ही रहे हैं। लोकतंत्र में यह बड़ी अजीब बात लग रही है कि सत्तारुढ़ दल एक ऐसे मुद्दे पर मुंह सिले हुआ है, जिस के बारे में जानना देश के लोगों का हक है।
सरकार के इस अड़ियल रुख के खिलाफ ही आज विपक्षी दलों ने तिरंगा यात्रा निकाली, जिसमें कांग्रेस के साथ द्रमुक, सपा, राजद, राकांपा और वाम दल शामिल हुए। मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस मौके पर कहा कि 12 मिनट में बिना चर्चा के 50 लाख करोड़ रुपये का बजट पास हो गया। अडानी की वज़ह से सत्तारुढ़ दल ने संसद का बजट सत्र नहीं चलने दिया। मोदी सरकार अडानी को बचाने में जुटी है। यही आरोप अन्य विपक्षी दलों के सांसदों ने भी लगाया। श्री खड़गे ने सरकार पर संसद की बर्बादी के लिए जिम्मेदार होने का आरोप लगाते हुए कहा कि मोदी सरकार लोकतंत्र की बात बहुत करती है, लेकिन बात पर अमल नहीं करती। कांग्रेस अध्यक्ष श्री खड़गे ने जो बातें कही हैं वे केवल सियासी आरोप नहीं हैं, बल्कि उनमें जो फिक्र छिपी हुई है, उसे समझने की जरूरत है। लोकतंत्र की बात करना और उसे धरातल पर उतारना दो अलग-अलग बातें हैं। साल-दर-साल हम यही देखते आ रहे हैं कि लोकतांत्रिक अधिकारों की आवाज़ उठाने वालों को सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। आम जनता से लेकर अब विपक्षी नेताओं को भी सरकार के सामने अपनी बात रखने के लिए सड़क पर आना पड़ा है। मदर ऑफ डेमोक्रेसी जैसी बातें भी जुमले में तब्दील होती जा रही हैं, यह दुखद है।
17वीं लोकसभा का 11वां सत्र हंगामे से गुजरता हुआ अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया। विपक्ष के सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष की चाय पीने से इन्कार कर दिया। संसद के एक दिन के कामकाज में करोड़ों रुपए खर्च होते हैं, सोचने की बात है कि संसद ठप्प होने के कारण कितने करोड़ रूपए स्वाहा हो गए। जनता के धन और वक्त दोनों की बर्बादी हो रही है। लेकिन हम आजादी का अमृत चखने में मगन हैं।

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