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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

मध्यप्रदेश के सतना की खबर है कि बुरी तरह कर्ज में डूब गए एक पिता ने पैर खो चुकी अपनी जवान बेटी के इलाज से थककर खुदकुशी कर ली। छह साल पहले यह लडक़ी एक सडक़ हादसे में दोनों पैर से लाचार हो गई थी, और बिस्तर पर ही थी। तीन बच्चों में से इस एक बेटी का इलाज कराते हुए पिता के घर-दुकान बिक गए, और कर्ज चढ़ गया, मकान किराया साल भर से देना नहीं हुआ, पिता ने हाल ही में खून बेचकर खाने और गैस सिलेंडर का इंतजाम किया था, और अब आखिर में उसने इस बेटी को फोन करके कहा कि वह थक गया है, और आत्महत्या कर रहा है। इसके पहले कि लोग उसे ढूंढ पाते, उसने ट्रेन के सामने खुदकुशी कर ली। अब यह कल्पना भी मुश्किल है कि ऐसे पिता के रहते हुए जो घर नहीं चल पा रहा था, तीन बच्चों वाला वह परिवार अब क्या तो इलाज करा पाएगा, और क्या जी पाएगा।

इस मामले को देखकर लगता है कि ईश्वर भी कुछ परिवारों पर अधिक मेहरबान रहता है, और यह वैसा ही एक परिवार है, या शायद यह कहना बेहतर होगा कि था, अब उसे बचा हुआ परिवार क्या माना जाए। और यह उस मध्यप्रदेश की बात है जिसमें तीन बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हर लडक़ी को अपनी भांजी बताते हैं, हर महिला को बहन कहते हैं, और ऐसी निजी रिश्तेदारी बताते हुए ही वे राजनीति करते हैं। उनकी अनगिनत योजनाएं कन्याओं के नाम पर हैं, लेकिन जाहिर है कि किसी हादसे की शिकार ऐसी गंभीर जख्मी लडक़ी के इलाज का कोई सरकारी इंतजाम नहीं रहा होगा, तभी पिता का घर बिक गया, दुकान बिक गई, और कर्ज लद गया। बात थोड़ी अटपटी इसलिए भी है कि आज केन्द्र सरकार और अलग-अलग राज्य सरकारों की बहुत किस्म की इलाज-बीमा योजनाएं हैं जिनके तहत ऐसी लडक़ी का भी इलाज होना चाहिए था, लेकिन अमल में कोई कमी-कमजोरी दिखती है जो कि यह परिवार इलाज और मदद नहीं पा सका।

दुनिया के विकसित देशों में हर किस्म का बीमा रहता है। इलाज के लिए, हादसे से निपटने के लिए, किसी और किस्म के नुकसान की भरपाई के लिए। ऐसा इसलिए भी रहता है कि सरकारें अपने ऊपर मदद करने की बहुत जिम्मेदारी नहीं लेती हैं। मुसीबत में आने पर उससे उबरने को जिंदगी का एक हिस्सा मानकर ही लोगों पर ही यह छोड़ा जाता है कि वे हर तरह का बीमा कराकर रखें। इसीलिए अमरीका जैसे देश में जब तूफान से पूरे के पूरे शहर उजड़ जा रहे हैं, तो सरकार को हर किसी की पूरी मदद नहीं करनी होती, जो कि मुमकिन भी नहीं रहेगी। अब हिन्दुस्तान जैसे देश में यह कल्पना कुछ मुश्किल है कि जिन लोगों का आज खाने-कमाने का ठिकाना नहीं है, वे कई किस्म के बीमे करवाकर रखें। इसके बाद बीमा कंपनियां तो विकसित दुनिया में भी बेईमानी के लिए बदनाम हैं, और उनसे लंबी कानूनी लड़ाई लडऩे की नौबत आते रहती है। इसलिए ब्रिटेन जैसे देश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा एक बड़ा मुद्दा है, और तमाम गरीब और मध्यमवर्गीय लोग उस पर टिके रहते हैं।

हिन्दुस्तान में मुफ्त इलाज के लिए सरकारों ने कई तरह के इंतजाम किए हैं, और अधिकतर लोगों को कुछ या अधिक हद तक उसका फायदा भी मिल जाता है। जहां से ऐसी खबरें आती हैं, उनकी तुरंत जांच संबंधित सरकारों को करवानी चाहिए कि इलाज-बीमे के इंतजाम में क्या कमी रह गई थी, या सरकारी योजना में कहां कमजोरी रह गई है। कल की ही बात है ट्विटर पर ओडिशा की एक तस्वीर आई है जो कि दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने पोस्ट की है। यह एक वीडियो है जिसमें 70 साल की एक बुजुर्ग महिला प्लास्टिक की एक कुर्सी को सामने बढ़ा-बढ़ाकर उसके सहारे से धूप में नंगे पैर चलते हुए बैंक जा रही है। उसे हर बार पेंशन (शायद सामाजिक पेंशन) लेने इसी तरह जाना पड़ता है, और उसके जर्जर बदन को देखें, तो हैरानी होती है कि वह और कितने बार ऐसा सफर कर सकेगी? पेंशन को लेकर चारों तरफ से ऐसी खबरें आती हैं, कुछ सौ रूपये महीने की सामाजिक पेंशन के लिए भी लोगों को ऐसी अमानवीय नौबत से हर महीने गुजरना पड़ता है।

सरकारों में ऐसी संवेदनशीलता होनी चाहिए कि मरीजों, बुजुर्गों, बच्चों, महिलाओं, और विकलांगों की जरूरतों का खास ख्याल रखा जाए। ये गिनती में कम रहते हैं, बहुत संगठित नहीं रहते हैं, अपनी हालत की वजह से ये किसी आंदोलन या प्रदर्शन के लायक भी नहीं रहते हैं, लेकिन सरकार और समाज को इन्हें प्राथमिकता देनी चाहिए। ये दोनों ही खबरें विचलित करती हैं, और ये तकलीफदेह चाहे जितनी हों, ये बहुत अनोखी नहीं हैं, देश में जगह-जगह ऐसी नौबत है, और जहां कहीं अधिकारी-कर्मचारी संवेदनशील होते हैं वहां जरूर हालत बेहतर होती है। हर कुछ महीनों में ऐसी खबरें भी देखने मिलती हैं कि मौत के बाद शव घर ले जाने कोई गाड़ी नहीं मिल पाई तो लोग कंधे पर, या साइकिल पर शव लेकर लंबा-लंबा सफर सडक़ से करते रहे। ऐसी नौबत यह भी साबित करती है कि हिन्दुस्तानी समाज अपने आपको चाहे कितना ही धर्मालु कहे, वह बेरहमी में कम नहीं है। धर्म और बाबाओं के लिए तो लोगों की जेब से रकम निकल जाती है, लेकिन सबसे अधिक जरूरतमंदों के लिए मदद नहीं निकलती। सरकार से परे समाज को भी उस इंसानियत को पाने की कोशिश करनी होगी जिसकी बातें बड़ी-बड़ी होती हैं, लेकिन दर्शन नहीं होते हैं। जो परिवार एक बच्ची के इलाज में सब कुछ बेच चुका था, वह शहर में ही था, और उस शहर में कई संपन्न लोग भी होंगे, लेकिन मौत के पहले तक किसी ने इनके बारे में सोचा नहीं होगा। लोग ईश्वर की पूजा, धार्मिक बाबाओं की सेवा, बड़े-बड़े प्रवचन के बजाय असल जिंदगी के जरूरतमंदों का साथ देने की सोचें, तो शायद बहुत सी जिंदगियां बच सकती हैं।

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