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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

संसद की स्थाई समिति ने कहा है कि देश के सुप्रीम कोर्ट और प्रदेशों के हाईकोर्ट के जजों ने कमजोर तबकों के लोग बहुत कम है। इस समिति ने पिछले पांच बरस में हाईकोर्ट में हुई नियुक्तियों पर गौर करते हुए यह नतीजा निकाला है। अपने निष्कर्ष के लिए समिति ने जो आंकड़े सामने रखे हैं वे सचमुच ही सदमा पहुंचाते हैं। इनके मुताबिक हाईकोर्ट में 76 फीसदी नियुक्तियां सामान्य अनारक्षित वर्ग से हुई है। और यह संख्या बहुत छोटी नहीं है कि कोई गलत तस्वीर बनती हो। पांच बरस में छह सौ से अधिक हाईकोर्ट जज बने हैं जिनमें कुल तीन फीसदी दलित, डेढ़ फीसदी आदिवासी, बारह फीसदी ओबीसी, पांच फीसदी अल्पसंख्यक जज बने। सभी तबकों में मिलाकर कुल 15 फीसदी महिलाएं जज बनी हैं। संसदीय समिति ने यह कहा है कि अदालतों के प्रति तमाम जनता का भरोसा तभी बढ़ सकेगा जब इसमें हाशिए पर रहने वाले तबकों को भी जगह मिले। एक दिलचस्प बात यह भी है कि कमेटी ने यह जानकारी चाही है कि आज हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में काम करने वाले जजों का निजी सामाजिक दर्जा क्या है, शायद इसका मतलब उनकी आर्थिक हैसियत से होगा। कमेटी ने सिफारिश की है कि अगर कोई कानून बदलना पड़े, तो भी उसे बदलकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में कमजोर तबकों, महिलाओं का हिस्सा बढऩा चाहिए। आज इन अदालतों के जजों को छांटने और नियुक्त करने में कोई आरक्षण नहीं है।

यह बात देश के कई समाजशास्त्री, एक्टिविस्ट-जर्नलिस्ट, और बड़े वकील उठाते आए हैं कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जज बनाने की कॉलेजियम प्रणाली सामाजिक न्याय नहीं कर पा रही है। जिस तरह किसी कारोबार में पैसा पैसे को खींचता है, उसी तरह सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम बड़े सीमित दायरे के लोगों से बना है, और वह उसी सीमित दायरे के लोगों को छांटता है, ऐसा कई लोगों का मानना है। वरना क्या वजह हो सकती है कि जब देश और प्रदेश की बड़ी अदालतों में हर जाति और धर्म के वकील सबसे प्रमुख वकीलों में शामिल हैं, जब कई महिला वकील देश की सबसे चर्चित हैं, और जागरूक वकील साबित हो चुकी हैं, तब इन तबकों के लोगों को जजों के लिए क्यों नहीं छांटा जा सकता? जब किसी के दिल या दिमाग का ऑपरेशन करने वाले सर्जन भी आरक्षित तबके से आ सकते हैं, और लोग अल्पसंख्यक सर्जनों के हाथ में भी अपनी जिंदगी देते हैं, तो फिर ऐसे तबकों से जज क्यों नहीं आ सकते? किसी नाजुक सर्जरी के बाद तो अदालती पुनर्विचार याचिका जैसी कोई गुंजाइश भी नहीं रहती है, सर्जन सर्जरी के दौरान पहले और आखिरी जान बचाने वाले हो सकते हैं, लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी कभी डॉक्टरी की पढ़ाई में आरक्षण का विरोध नहीं किया। जब अपने साथी जजों को चुनने की बारी आती है, तो सुप्रीम कोर्ट के जज आरक्षण के खिलाफ हो जाते हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि देश का प्रशासन चलाने वाले लोग, बड़े पुलिस अफसर, आईआईटी से निकलने वाले बड़े इंजीनियरों के हाथों में जिस तरह लाखों लोगों की जिंदगी रहती है, वैसे में अदालती कामकाज में ऐसा और क्या खतरा रहता है कि जजों में आरक्षण नहीं किया जा सकता? आज भी बहुत से अदालतों के जज जिस किस्म के फैसले देते हैं, उन्हें देखते हुए समझ आता है कि वे कितने इंसाफपसंद हैं। राहुल गांधी की अपील खारिज करने वाले गुजरात हाईकोर्ट के जज के बाकी फैसलों को भी देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने अभी-अभी हैरानी जाहिर की थी, और अभी कई अदालतों के कई जजों के जो ट्रांसफर हुए हैं, उनमें गुजरात हाईकोर्ट का यह जज भी शामिल है। इसलिए बिना आरक्षण अधिकतर अनारक्षित और सामान्य वर्ग के जो जज अदालतों पर काबिज हैं, उनकी सोच और समझ, दोनों के सुबूत बीच-बीच में सामने आते रहते हैं।

अब हम संसदीय समिति के उठाए हुए एक और मुद्दे पर आना चाहते हैं कि बड़ी अदालतों के इन जजों की अपनी सामाजिक स्थिति क्या है। पहली बात तो यह जाहिर है कि अपनी तनख्वाह और बाकी सहूलियतों की वजह से ये जज देश में सबसे ऊपर के एक फीसदी लोगों में आते हैं, और उनके और नीचे के पचास फीसदी लोगों के बीच समंदर सा चौड़ा फासला रहता है। शायद यह भी एक वजह है कि जब साम्प्रदायिक पैमानों पर सरकारी बुलडोजर गरीब अल्पसंख्यक तबके के जीने-खाने के जरिए को गिराते चलते हैं, तो उसकी तकलीफ सुप्रीम कोर्ट जजों को दिखाई नहीं पड़ती। शायद उनके बंगलों से अदालत तक के रास्तों पर ऐसी बस्तियां पड़ती भी नहीं होंगी, और इन जजों में से किसी ने ऐसे रोज कमाने-खाने वाले इंसानों के घर और दुकान नाम के टपरे देखे भी नहीं होंगे। ऐसा भी नहीं कि जज अकेले हैं, संसद और विधानसभाओं का हाल भी यही है कि वहां पहुंचे हुए लोगों में अरबपति और करोड़पति बढ़ते जा रहे हैं, वे सहूलियतों में जी रहे हैं, और गरीबी से कुछ हद तक कट रहे हैं, फिर भी पांच बरस में एक बार वोटों के चक्कर में उन्हें गरीब बस्तियों को देखना होता है जो कि जजों के साथ नहीं होता। हमारा तो यह भी ख्याल है कि जिस तरह आईएएस बनने पर प्रशिक्षण के दौरान ही नौजवान अफसरों को भारत दर्शन के लिए ले जाया जाता है, किसी को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने पर उन्हें भी देश के सबसे कमजोर तबकों की हकीकत तक सैलानी बनाकर ले जाना चाहिए, ताकि अदालती सुनवाई और फैसले के वक्त उन्हें देश की जमीनी हकीकत का अंदाज रहे।

हम जजों से लेकर सांसदों तक कुछ और बातों को भी देखते आए हैं जो कि परेशान करती हैं। इन लोगों ने अलग-अलग ऐसे फैसले लिए हैं जिनसे देश में दलित और आदिवासी आरक्षित तबकों के भीतर क्रीमीलेयर लागू नहीं हो पाई। आज इन तबकों के सबसे कमजोर लोगों तक आरक्षण का फायदा पहुंचाना है, तो वह तभी मुमकिन है जब सांसद और विधायक बने हुए, जज और आईएएस-आईपीएस बने हुए, एक सीमा से अधिक संपन्न हो चुके दलित-आदिवासी परिवारों को आरक्षण के फायदों से बाहर किया जाए। ऐसा न होने पर इस आरक्षण के हर अवसर को, हर संभावना को यही मलाईदार तबका बार-बार पाते रहता है, और इस तबके के मुकाबले इनकी बिरादरी के नीचे के लोगों की कोई गुंजाइश ही कभी नहीं निकलती। चूंकि दलित-आदिवासियों के बीच मलाईदार तबके को आरक्षण से बाहर करने पर इन आरक्षित तबकों के तमाम सांसदों, नौकरशाहों, और जजों के बच्चे बाहर हो जाएंगे, इसलिए इनका एक संकुचित स्वार्थ है कि ओबीसी जैसी मलाईदार तबके की सीमा इन पर लागू न हों। हकीकत यह है कि इन तबकों की आबादी के मुकाबले पढ़ाई और नौकरी के मौके एक फीसदी भी नहीं रहते, और 99 फीसदी लोग तो कभी भी स्कूल-कॉलेज या नौकरी नहीं पाते। ऐसे में जो लोग एक बार बड़ा फायदा पा चुके हैं, ताकतवर हो चुके हैं, उनके परिवारों को बाहर करने पर भी दलित और आदिवासी समुदाय से बेइंसाफी नहीं होती, बल्कि उन्हीं समुदायों के अधिक कमजोर और अधिक जरूरतमंद लोगों के लिए भी एक मौका मिलता है। लेकिन फैसला लेने की कुर्सियों पर बैठे लोग अपने वर्गहित के खिलाफ जाना नहीं चाहते, इसलिए वे अपने वर्णहित के खिलाफ काम करते हैं, और गरीब दलित-आदिवासी को मौकों से दूर रखते हैं।

इस हिसाब से हम संसदीय समिति की इस बात से सहमत हैं कि बड़े जजों की निजी सामाजिक हैसियत का एक अध्ययन होना चाहिए। आज हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम अगर बाबा साहब अंबेडकर को भी जज न बनाना तय कर लेता, तो वे किसी तरह से अपनी काबिलीयत साबित नहीं कर पाते। 140 करोड़ की आबादी में अगर सुप्रीम कोर्ट को अपने तीन दर्जन से कम जजों, और 1200 से कम हाईकोर्ट जजों में से आरक्षण की गिनती के लायक भी वकील आरक्षित तबकों से नहीं मिलते हैं, तो यह कोई मासूम नौबत नहीं है। हमारा मानना है कि महिला आरक्षण सहित बाकी तमाम किस्म के आरक्षण अनिवार्य रूप से लागू होने चाहिए, तो उससे सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम भी देश की हकीकत के मुताबिक बनेगा।

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