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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार।।

भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ बंगाल के राज्यपाल के रूप में ममता बैनर्जी सरकार के खिलाफ अभियान चलाने वाले एक आंदोलनकारी की तरह बरसों जुटे रहे। अब वे उपराष्ट्रपति हो गए हैं, तो इस हैसियत से वे राज्यसभा के उपसभापति रहते हैं, और वहां उन्हें बोलने का मौका कोलकाता के राजभवन के मुकाबले काफी अधिक मिल रहा है। लेकिन राज्यसभा से परे भी वे सार्वजनिक रूप से बहुत से मुद्दों पर अपनी राय रखते रहते हैं। अभी उन्होंने संसद और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों के एक सम्मेलन में कहा कि संसद के बनाए कानून को किसी आधार पर अगर अदालत खारिज करती है तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होगा। उन्होंने बहुत खुलासे से सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि संसद सबसे ऊपर है, और किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जनमत की प्रधानता ही उसके मूल ढांचे का आधार है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका या कार्यपालिका संसद में कानून बनाने, या संविधान संशोधन करने की ताकत को नामंजूर नहीं कर सकतीं। उन्होंने 1973 के सुप्रीम कोर्ट के एक बहुत ही चर्चित केशवानंद भारती मामले की चर्चा करते हुए कहा कि इस फैसले ने गलत मिसाल पेश की है, और अगर कोई भी संस्था संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर सवाल उठाती है, तो यह कहना मुश्किल होगा कि हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं। सुप्रीम कोर्ट का इतिहास बताता है कि केरल सरकार के खिलाफ केशवानंद भारती के मामले में 13 जजों की बेंच के सामने देश के एक सबसे बड़े वकील नानी पालखीवाला ने जिरह की थी, और सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि संविधान में संशोधन तो किया जा सकता है, लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता। केशवानंद भारती केस पर इस फैसले की वजह से इस मामले को संविधान का रक्षक कहा जाता है।

अब इस पर लिखने की अधिक जरूरत इसलिए है कि उपराष्ट्रपति के न्यायपालिका पर हमले के एक पखवाड़े के भीतर ही, मानो उन्हें जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने इसी फैसले को अभूतपूर्व बताया, और कहा कि संविधान को समझने और उसे लागू करने के मामले में यह फैसला एक ध्रुव-तारे की तरह जजों को रास्ता दिखाता है। उन्होंने बॉम्बे बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित पालखीवाला स्मृति व्याख्यान माला में कहा कि बदलते वक्त में जज संविधान में लिखी बातों की व्याख्या करते हैं, और केशवानंद भारती मामले में दिया गया फैसला भारतीय संविधान की आत्मा को बनाए रखने में मदद करता है। उन्होंने कहा कि 1973 की फैसला सफलता की ऐसी दुलर्भ कहानी है जिसका भारत के पड़ोसी देशों, नेपाल, बांग्लादेश, और पाकिस्तान ने भी अनुकरण किया। उन्होंने कहा कि जब जजों के सामने एक जटिल रास्ता होता है उस वक्त हमारे संविधान की मूल संरचना एक तारे की तरह इसकी व्याख्या करने वालों, और इस पर अमल करने वालों को एक दिशा देती है, और उनका मार्गदर्शन करती है।

यह मामला हिन्दुस्तान के संविधान के तहत सरकारों की कानून बनाने और संविधान संशोधन करने की ताकत को सबसे बड़ी चुनौती था। मामला केरल से जुड़ा था लेकिन जब इस मामले पर फैसला आया तो इसने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी विचलित किया था। और 13 जजों की बेंच में से असहमति रखने वाले एक जज अजीतनाथ रे को फैसले से सहमति रखने वाले तीन सीनियर जजों के ऊपर ले जाकर भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। यह अपने आपमें एक अनोखा मामला था जब न्यायपालिका में इस तरह मनमानी से किसी को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। केशवानंद भारती का यह मामला इस मामले में भी अनोखा था कि 13 जजों में से 9 जजों ने तो फैसले पर दस्तखत किए थे, लेकिन 4 जजों ने इस पर दस्तखत भी नहीं किया था।

लेकिन आज इस मुद्दे पर यहां लिखने का मकसद 1973 के उस ऐतिहासिक मामले और फैसले की चर्चा करना नहीं है। हमने उसकी चर्चा सिर्फ एक प्रसंग के रूप में की है जिसे लेकर आज सरकार के मनोनीत उपराष्ट्रपति, और देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़़ के बीच एक अघोषित बहस छिड़ी है। सुप्रीम कोर्ट में 13 जजों से बड़ी कोई बेंच आज तक बनी नहीं है। ऐसे में यह कल्पना नहीं की जा सकती कि केन्द्र सरकार की तमाम हसरत के बावजूद संविधान की मूल संरचना को बदलना आसानी से मुमकिन होगा। बार-बार ऐसा लगता है कि मोदी सरकार संविधान की कुछ बुनियादी बातों को बदलना चाहती है, लेकिन संसद में अपार बहुमत होते हुए भी, अधिकतर राज्यों में बहुमत होते हुए भी ऐसा कोई संशोधन उसके लिए आज मुमकिन नहीं दिख रहा है क्योंकि 14 जजों की संविधानपीठ के 1973 के फैसले को पार पाना आसान नहीं है। सिर्फ संसद और विधानसभाओं से यह बुनियादी फेरबदल शायद नहीं किया जा सकेगा।

हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की यह एक खूबी है कि लोकसभा और राज्यसभा में अलग-अलग पार्टियों या गठबंधनों के बहुमत होने का एक इतिहास रहा है। केन्द्र और राज्यों में ऐसी ही अलग-अलग सरकारों का इतिहास रहा है। न्यायपालिका में कार्यपालिका या विधायिका से असहमति का एक इतिहास रहा है। यही वजह थी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा के चुनाव को अवैध ठहराया था, बाद में आपातकाल से जुड़े हुए कुछ संविधान संशोधनों को खारिज किया गया था, और सुप्रीम कोर्ट और संसद के बीच असहमत होने पर सहमति का एक रिश्ता बना हुआ था। लोगों को याद होगा कि एक अभूतपूर्व संसदीय बाहुबल के चलते प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले को संविधान संशोधन करके खारिज कर दिया था। लेकिन पिछले कुछ महीनों से केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो तनातनी सार्वजनिक रूप से बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए यह सोचने की जरूरत लग रही है कि अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा छांटे गए जजों के नामों को मंजूरी देने के अधिकार को केन्द्र सरकार एक रणनीति की तरह इस्तेमाल करेगी, तो हो सकता है कि धीरे-धीरे करके सुप्रीम कोर्ट में वह अपनी सोच से सहमति रखने वाले जजों का बहुमत बनाने में कामयाब हो जाए। ऐसा दिन देश के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि आपातकाल में इंदिरा गांधी की ओर से प्रतिबद्ध न्यायपालिका का एक नारा दिया गया था, और वह अगर कामयाब हो जाता, तो देश में संसदीय लोकतंत्र के बजाय महज सरकारी लोकतंत्र रह जाता।

देश के कानूनी समझ रखने वाले तबके को इन बातों को गौर से देखना चाहिए, और देश की आज की नाजुक जरूरतों पर, आगे खड़े हुए खतरों पर भी गौर करना चाहिए। ऐसी संवैधानिक जटिलताएं कोई लुभावना चुनावी नारा तो नहीं बन सकतीं, लेकिन विचार गढऩे वाले तबकों में से कुछ लोग तो इस मुद्दे को समझ सकते हैं, और देश के व्यापक लोकतंत्र के हित में बाकी जनता के लिए इस रहस्य को सुलझाने की कोशिश कर सकते हैं।

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