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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

क्रिकेट वर्ल्ड कप के फाइनल मैच में अपने नाम के स्टेडियम पहुंचने वाले नरेन्द्र मोदी को हार के लिए जिम्मेदार अपशकुनी करार देते हुए कांग्रेस के बाकी लोगों के साथ-साथ राहुल गांधी भी जुट गए हैं। उन्होंने बिना नाम लिए कहा कि वहां अच्छा-भला हमारे लडक़े वर्ल्ड कप जीत जाते, लेकिन पनौती ने हरवा दिया। कांग्रेस समर्थक और मोदी विरोधी लगातार इस कम प्रचलित शब्द पनौती को लेकर मोदी पर टूटे पड़े हैं। राजनीति में यह सबसे ओछी जुबान नहीं है, और अपनी अनगिनत चुनावी सभाओं में भाषा को पाताललोक तक ले जाने वाले मोदी को कई लोग ऐसे शब्दों का ही हकदार करार दे सकते हैं। लेकिन हमारा सोचना है कि किसी की ओछी जुबान के जवाब में ओछी जुबान का इस्तेमाल ही अकेला विकल्प नहीं होता है। किसी की घटिया और गंदी जुबान का जवाब अगर साफ-सुथरी भाषा में तर्क और तथ्यों के साथ दिया जाए, तो लोग उससे प्रभावित भी होते हैं, और इस फर्क को महसूस भी करते हैं कि गंदी जुबान के जवाब में भी किसने अपने पर, अपनी जुबान पर काबू बना रखा। और जहां तक ओछी जुबान के मुकाबले की बात है, तो हिन्दुस्तान में हर चुनाव इसका वर्ल्ड कप होता है, और चुनावी सभाओं का घटियापन लोगों को पहले की तरह हक्का-बक्का तो नहीं करता है, लेकिन नए रिकॉर्ड जरूर कायम करता है।

मोदी ने घटिया जुबान और घटिया मिसालों के ऐसे रिकॉर्ड बनाए हुए हैं कि उनके खिलाफ जब ओछी जुबान बोली जाती है, तो लोग उसे भी ठीक करार देते हैं। लेकिन जैसा कि गांधी ने कहा था आंख के बदले आंख का मतलब पूरी दुनिया का अंधा हो जाना होगा, उसी तरह जुबानी गंदगी के मुकाबले जुबानी गंदगी का मतलब चारों तरफ गंदगी फैला देने के अलावा और कुछ नहीं होगा। और जब गंदगी के मैच में दोनों तरफ से गेंदों से छेडख़ानी होती है, तो फिर किसी पर तोहमत नहीं लग सकती, और गंदगी नवसामान्य हो जाती है। हिन्दुस्तान के चुनाव में यही हो रहा है। आज जब हमारे सरीखे लोग कांग्रेस जैसी पार्टी के नेताओं की भाषा में पनौती जैसे अपशकुन बताने वाले शब्दों का विरोध कर रहे हैं, तो कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता भी टूट पड़ रहे हैं कि जब मोदी ने और भाजपा के दूसरे नेताओं ने इससे हजार गुना गंदी जुबान इस्तेमाल की थी, तब पत्रकार कहां थे? जो लोग गंदगी फेंकने के मुकाबले का मजा ले रहे हैं, उनसे तो हम कुछ नहीं कह सकते, लेकिन जो कांग्रेस के इतिहासकार रहेंगे, वे तो इस बात को दर्ज करेंगे कि नेहरू जैसी वैज्ञानिक सोच वाले देश के एक महानतम नेता की पार्टी आज पनौती जैसे शब्द का इस्तेमाल करके देश में अंधविश्वास को भी बढ़ा रही है। अपशकुनी अपने आपमें कांग्रेस की विधवा, जर्सी नस्ल के बछड़े, सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड जितना ओछा शब्द नहीं है, लेकिन यह शब्द देश की उस वैज्ञानिक सोच के खिलाफ हैं जिसे नेहरू ने बहुत मेहनत से अपनी पूरी जिंदगी लगाकर हिन्दुस्तान में फैलाने की कोशिश की थी, और काफी हद तक कामयाबी भी पाई थी। आज सोशल मीडिया में प्रचलित और आम घटिया और ओछी जुबान को नवसामान्य मानकर अगर कांग्रेस के राहुल जितने बड़े नेता भी उसका इस्तेमाल करेंगे, देश में अंधविश्वास फैलाएंगे, तो फिर उनकी पार्टी मोदी की किसी जुबान के लिए उन पर क्या तोहमत लगा सकेगी?

हमारा ख्याल है कि चुनावी मंच से भाषण हों, संसद के भीतर कही गई बात हो, या सोशल मीडिया पर लिखी गई पोस्ट हो, अगर आप गालियों या घटिया भाषा पर उतर आते हैं, तो उसका यही मतलब होता है कि आपके पास तथ्य और तर्क चुक गए हैं। जब लोगों के पास वजनदार बातें नहीं बचतीं, तो वे हल्की गालियों पर उतर आते हैं। लेकिन याद रखना चाहिए कि ऐसी जुबान का निशाना जिस पर रहता है, उनको चोट पहुंचे या न पहुंचे, ऐसी भाषा बोलने और लिखने वाले की साख को पहले ही चोट पहुंच जाती है। सोशल मीडिया ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो घटिया जुबान बोलते हैं, घटिया बातें बोलते हैं, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि वे भीड़ की वाहवाही तो पा सकते हैं, लोगों के विचारों को प्रभावित नहीं कर सकते। ऐसी भाषा चुनावी सभाओं के काम की हो सकती है जहां पर जनता फूड पैकेट की गंदगी, और नेता जुबान की गंदगी छोडक़र चले जाते हैं, लेकिन जिन नेताओं को अपनी साख की फिक्र हो, उन्हें अपनी भाषा और अपनी बातें न्यायसंगत और तर्कसंगत रखनी चाहिए। हम किसी भी हिंसक और अश्लील मुकाबले में भरोसा नहीं रखते। गैरजिम्मेदार लोगों के बीच गालियों के जो मुकाबले चलते हैं, उनमें सबसे हिंसक और सबसे अश्लील लोग विजेता रहते हैं, लेकिन वे साख का मैडल नहीं पाते। यह तो भारतीय लोकतंत्र और राजनीति में पार्टियों और उनके नेताओं को तय करना है कि वे अधिक भारी-भरकम गाली देने के लिए महिलाओं की मिसालें दें, गरीबों को गाली बकें, अवैज्ञानिक और अन्यायपूर्ण बातें करें, या फिर अपनी साख कायम रखकर राजनीति की लंबी पारी खेलें। यह लोगों को खुद ही तय करना होगा। हमने अपने इस अखबार में और इससे जुड़े हुए दूसरे माध्यमों में हिंसा और अश्लीलता का इस्तेमाल नहीं किया, और जो चाहा वह लिखने और कहने में कभी शब्दों की कमी भी नहीं पड़ी। जिनका भाषा ज्ञान कमजोर होता है, जिनके सामाजिक सरोकार कम रहते हैं, जिनके राजनीति या सार्वजनिक जीवन में कोई आदर्श नहीं रहते हैं, वे लोग कई किस्म की घटिया जुबान बोलते हैं, घटिया सोच सामने रखते हैं। उनसे मुकाबले की हसरत रखने वालों के लिए हमारे पास कोई सलाह नहीं है, लेकिन हमारे पास देश के बच्चों और नौजवान पीढ़ी के लिए यह सलाह जरूर है कि भाषा अपने शिक्षकों से ही सीखें, इस देश के नेताओं से नहीं।
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