-सुनील कुमार॥
केन्द्र सरकार ने अभी संसद के एक जवाब में बताया है कि 2018 से 2023 के बीच, तकरीबन पांच बरस में देश के उच्च न्यायालयों में किन तबकों के कितने जज नियुक्त किए गए। यह जवाब खासकर उन आंकड़ों को लेकर चौंकाता है, जो कि दलित, आदिवासी, ओबीसी, और अल्पसंख्यक तबकों के हैं। इन बरसों में कुल 650 हाईकोर्ट जज बनाए गए, जिनमें से अनुसूचित जाति के 23 थे (आबादी 20 फीसदी), अनुसूचित जनजाति के 10 थे (आबादी 9 फीसदी), ओबीसी के 76 थे (आबादी 41 फीसदी), और अल्पसंख्यक 36 थे (आबादी 19-20 फीसदी)। 13 जज ऐसे भी थे जिनके बारे में यह जानकारी उपलब्ध नहीं है। अनारक्षित वर्ग के 492 जज बने, जिसकी आबादी 30 फीसदी है। बहुत बारीकी से इन आंकड़ों को न देखें, तो भी यह समझ आता है कि 70 फीसदी आबादी से 30 फीसदी से भी कम जज बने हैं, और 30 फीसदी आबादी से 70 फीसदी जज।
हिन्दुस्तान में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए कोई आरक्षण नहीं है। इस बारे में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में इस व्यवस्था का जमकर विरोध किया था, और कहा था कि आज की व्यवस्था से सामाजिक न्याय की जरूरत पूरी नहीं होती है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि ऊंची अदालतों के अधिकतर जज उन्हीं तबकों से आते हैं जिन तबकों में सदियों से सामाजिक पूर्वाग्रह चले आ रहा है। यह भी कहा गया था कि अपने वर्गहित में इन जजों के लिए पूरी ईमानदारी बरतना, और सही फैसले देना मुमकिन नहीं रहता है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि धर्म और जाति को लेकर समाज का पूर्वाग्रह तो भारत के कानून में भी है जिसमें कि कई जातियों को तरह-तरह से अपराधी बताया गया है। इस रिपोर्ट में मद्रास हाईकोर्ट के एक दलित जज के मामले का भी जिक्र है कि उनके जैसे ओहदे पर पहुंचे हुए व्यक्ति को भी ऊंची कही जाने वाली जातियों के साथी जजों के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के 17 दलित आदिवासी जिला जजों का केस भी गिनाया गया था जिन्हें कि 5 से 10 बरस की बची हुई नौकरी के वक्त, हाईकोर्ट जज बनने की संभावना के वक्त, बिना कोई जायज वजह बताए नौकरी से हटा दिया गया था।
बीच-बीच में कई बड़ी अदालतों के जजों के फैसलों में ऐसी टिप्पणियां सामने आती हैं, और अदालती कार्रवाई के बीच उनकी जुबानी टिप्पणियां तो आती ही रहती हैं जो कि उनके जातिगत पूर्वाग्रह बताती हैं। फिर सुप्रीम कोर्ट के कई बड़े वकील लगातार इस बात को उठाते आए हैं कि किस तरह जजों के नामों की सिफारिश करने वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के जज अपनी ही जातियों या कुनबों के लोगों को आगे बढ़ाते हैं। इस बात में कुछ नया नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के सामने, उनके करीबी वकीलों के साथ बेहतर बर्ताव की तोहमत लगती है। अंकल जज का यह सिलसिला कुनबापरस्ती और जातिवाद पर टिका हुआ कहा जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश में बड़े से बड़े पुल बनाने वाले इंजीनियर आरक्षण की व्यवस्था से ही निकलकर आए रहते हैं, बड़े से बड़े डॉक्टर आरक्षण के तहत ऊपर पहुंचे रहते हैं, देश में शायद ही कोई ऐसा मेडिकल सुपर स्पेशलाइजेशन हो जिसमें अल्पसंख्यक तबकों के डॉक्टर न हों, तो फिर बड़ी अदालतों में ही ऐसा कौन सा ईश्वर का इंसाफ करना होता है जिसे कि आरक्षित जातियों या अल्पसंख्यकों से आए जज नहीं कर सकते? यह पूरा सिलसिला बेइंसाफी का है, और सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत है। अदालतों को समाज के भीतर रहते हुए भी समाज से ऊपर रहने की अपनी सोच खत्म करनी चाहिए। इस देश में संविधान बनाने में जिन लोगों का सबसे बड़ा योगदान था, वे भीमराव अंबेडकर दलित समाज से ही आए थे, और दलितों के साथ बेइंसाफी के एक बड़े प्रतीक भी थे। अब 140 करोड़ आबादी के इस देश में आजादी के पौन सदी बाद भी अगर यह माना जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के तीन दर्जन से कम जजों के लिए आरक्षित तबके के लोग नहीं मिलेंगे, तो इस समाज व्यवस्था को चकनाचूर करने के लिए हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण लागू करना जरूरी है। जब तक यह आरक्षण लागू नहीं होगा, तब तक अपने आपको कुलीन तबकों का प्रतिनिधि मानने वाले, ऊंची कही जाने वाली जातियों के जज नए जजों के नाम तय करते वक्त इसी तरह की बेइंसाफी करते रहेंगे।
जब देश में चलने वाले कानून के बड़े-बड़े कोर्स में आरक्षण हैं, निचली अदालतों में नियुक्तियों में आरक्षण हैं, तो हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट को किसी पवित्र ग्रंथ की तरह दलित-आदिवासियों की पहुंच से परे रखना अपने आपमें अलोकतांत्रिक, अमानवीय, और अन्याय है। सुप्रीम कोर्ट जजों में इस तरह की सोच बड़ी निराशा पैदा करती है, और उन्हें इस बेइंसाफी को खत्म करने के लिए अगर कोई रास्ता नहीं सूझता है, तो फिर देश की संसद को इस अदालती मनमानी को खत्म करने के लिए कानून बनाना चाहिए।