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-सुनील कुमार।।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने दो महीने से अधिक का सफर तय कर लिया है और वह अब तक आधा दर्जन राज्यों से गुजर चुकी है। इसके बाद आधा दर्जन से अधिक राज्य और दो महीने से अधिक का वक्त अभी बाकी है। कुल मिलाकर 3570 किलोमीटर पैदल चलकर यह यात्रा कन्याकुमारी से कश्मीर पहुंचेगी और इसे औपचारिक रूप से तो कांग्रेस पार्टी ने शुरू किया है लेकिन यह मोटेतौर पर साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीतिक दलों, और गैरराजनीतिक लोगों की एक मिलीजुली कोशिश हो रही है। कांग्रेस ने इसे देश में कट्टरता और नफरत की राजनीति से लडऩे की एक मुहिम बनाया है, और मोटेतौर पर यह राहुल गांधी की अकेले की कोशिश की तरह शोहरत पा रही है। राहुल ने किसी तरह से अपने को कांग्रेस के ऊपर लादने की कोशिश नहीं की है, लेकिन उनके व्यक्तित्व की शोहरत ने कांग्रेस को अपने आप इस यात्रा में पीछे कर दिया है, इस यात्रा के मुखिया ही इस मकसद के झंडाबरदार की तरह उभरकर सामने आए हैं। दिलचस्प बात यह है कि बहुत से राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस की एक और नासमझी बता रहे हैं क्योंकि जब हिमाचल और गुजरात में चुनाव हैं, तब यह यात्रा उन प्रदेशों से दूर चल रही है, और राहुल गांधी इन प्रदेशों में चुनाव प्रचार से अलग भी हैं। वे इस यात्रा में भी कांग्रेस को एक पार्टी की तरह बढ़ावा देने के बजाय, यात्रा के मकसद पर टिके हुए हैं, और शायद यह एक बड़ी वजह है कि इसे शोहरत मिल रही है। ऐसा भी नहीं है कि हिमाचल और गुजरात में दोनों में ही कांग्रेस की संभावनाएं शून्य देखते हुए यह यात्रा, और राहुल गांधी, इसके चुनावी इस्तेमाल से दूर हैं। सच तो यह है कि हिमाचल में कांग्रेस भाजपा के मुकाबले टक्कर देते दिख रही है, और वहां तो इस यात्रा का कोई चुनावी इस्तेमाल हो सकता था, लेकिन कांग्रेस के भीतर कुछ लोगों की समझदारी अभी बची हुई है जो भारत के जोडऩे के इसके मकसद को किसी राज्य के चुनावी नफे से ऊपर लेकर चल रही है।

राहुल गांधी की रोजाना कई तस्वीरें उनके सोशल मीडिया पेज पर सामने आती हैं, और इस यात्रा में उनके साथ चलने वाले बहुत से गैरकांग्रेसी लोग, गैरराजनीतिक लोग, और दूसरी पार्टियों के लोग भी उन तस्वीरों को आगे बढ़ा रहे हैं। मोटेतौर पर आज यहां लिखने की वजह 65 दिनों से अधिक तक रोजाना ही राहुल की कई तस्वीरों को देखना है। इन तस्वीरों में उनका एक अलग ही व्यक्तित्व उभरकर सामने आया है जो कि राजनीति से परे का है, और राह चलते साथ आने वाले लोगों को सचमुच ही भारत जोड़ो की तरह जोडऩे वाला है। जिस तरह से शहर, गांव, कस्बों में औरत, बच्चे, लड़कियां, बूढ़े, मजदूर दौड़-दौडक़र उनके साथ कुछ दूरी तक पैदल चलने की कोशिश कर रहे हैं, वह देखने लायक है। आज का वक्त कांग्रेस के लिए बहुत निराशा का दौर है क्योंकि इस पार्टी ने पिछले कई चुनावों में महज खोया ही खोया है। और कुछ हफ्ते पहले तक इस पार्टी की जवाबदारी राहुल और उनकी मां पर ही थी। ऐसे निराशा के दौर में देश की आज की नंबर एक की सबसे बुनियादी जरूरत को लेकर राहुल गांधी अगर इतने लंबे सफर पर निकले हैं, तो यह खुद के सामने रखी गई एक अभूतपूर्व और अनोखी चुनौती भी है। जिस तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारों को कल सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जेल से छोड़ा गया है, उसी तमिलनाडु में अपना पिता खोने वाले राहुल गांधी वहां से पैदल चलकर, लगभग बिना किसी हिफाजत के, जनसैलाब से घिरे हुए निकलकर दूसरे प्रदेशों में पहुंचे हैं, वह देखने लायक है। जहां देश के बड़े से लेकर छोटे-छोटे नेताओं तक को अपनी हिफाजत के इंतजाम की दीवानगी रहती है, वहां पर राहुल गांधी जिस बेफिक्री से राह चलते लोगों से मिल रहे हैं, उनकी मोहब्बत का जवाब दे रहे हैं, बच्चों से लेकर बड़ों तक को लिपटा रहे हैं, वह बेफिक्री और वह इंसानियत देखने लायक है। देखने लायक इसलिए भी है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में यह आमतौर पर देखने नहीं मिलती है। किसी नेता की जिंदगी के किसी एक दिन में घंटे भर अगर यह दिख भी जाए, तो भी वह बड़ी बात रहती है, और राहुल महीनों से इसी जिंदगी को जी रहे हैं, और देश के सबसे बड़े अभिनेता भी इतने महीनों तक चेहरे पर मासूम मुस्कुराहट लिए हुए, बिना थके हुए, बिना बौखलाए और चिढ़े हुए, बिना नफरत बिखेरे हुए नहीं चल सकते। आज जहां हिन्दुस्तानी राजनीति में लोग एक दिन में कई-कई बार भारत तोडऩे की कोशिश करते हैं, नफरत का सैलाब छोडऩे की कोशिश करते हैं, जहां लोगों का दिन नफरत की बातों के बिना गुजरता नहीं है, लोगों को नफरत का लावा फैलाए बिना रात नींद नहीं आती, वहां पर एक आदमी (भारतीय राजनीतिक भाषा में नौजवान), लगातार महीनों तक अगर सिर्फ जोडऩे की बात और काम कर रहा है, महज मोहब्बत बिखरा रहा है, और हर किसी की मोहब्बत को बांहों में भर रहा है, तो यह भारतीय राजनीति में इंसानियत का एक नया दौर है। और सोशल मीडिया पर अनगिनत लोग, अमूमन ऐसे लोग जो कि कांग्रेसी नहीं हैं, वे अगर राहुल गांधी पर फिदा हो रहे हैं, तो यह छोटी बात नहीं है। आज के दौर में तो लोग नेताओं से नफरत बहुत आसानी से कर सकते हैं, मोहब्बत किसी से करने की गुंजाइश नहीं रहती।

राहुल गांधी के ये महीने किसी भी चुनावी पैमानों पर नापने से परे के हैं, वे कांग्रेस के भी एक पार्टी की तरह काम से परे के हैं। यह हिन्दुस्तान के लोगों को इतने करीब से, पैदल चलते हुए, उनके हाथ थामे उनसे बातें करते हुए, उनके कांधों पर हाथ रखे उनकी आंखों में झांकते हुए इस मुल्क को इतने भीतर से देखने का एक नया सिलसिला है, आज के नेताओं के बीच तो यह अनोखा है ही, हिन्दुस्तान के इतिहास में भी यह अपनी किस्म की एक सबसे लंबी कोशिश है, और यह अपने अब तक की शक्ल में एक नया इतिहास गढ़ते दिख रही है। जहां वोट पाने का कोई मकसद ठीक सामने खड़ा न हो, जहां कोई चुनाव प्रचार न हो, और जहां देश को जोडऩे के लिए मोहब्बत की बातें की जाएं, वह पूरा सिलसिला नफरत का सैलाब फैलाने के मुकाबले कम नाटकीय तो लगेगा ही, कम सनसनीखेज भी लगेगा, इस पर तालियां भी कम बजेंगीं, और वोटरों को उस हद तक रूझाया नहीं जा सकेगा, जिस हद तक नफरत उन्हें अपनी तरफ खींच सकती है, लेकिन यह देश को जोडऩे की एक कोशिश जरूर है। यह ऐसी कोशिश है जिसने प्रशांत भूषण सरीखे उन जागरूक लोगों को भी अपनी तरफ खींचा है जो कि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार को गिराने के दौर में एक प्रमुख आंदोलनकारी थे, आज उन्हें भी देश को जोडऩा अधिक जरूरी लग रहा है, और इसलिए वे कांग्रेस में न रहते हुए भी, कांग्रेस के समर्थक भी नहीं रहते हुए, इस यात्रा में राहुल गांधी के साथ चलते दिखे हैं।

आज हिन्दुस्तान में नफरत और हिंसा का गंडासा लेकर लोगों के बीच सद्भाव के टुकड़े-टुकड़े करने की जो कामयाब कोशिश जारी है, उसका यह एक अहिंसक और शांतिपूर्ण जवाब है जो कि गांधी की गौरवशाली परंपरा के मुताबिक है। दूसरा गांधी बनना किसी के लिए भी आसान बात नहीं है, लेकिन गांधी की बताई राह पर चलना उतना मुश्किल भी नहीं है, और राहुल गांधी आज इसी बात को साबित करने में लगे हुए हैं। लोग महज इतना याद करके देखें कि क्या उन्होंने हिन्दुस्तान में किसी राजनेता की लगातार महीनों की हजारों ऐसी तस्वीरें देखी हैं जिनमें से एक में भी बदमिजाजी नहीं है, बेदिमागी नहीं है, नफरत नहीं है, हिंसा नहीं है, सिर्फ मोहब्बत है। यह आसान नहीं है, खासकर तब जब आपके माथे पर एक पार्टी की नाकामयाबी की तमाम तोहमत धरी हुई है, और जब आपके सिर पर पार्टी को उबारने की चुनौती भी रखी गई है, वैसे में पार्टी को पूरी तरह छोडक़र, महज देश को जोडक़र चलने की यह कोशिश असाधारण है। एक बात यह जरूर लगती है कि 2014 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी और उनकी पार्टी ने अगर ऐसी जनयात्रा निकाली होती, तो शायद वह पार्टी के डूबते भविष्य को कुछ बचा सकती थी। लेकिन यह बात भी है कि भारत को जोडऩे की जरूरत 2014 में शायद उतनी नहीं लग रही थी, जो इन बीते बरसों में अब खड़ी हो चुकी है, और शायद इसीलिए यह यात्रा योगेन्द्र यादव से लेकर दूसरे गैरकांग्रेसी लोगों को अपनी तरफ खींच रही है। राहुल गांधी की इस शानदार कोशिश पर कहने के लिए हमारे पास बस दो शब्द हैं-मोहब्बत जिंदाबाद!

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