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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

गुजरात चुनावों में भाजपा को फिर पूर्ण बहुमत से जीत मिली है। इस खबर को राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनल और अखबार अपनी सुर्खियां बनाए हुए हैं। भाजपा की जीत पर देश भर में फैले उसके कार्यकर्ताओं में जितना जोश और खुशी नजर आई, उतनी ही प्रसन्नता चैनलों पर चुनाव परिणाम बता रहे एंकरों में भी देखने मिली। जबकि यह कोई खबर ही नहीं है कि भाजपा ने गुजरात चुनाव जीत लिया। खबर तो तब बनती, जब भाजपा बहुमत से पीछे रह जाती या पिछले बार की तरह 99 के आंकड़ों पर सिमटती दिखाई देती। 5 तारीख को चुनाव खत्म होने के बाद से तमाम विश्लेषणों में यह बताया जा रहा था कि बाजी फिर से भाजपा के पक्ष में जाएगी। गुजरात प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का गृह राज्य है। इन दोनों के राजनैतिक भविष्य को पहले की तरह सुनहरा बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि गुजरात भाजपा के खाते में ही जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावों की घोषणा के बाद और उसके पहले से गुजरात के दौरे करने शुरु कर दिए थे। कभी कोई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर का आयोजन, कभी किसी परियोजना का उद्घाटन, कभी मंदिर दर्शन, कभी मातृ दर्शन, किसी न किसी तरह वे गुजरात के दौरे करते रहे। वे प्रधानमंत्री हैं, उनका वक्त देश के लिए होना चाहिए, ऐसी तमाम आलोचनाओं और निंदा से बेपरवाह प्रधानमंत्री मोदी का पूरा ध्यान गुजरात में लगा रहा। गुजरात जीतने के लिए भाजपा को मुख्यमंत्री और समूची केबिनेट बदलनी पड़ी, तो यह बड़ा कदम उठाने में भी भाजपा नहीं हिचकिचाई। चुनावों की घोषणा होते ही देश भर के भाजपा सरकारों के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, दिग्गज नेता सब दिन-रात भाजपा के प्रचार में जुट गए। बिल्किस बानो के दोषियों को रिहाई मिली, और उन बलात्कारियों, हत्यारों का स्वागत हुआ, तो संवेदनशील समाज सिहर उठा। लेकिन चुनाव संवेदनाओं से नहीं, चालाक रणनीतियों से जीता जाता है। भाजपा ने उन बलात्कारियों को संस्कारी कहने वाले को अपना उम्मीदवार बना दिया। मोरबी हादसा हुआ, तो फिर भाजपा के शासन पर सवाल उठे। भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टालरेंस नीति का क्या हुआ, ऐसे प्रश्न विपक्ष पूछने लगा। लेकिन भाजपा ने उन सवालों का जवाब न देते हुए, जो इंसान ट्यूब पहनकर माछू नदी में गिरे लोगों को बचाते दिखा, उसे भाजपा ने उसे अपना उम्मीदवार बनाकर अपने पक्ष में माहौल बना लिया। वैसे भी हाथरस और लखीमपुर खीरी में भी भाजपा की ही जीत हुई थी। इसलिए अब ये सोचना बेकार है कि जनता दूसरों को पीड़ित देखकर अपनी राय बदल लेगी। फिलहाल बहुसंख्यक जनता को हिंदुत्व के रक्षक के रूप में भाजपा का चेहरा दिखाई दे रहा है और भाजपा ने इस चेहरे को मोदीजी के तौर पर हर जगह चस्पां किया हुआ है। चुनाव कहीं भी हो, मोदीजी ही प्रचार के लिए जाते हैं। अगर जीत मिली तो वो नरेन्द्र मोदी की और हार मिली तो स्थानीय नेतृत्व की।
हिमाचल प्रदेश में रिवाज बरकरार रखते हुए इस बार मतदाताओं ने कांग्रेस को सत्ता सौंपी है। प्रधानमंत्री मोदी ने हिमाचल प्रदेश में भी प्रचार किया था। लेकिन गुजरात जितनी कोशिश यहां नहीं की। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा के इस गृह राज्य में प्रचार का जिम्मा बाकी नेताओं के ऊपर रहा। हिमाचल प्रदेश के उपचुनावों में भी कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी और इस बार भी उम्मीद जतलाई जा रही थी कि परिणाम कांग्रेस के पक्ष में रहेंगे। प्रियंका गांधी ने उत्तरप्रदेश के बाद हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के लिए जमकर प्रचार किया। उत्तरप्रदेश में तो कांग्रेस बिल्कुल खत्म हो चुकी है, लेकिन हिमाचल प्रदेश में मिली जीत से निराश हो रहे कांग्रेस समर्थकों में फिर से उम्मीद जागी है कि अगर डटकर मुकाबला किया जाए और इसके साथ सही वक्त पर सही फैसले लिए जाएं, तो नतीजे सकारात्मक होते हैं। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में भी पिछले बरसों में गुटबाजी बढ़ गई थी। वीरभद्र सिंह की मृत्यु के बाद यहां बड़ा जनाधार रखने वाले नेता की कमी महसूस की जा रही थी। लेकिन कांग्रेस ने गुटबाजी को खत्म करने में देर नहीं की। जिसका फायदा उसे मिला। एक लंबे अरसे बाद फिर से किसी राज्य की सत्ता में कांग्रेस आई है। वर्ना एक के बाद एक उसे हार ही मिलती जा रही थी, जिससे उसके कार्यकर्ताओं में निराशा छा रही थी। हिमाचल प्रदेश भले छोटा राज्य है, लेकिन इसकी जीत मनोवैज्ञानिक तौर पर बड़ा असर करेगी। खासकर तब जबकि लोकसभा चुनावों में अब डेढ़ साल का ही वक्त बचा है। और इससे पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, त्रिपुरा, मेघालय जैसे राज्यों में चुनाव है। इन चुनावों के पहले भारत जोड़ो यात्रा का एक दौर भी पूरा हो जाएगा। और खबरें हैं कि राहुल गांधी फिर पूर्व से पश्चिम की यात्रा पर भी निकलेंगे।
भारत जोड़ो यात्रा को मिल रहे समर्थन से यह जाहिर होता है कि कांग्रेस के मूल्यों और उसकी राजनीति में जनता के बड़े वर्ग का अब भी भरोसा है। राहुल गांधी की लोकप्रियता भी अब असंदिग्ध है। लेकिन क्या इस यात्रा से कांग्रेस को चुनावी फायदा मिलेगा, ये भी देखना होगा। क्योंकि देश को जोड़ने की जो महती जिम्मेदारी राहुल गांधी ने उठाई है, वो मुकम्मल तभी होगी, जब कांग्रेस सत्ता में फिर से लौटे। बिना सत्ता के कांग्रेस की सारी सदिच्छाएं धरी की धरी रह जाएंगी। इन चुनावों में भाजपा की ओर से राहुल गांधी के लिए ये तंज बार-बार कसा गया कि वे हार के डर से चुनाव प्रचार में नहीं आ रहे। ये जनता को बरगलाने का एक हथकंडा ही था, क्योंकि भाजपा भी जानती थी कि गुजरात में उसकी जीत तय है। इसलिए राहुल गांधी के गुजरात में प्रचार के लिए आने के बाद भी कांग्रेस को हार मिली और हिमाचल प्रदेश में न जाने के बावजूद वहां जीत मिली। वैसे पिछले चुनावों में राहुल गांधी ने गुजरात में काफी मेहनत की थी, तो इसका परिणाम कांग्रेस को मिला था। लेकिन इस बार हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर जैसे नेताओं को तोड़ने में भाजपा कामयाब रही। इसके अलावा अहमद पटेल जैसे नेता की कमी कांग्रेस ने महसूस की। जिन इलाकों में पहले कांग्रेस मजबूत थी, वहां भी भाजपा को बढ़त मिल गई और इसके अलावा आम आदमी पार्टी को उतार कर कांग्रेस के वोट काटने का दांव भी काम आया।
कुल मिलाकर चुनावी नतीजे उम्मीदों के मुताबिक ही रहे। लेकिन कुछ सवाल अनुत्तरित ही हैं, जैसे क्या महंगाई, बेरोजगारी जैसे जीवन से जुड़े सवाल अब चुनावी परिदृश्य से गायब हो गए हैं। क्या भारत में धु्रवीकरण अब एक कड़वी सच्चाई है, जिससे मुंह फेरना आसान नहीं है। और क्या कांग्रेस को भाजपा का मुकाबला करने के लिए जनता की नब्ज फिर से पकड़नी होगी। इन सवालों के जवाबों का इंतजार रहेगा। फिलहाल तो मुकाबला एक-एक पर छूटा, ये सोचकर कांग्रेस खैर मना सकती है।

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