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-सुनील कुमार॥

सुप्रीम कोर्ट के जज अगर बिना लाग-लपेट खुलासे से अगर इंसाफ की बात करते हैं, तो वह सुनना बड़ा दिलचस्प होता है। देश के लोकतंत्र में, यहां की सरकारी व्यवस्था में क्या होना चाहिए, और क्या नहीं, इस पर एक बड़ा दिलचस्प नजरिया सुनने मिलता है। आज देश भर में यह चर्चा है कि केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां एनडीए पार्टियों को छोडक़र बाकी तमाम विपक्षी पार्टियों के नेताओं और उनकी राज्य सरकारों के खिलाफ, उनसे जुड़े हुए कारोबारों के खिलाफ इकतरफा जांच में लगी हुई हैं। मोदी विरोधी नेताओं और पार्टियों के पास आंकड़े हैं कि ईडी की चल रही कितनी जांच में से कितनी जांच विपक्षी नेताओं के खिलाफ हैं। ऐसे में देश के दर्जन भर से अधिक राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई थी कि केन्द्रीय जांच एजेंसियों को नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करते हुए क्या-क्या नहीं करना चाहिए। इनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट से केन्द्र सरकार और उसकी एजेंसियों को निर्देश देने की अपील की थी, ताकि राजनेताओं को जांच की प्रताडऩा न झेलनी पड़े, और उन्हें जल्द जमानत मिल जाए। विपक्षी वकील का यह कहना था कि केन्द्र सरकार चुनिंदा तरीके से राजनीतिक विरोधियों को निशाना बना रही है, और ऐसे में गिरफ्तारी, रिमांड, और जमानत, सबके लिए सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देने चाहिए। कांग्रेस सहित देश के 14 विपक्षी दलों ने यह पिटीशन लगाई थी, और कांग्रेस के एक बड़े नेता, और सुप्रीम कोर्ट के एक प्रमुख वकील अभिषेक मनु सिंघवी इसे लेकर अदालत में खड़े हुए थे। लेकिन अदालत का रूख देखकर सिंघवी ने यह पिटीशन वापिस ले ली।

अब इस मामले को सुन रहे देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने इस बात पर कुछ हैरानी जाहिर की कि कैसे नेता अपने आपको बाकी जनता से परे के ऐसे कोई विशेषाधिकार देने की मांग कर सकते हैं? उन्होंने कहा कि राजनेता, और देश की जनता का दर्जा एक बराबर है, वे जनता से ऊपर की किसी दर्जे का दावा नहीं कर सकते, उनके लिए कोई अलग प्रक्रिया कैसे हो सकती है? जितने तरह की बातें विपक्षियों के वकील ने कही थीं, वे जांच और मुकदमों का सामना कर रहे विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी में कुछ शर्तें लगाने, उनको आसान जमानत मिलने की वकालत करते हुए थीं। मुख्य न्यायाधीश ने इनको पूरी तरह खारिज कर दिया, और कहा कि अगर केन्द्र सरकार और जांच एजेंसियों ने किसी मामले में ज्यादती की है तो वह मामला सामने रखा जाए, इस तरह तमाम जांच के लिए कोई निर्देश जारी नहीं किया जा सकता। उनका कहना बड़ा साफ था कि गिरफ्तारी या जमानत के मामले में जनता और नेता के बीच कोई फर्क कैसे किया जा सकता है?

आज देश में जांच एजेंसियों का बनाया हुआ जो माहौल है उसमें गैरभाजपाई, गैरएनडीए पार्टियों के नेताओं को यह लग रहा है कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता ही उनका सबसे बड़ा जुर्म है, और उनके खिलाफ जांच और अदालती कार्रवाई की जो प्रक्रिया चल रही है, वही सबसे बड़ी सजा है, जितनी कि अदालत भी नहीं देगी। हो सकता है कि यह बात पूरी तरह से सही हो, लेकिन एक दूसरा सवाल यह उठता है कि यह बात सिर्फ केन्द्रीय जांच एजेंसियों तक सीमित नहीं हैं, अधिकतर राज्यों में वहां की पुलिस और वहां की दूसरी जांच एजेंसियां भी इसी तरह से काम कर रही हैं। कुछ राज्यों में तो पुलिस जिस तरह खुलकर साम्प्रदायिक-दंगाई के अंदाज में लगी हुई हैं, वह देखकर भी हैरानी होती है। राज्यों की पुलिस चूंकि ईडी और सीबीआई के मुकाबले बहुत अधिक किस्म के मामलों की जांच करती हैं, देश का अधिकतर कानून राज्यों के अधिकार क्षेत्र में ही आता है, और राज्यों की पुलिस सत्ता के सामने पीकदान पकड़े हुए सेवक के अंदाज में खड़ी रहती हैं। इसलिए राज्य की सत्ता को नापसंद लोगों के खिलाफ ऐसी पुलिस और राज्यों की दूसरी जांच एजेंसियों का बर्ताव भी ऐसा ही चुनिंदा और निशाने वाला रहता है जिनकी शिकायत इस पिटीशन में सुप्रीम कोर्ट से की गई है। किसी भी राज्य में क्या सत्ता के पसंदीदा लोगों पर कोई कार्रवाई हो सकती है? पूरे ही देश में पुलिस कुछ भी करने के पहले सत्ता के चेहरे का अंदाज लगाती है कि उस पर इस कार्रवाई की क्या प्रतिक्रिया होगी, और उसी के मुताबिक सब कुछ तय होता है। इसलिए केन्द्र सरकार हो, या राज्य सरकारें, जांच एजेंसियों का दुरूपयोग, पुलिस का दुरूपयोग एक बहुत व्यापक मामला है। इस पिटीशन की वजह पैदा होने की एक वजह है कि केन्द्र की एजेंसियों की राज्यों के ऊपर एक मजबूत पकड़ रहती है, और राज्य की पुलिस या एजेंसियों की वैसी कोई पकड़ केन्द्र सरकार पर नहीं रहती। यह अधिकार क्षेत्र ऐसा है कि राज्य केन्द्र के मातहत सरीखे दिखते हैं, और अपनी तमाम स्वायत्तता के बावजूद वे कुछ संघीय अपराधों के लिए केन्द्र और उसकी जांच एजेंसियों के प्रति जवाबदेह रहते हैं।

आज देश में जो माहौल बना हुआ है कि मोदी सरकार की जांच एजेंसियां विपक्षियों के पीछे लगी हुई हैं, उसी को बयां करते हुए यह पिटीशन लगी थी, लेकिन जब मुख्य न्यायाधीश ने इसके तर्कों को बुरी तरह खारिज करते हुए जनता के आम हकों से अधिक कोई हक नेताओं को देने से इंकार कर दिया। यह एक बहुत अच्छी बात है। आज गिरफ्तारी के खिलाफ और जमानत के लिए आम जनता जितनी तकलीफ पाती है, और आम जनता के लिए जांच और न्याय की पूरी प्रक्रिया ही सजा साबित हो जाती है, उसे देखते हुए राहत की जरूरत तो आम जनता को अधिक है क्योंकि वह नेताओं से परे, गरीब भी रहती है। इसलिए अदालत ने यह ठीक तय किया है कि इस मामले में नेताओं को कोई अलग दर्जा न दिया जाए।

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