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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार।।

कई बरस पहले से जापान के शहरों की सार्वजनिक जगहों की ऐसी तस्वीरें आती हैं जिनमें लोग पखाने में बैठे हैं, और उनके आसपास के एक तरफ से देखे जा सकने वाले कांच से वे तो फुटपाथ, सडक़, या दूसरी जगहों को देख सकते हैं, लेकिन बाहर से उन्हें देखना मुमकिन नहीं रहता क्योंकि कांच एक ही तरफ से काम करता है। अब मान लें कि ऐसे पखाने का शीशा एकाएक टूट जाए तो भीतर बैठे इंसान को दुनिया बिना कपड़ों देख लेगी। ऐसा ही कुछ कल अरविंद केजरीवाल के साथ हुआ है जब उन्होंने मोदी सरकार से यह मांग की कि हिन्दुस्तानी नोटों पर गांधी के साथ-साथ लक्ष्मी-गणेश की फोटो भी छापी जाए। यह मांग दीवाली के ठीक अगले दिन हुई है जब देश के बहुत बड़े हिस्से में अधिकतर लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं, और यह मांग गुजरात चुनाव के ठीक पहले आई है जो कि अगले कुछ हफ्तों में होने जा रहे हैं। केजरीवाल को बरसों से लोग भाजपा और आरएसएस की बी टीम की तरह पाते हैं, और वे भाजपा के खिलाफ जितनी भी बयानबाजी करें, वे बयान चुनावों में भाजपा को नुकसान नहीं पहुंचाते, और ठीक उसी तरह केन्द्र सरकार आम आदमी पार्टी के नेताओं पर जितनी भी कार्रवाई करते दिखे, वह दिखती अधिक है, होती कम है। इसलिए लोग यह मानते हैं कि भाजपा किसी भी चुनाव में अपने मजबूत विपक्षी दल के वोट बंटवाने के लिए केजरीवाल का इस्तेमाल करती है, और इस बार केजरीवाल ने भाजपा का इस्तेमाल कर लिया दिखता है, उन्होंने भाजपा के हिन्दुुत्व के मुद्दे पर उससे भी चार मील आगे बढक़र दिखा दिया जब हिन्दू देवी-देवता की तस्वीरें नोटों पर छापने की मांग उन्होंने की है।

दरअसल केजरीवाल अन्ना हजारे के उस आंदोलन से सामने आए हैं जो कि निहायत फर्जी किस्म के मुद्दों को लेकर चलाया गया था, और अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों ने बाद में उसे आरएसएस की उपज बताया था। देश के चुनिंदा कथित भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अन्ना हजारे का गिरोह देश में बाकी सभी और बड़े भ्रष्टाचार को अनदेखा भी कर रहा था, और लोगों का ध्यान उस तरफ से हटा भी रहा था। इस आंदोलन में कर्नाटक से शामिल होने वाले जस्टिस हेगड़े और श्रीश्री रविशंकर जैसे लोगों को उसी वक्त कर्नाटक में चल रही येदियुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधुओं के अंधाधुंध भ्रष्टाचार नहीं दिखते थे, और वे दिल्ली आकर यूपीए सरकार के खिलाफ डेरा डालकर बैठे थे। गांधी टोपी लगाए हुए, खादी पहने हुए, सत्याग्रह का अनशन करते हुए अन्ना हजारे ने गांधीवाद को भी खूब दुहा, और सरकार को भरपूर बदनाम किया। इसके बाद से अब तक अन्ना हजारे अपने गांव जाकर सोए हैं, और अब चूंकि दिल्ली में कांग्रेस की सरकार आठ बरस से नहीं है, दो बरस और नहीं रहेगी, इसलिए उन्हें उठने की कोई जल्दी नहीं है। उसी आंदोलन की उपज अरविंद केजरीवाल थे जिन्होंने अन्ना हजारे के साथ मिलकर जनलोकपाल बनाने के लिए आक्रामक आंदोलन चलाया था, और उसके बाद से अब तक उस मुद्दे को छुआ भी नहीं है।

अरविंद केजरीवाल एक शहर वाले राज्य दिल्ली के निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं, और उन्होंने एक शहरी म्युनिसिपल कमिश्नर जैसा ही काम किया है। मोहल्ला क्लीनिक और बेहतर स्कूलों का काम दुनिया भर में बेहतर म्युनिसिपल कमिश्नर करते ही हैं, और केजरीवाल ने बस उतना ही किया। देश के और जितने जलते-सुलगते मुद्दे उनके राजनीतिक जीवन में देश को घेरकर रखे चले आ रहे हैं, उन पर उन्होंने कभी मुंह नहीं खोला। देश में बड़ी-बड़ी साम्प्रदायिक सुनामी आती रही, लेकिन केजरीवाल अपने टापू में महफूज बैठे रहे, होठों को सिलकर, आंखों को बंद करके। अब गुजरात और हिमाचल के चुनाव में केजरीवाल भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले उतरे हुए हैं, और आम आदमी पार्टी को इन दोनों राज्यों में कम या अधिक संभावना दिख रही है, ऐसे में उन्होंने भाजपा से भी आगे जाकर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें नोटों पर छापने की मांग कर डाली है। केजरीवाल आईआईटी से पढ़े हुए हैं, यूपीएससी से निकलकर इंकम टैक्स में ऊंची नौकरी कर चुके हैं, और देश के कानून को अच्छी तरह समझते हैं। इसके बावजूद वे इस धर्मनिरपेक्ष में किसी एक धर्म के देवी-देवताओं की तस्वीरों को नोटों पर छापने की मांग कर रहे हैं, तो इसके पीछे उनकी नीयत समझी जा सकती है। उन्हें भी मालूम है कि हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं किया जा सकता, लेकिन वे एक जुमला उछालकर भाग निकलने में माहिर आदमी हैं, और उन्होंने इस बार भी वही किया है। अब सवाल यह उठता है कि अमूमन भाजपा-आरएसएस की रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए चुनावों में उतरती आम आदमी पार्टी इस बार क्या भाजपा के परंपरागत वोटों को भी अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रही है? क्या पंजाब के बाद उसकी महत्वाकांक्षा दूसरे राज्यों की तरफ बढ़ रही है? क्या वह अब भाजपा के शामियाने वाले की तरह काम करना बंद कर रही है? या फिर इन दोनों पार्टियों के बीच किसी और किस्म की रणनीतिक साझेदारी हुई है?

इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू समाज का एक तबका वैसे भी धर्मान्धता, और साम्प्रदायिकता में झोंका जा चुका है, और केजरीवाल की यह मांग उस बात को और आगे ही बढ़ाएगी। बहुत से लोगों को यह सलाह सही लगेगी कि धन और वैभव के देवी-देवताओं की तस्वीर इस हिन्दू-बहुसंख्यक देश में नोटों पर क्यों न छापी जाए? जिन लोगों को अखबारों में छपे हुए देवी-देवताओं की तस्वीरों वाले पुराने कागज पर मांसाहारी खानपान बांधकर देने पर दंगा करना जरूरी लगता है, वे हिन्दू देवी-देवताओं की नोटों पर छपी तस्वीरों को कसाई के पास, शराबखाने में, वेश्याओं के पास जाने पर क्या महसूस करेंगे? धर्मान्धता को आगे बढ़ाने का खतरा यह रहता है कि उसकी भूख बढ़ते चलती है, और धीरे-धीरे इन नोटों को लेकर दूसरे धर्म के कारोबारियों के पास न जाने का फतवा भी कल का कोई केजरीवाल जारी करने लगेगा। यह सिलसिला इस देश के धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को और आगे तक ले जाएगा, और देश के बाकी धर्मों के लोगों को लगेगा कि वे यहां दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। चुनाव जीतने के लिए केजरीवाल कुछ और राज्यों में संभावना देखकर उस वक्त यह मांग भी कर सकते हैं कि हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए। यह आदमी लोकतंत्र का मसीहा बनने का नाटक करते हुए राजनीति में आया, और आज यह लोकतंत्र की सारी भावना को कुचलकर चुनावी जीत हासिल करने की मक्कारी पर आमादा है। इस देश में जिन लोगों को राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों की समझ नहीं है, उन्हें एक म्युनिसिपल कमिश्नर सरीखे नेता को भी सब कुछ बना देने में कुछ गलत नहीं लगता। ऐसे ही लोगों की मेहरबानी से इस देश में तानाशाही खप रही है। केजरीवाल की ऐसी बकवास को जमकर धिक्कारने की जरूरत है।

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