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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?
-सर्वमित्रा सुरजन।। ऋषि सुनक भारतीय मूल के हैं, इस बात का ढिंढोरा हज़ारों-लाखों बार पीटकर फिर से उसे दोहरा कर खुशियां मनाई जाने लगीं। ठुमक-ठुमक चलते बाल कृष्ण और राम जी को देखकर माता यशोदा और माता कौशल्या जितना निहाल नहीं होती होंगी, उससे ज्यादा खुशी ऋषि सुनक को राजा चार्ल्स तृतीय से भेंट करते देख कर जताई गई। 90 के दशक में एक गीत मशहूर हुआ था, पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा। तो ऋषि सुनक में वैसा ही बेटा ममतामय भारतीयों ने देखा। एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय। रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥ रहीमदास जी ने तो दो पंक्तियों के माध्यम से गहरा ज्ञान दिया था। इस ज्ञान को कौन कितना आत्मसात करता है, यह तो सबकी अपनी समझदारी है। लेकिन फिलहाल ऐसा लग रहा है कि भारत के अधिकतर लोगों ने दूसरी पंक्ति को जरा ज्यादा गंभीरता से लेना शुरु कर दिया है। खासकर जब से ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से हिंदूवादी, राष्ट्रवादी लोगों की मूल शब्द को लेकर सनक कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही है। खबरें आ रही हैं कि इस वक्त कहां-कहां भारतीय मूल के नेता राज कर रहे हैं। जैसे पुर्तगाल के प्रधानमंत्री एंटोनियो कोस्टा भी भारतीय मूल के हैं। उनके दादा गोवा के थे। मॉरिशस के प्रधानमंत्री प्रविंद जगन्नाथ भी भारतीय मूल के हैं, उनके पिता अनिरुद्ध जगन्नाथ भी मॉरीशस के बड़े नेता रहे हैं। यहां के राष्ट्रपति पृथ्वीराजसिंह रूपन की जड़ें भी भारत से जुड़ी हैं। सिंगापुर की राष्ट्रपति हलीमा याक़ूब के पिता भारतीय मूल के थे, जबकि उनकी मां मलय थीं। सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी भारतीय-सूरीनामी हिंदू परिवार के हैं। गुयाना के राष्ट्रपति इरफ़ान अली के पुरखों की जड़ें भारत से जुड़ी हैं। सेशेल के राष्ट्रपति वावेल रामकलावन भी भारतीय मूल के नेता हैं, उनके पुरखे बिहार से थे। मोदीजी ने उन्हें भारत का बेटा कहा था। और अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की मां भी भारतीय थीं। इन नेताओं के अलावा कई देशों में भारतीय मूल के लोग राजनीति में काफी सक्रिय हैं। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों में भारतीय मूल के लोग शीर्ष पदों पर विराजमान हैं। ये सारे लोग अलग-अलग हैं, लेकिन दो बातें इनमें एक जैसी हैं। पहली तो यही कि इन सबके पुरखों का ताल्लुक किसी न किसी तरह भारत से था, लिहाजा ये भारतीय मूल के कहलाएं और दूसरी ये कि अब ये सारे लोग भारत छोड़ चुके हैं और ऐसी कोई उम्मीद नहीं कि ये कभी भारत आकर बसेंगे। भारत से दूर, ये लोग जहां हैं खुश हैं और हम भारत के लोग इन्हें देख-देख कर खुश हैं। रहीमदास जी की बात मानते हुए हम मूल को अपने प्यार-दुलार से सींच रहे हैं, हालांकि इसके फल-फूल किसे मिलेंगे, कौन इन्हें पाकर अघाएगा, ये कहना कठिन है। वैसे ये सारे देश एक ओर, और अमेरिका-ब्रिटेन एक ओर। हमारी सांवली त्वचा के भीतर सांस ले रही नस्लवादी सोच इस बात से ही प्रसन्न है कि इन देशों में भारतीय मूल के लोग राजनीति में इतना ऊंचा बढ़ गए हैं। अमेरिका में तो राष्ट्रपति की कुर्सी कभी किसी भारतीय मूल के व्यक्ति को मिलेगी या नहीं, ये भविष्य में है। लेकिन भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बन गया, आजादी के अमृतकाल में इससे बड़ी बात क्या हो सकती है, फिलहाल ऐसे विचार थोक के भाव में इधर से उधर प्रचारित, प्रसारित हो रहे हैं। किसी को ऋषि सुनक के हिंदू होने पर गर्व महसूस हो रहा है। कोई इस बात पर इतरा रहा है कि ऋषि सुनक ने हमेशा अपनी हिंदू पहचान को शान से सबके सामने पेश किया है। दीपावली के मौके पर ऋषि सुनक के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने की खबर आई और उससे एक दिन पहले विराट कोहली ने क्रिकेट मैच में पाकिस्तान को मात दे दी थी। बस इन दो कारणों से दीपावली की खुशियां बहुत से लोगों के लिए दोगुनी हो गईं। फिर क्या प्रदूषण और क्या महंगाई, किसी बात की परेशानी शहरी मध्यवर्ग और उच्चवर्ग को नहीं रही। ऋषि सुनक भारतीय मूल के हैं, इस बात का ढिंढोरा हज़ारों-लाखों बार पीटकर फिर से उसे दोहरा कर खुशियां मनाई जाने लगीं। ठुमक-ठुमक चलते बाल कृष्ण और राम जी को देखकर माता यशोदा और माता कौशल्या जितना निहाल नहीं होती होंगी, उससे ज्यादा खुशी ऋषि सुनक को राजा चार्ल्स तृतीय से भेंट करते देख कर जताई गई। 90 के दशक में एक गीत मशहूर हुआ था, पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा। तो ऋषि सुनक में वैसा ही बेटा ममतामय भारतीयों ने देखा। इन्हें अपने बेटों से शायद कोई उम्मीद नहीं रही है। हो भी नहीं सकती। क्योंकि हमने अपनी संतानों को उड़ान भरने के लिए इतना खुला आसमान दिया ही कहां। हमारी संतानें स्कूल और कालेज में दाखिलों के धक्के खाती हैं। वहां किसी तरह पढ़ने मिल जाए, तो अंग्रेजी-हिंदी के झगड़े में उलझा दी जाती हैं। विश्वविद्यालयों में महंगी फीस औऱ छात्रावास का खर्च हमारे बच्चों की पढ़ाई रोक रहा है। इस बाधा को किसी तरह पार कर लें तो नौकरियों के नाम पर उन्हें चप्पल घिसने पर मजबूर किया जा रहा है। नौकरी और पढ़ाई की कमी महसूस न हो, इसका भी उपाय सरकार ने ढूंढ निकाला है। कभी ये बच्चे धार्मिक शोभायात्राओं में शामिल होकर संस्कारी बनने का प्रशिक्षण लेते हैं, कभी धर्म की रक्षा के लिए पहली पंक्ति में खड़े होने का साहस दिखाते हैं। करोड़ों बेटे-बेटियां इसी में लगे हुए हैं, और पापा का नाम कर सके, ऐसा काम करने की फुर्सत ही उनके लिए सरकार ने नहीं दी है। ऋषि सुनक के बारे में ये बात भी खूब प्रचारित की जा रही है कि उनके पुरखे मौजूदा पाकिस्तान से निकले थे, फिर केन्या पहुंच गए और उसके बाद ब्रिटेन चले गए। ऋषि सुनक का जन्म भी ब्रिटेन में ही हुआ और वहीं उनका अब तक का जीवन भी बीता। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि ऋषि सुनक कहां पैदा हुए, मूल मुद्दा तो मूल का है। यानी उनकी जड़ें किसी न किसी तरह तो भारत और हिंदू धर्म से जुड़ी हैं न, बस यही हमारे लिए खुश होने वाली बात होनी चाहिए। ताली-थाली न बजाओ, दिए तो जलाने ही हैं, तो बस यही सोचकर उनमें तेल थोड़ा और डाल दो कि एक सांवली त्वचा का हिंदू, गोरों पर राज करने पहुंच गया। और जिन्हें फिर भी इस बात पर माथा-पच्ची करनी है कि उनके पुरखे कहां-कहां से होकर इंग्लैंड पहुंचे, तो उन्हें अखंड भारत का उद्देश्य याद कर लेना चाहिए। अभी अखंड भारत के नक्शे में पाकिस्तान तो है ही, सरकार हर बात को मुमकिन बता रही है तो हम एक दिन अखंड भारत की सोच में केन्या तक भी पहुंच ही सकते हैं। फिर तो ऋषि सुनक खालिस भारतीय मूल के हो ही जाएंगे। अगर अब भी किसी को इसमें कुछ खटक रहा है, तो वो ये सोच ले हमने उन्हें अपनी बेटी दी है। मां गंगा के बेटे हर जगह रिश्ते बना ही लेते हैं। तो फिर ये सोचने में क्या बुराई है कि इंग्लैंड हमारी बेटी का ससुराल है, वहां के प्रधानमंत्री हमारे दामाद हैं। कभी कोहिनूर की याद ज्यादा सताए तो ये सोच कर मन को तसल्ली दी जाएगी कि बेटी के ससुराल में नेग दिया है। दामाद को सिर-आंखों पर बिठाने की हिंदुस्तान की संस्कृति को भला कौन नहीं समझेगा। बस देखना ये है कि बेटे, बेटी और दामाद जितना सम्मान हम विदेशी मूल की बहू को देना कब सीखेंगे।
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