शायर इरतिज़ा निशात ने फरमाया है कि –
कुर्सी है तुम्हारा ये जनाज़ा तो नहीं है,
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते।
सत्ता के मोह में कुर्सी से चिपके नेताओं के लिए यह बात कही गई है। हालांकि ऐसे नेताओं की चमड़ी इतनी मोटी होती है कि उन्हें न ऐसी पंक्तियों से कोई फर्क पड़ता है, न अपनी नाकाबिलियत पर उन्हें कोई शर्मिर्ंदगी महसूस होती है, न जनता की तकलीफों से उनका कोई वास्ता रहता है। उनके लिए सत्ता सबसे बड़ा सच होती है और कुर्सी का साथ आजीवन बना रहे, इसके लिए अगर उन्हें विचारधारा से समझौता कर दल बदलना पड़े, धुर विरोधी पार्टी में शामिल होना पड़े, तो वे सहर्ष ऐसा कर लेते हैं।
पिछले कुछ बरसों में भारत में न जाने कितने ऐसे दलबदलु और सत्तालोभी नेता देखे गए। दूसरे देशों में भी हाल कुछ अलग नहीं है। अमेरिका में हार के बाद जिस तरह डोनाल्ड ट्रंप ने चुनावों को गलत ठहराते हुए सत्ता में लौटने की कोशिश की या हाल ही में ब्राजील में लूला डि सिल्वा की सरकार के खिलाफ पिछले राष्ट्रपति बोलसोनारो के समर्थकों ने जो उपद्रव किया, वह सत्तालोभ का ही उदाहरण है।
हालांकि भारत में सोनिया गांधी जैसी नेता भी हैं, जिन्होंने लाभ के पद का मामला उठने पर सांसद पद से इस्तीफा देने में देर नहीं की। यूपीए के बहुमत में आने के बाद भी उन्होंने प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं किया। उनसे पहले ज्योति बसु ने भी प्रधानमंत्री पद ठुकरा कर ऐसी मिसाल पेश की थी। हाल में दिवंगत समाजवादी नेता शरद यादव ने लोकसभा कार्यकाल को छह साल करने के इंदिरा गांधी के फैसले के खिलाफ कदम उठाते हुए संसद सदस्यता छोड़ दी थी, उस वक्त मधु लिमये ने भी अपनी संसद सदस्यता त्यागी थी, क्योंकि जनता ने इन्हें पांच साल का जनादेश दिया था। खेद की बात है कि सत्ता का मोह न पालने वाले ऐसे नेताओं के उदाहरण इतने कम हैं कि उंगलियों पर गिने जा सकें। जबकि जीवन के आखिरी पड़ाव पर आकर भी किसी पद की लालसा लगाए लोगों की कमी नहीं है।
सत्ता के शीर्ष पर रहकर पद से विमुख होने के चंद अनूठे उदाहरणों में अब एक नाम और जुड़ जाएगा। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न ने ऐलान किया है कि वे सात फरवरी तक लेबर पार्टी की नेता के पद से इस्तीफ़ा दे देंगी, जिसके बाद आने वाले दिनों में उनके उत्तराधिकारी को चुनने के लिए वोटिंग होगी। उन्होंने कहा कि छह साल तक इस ‘चुनौतीपूर्ण’ पद को संभालने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की है। इसके बाद अब अगले चार साल में उनके पास योगदान देने के लिए कुछ ख़ास नहीं बचा है।
इसलिए अब वो अगला चुनाव नहीं लड़ेंगी। गौरतलब है कि न्यूज़ीलैंड में इस साल 14 अक्टूबर को आम चुनाव होने हैं। 2020 में हुए चुनाव में जेसिंडा अर्डर्न के नेतृत्व में लेबर पार्टी को भारी बहुमत से जीत मिली थी, लेकिन हाल के महीनों में देश के भीतर उनकी लोकप्रियता घटी है। सुश्री अर्डर्न का कहना है कि लेबर पार्टी की हार की आशंकाओं के कारण वो इस्तीफा नहीं दे रही हैं, बल्कि इसलिए दे रही हैं ताकि लेबर पार्टी जीत सके। एक ऐसा मजबूत नेतृत्व हमें चाहिए जो चुनौती ले सके। बड़ी स्पष्टता के साथ जेसिंडा अर्डर्न ने यह स्वीकार कर लिया कि जो चुनौतियां अभी उनकी सरकार के सामने पेश हो रही हैं, उनका सामना करने में वे कहीं न कहीं कमजोर पड़ रही हैं।
अमूमन सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग अपनी नाकामी का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ते हैं और जवाबदेही से बच जाते हैं। लेकिन न्यूजीलैंड की मौजूदा प्रधानमंत्री ने बड़ी साफगोई के साथ अपनी क्षमताओं और सीमाओं को स्वीकारा है। और ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में किसी बड़ी चुनौती का सामना नहीं किया। ये जेसिंडा अर्डर्न का ही नेतृत्व था, जिसमें न्यूजीलैंड कोरोना जैसी महामारी में बिना किसी खास नुकसान के निकल आया। जब अमेरिका और ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देशों में त्राहि-त्राहि हो रही थी, तब न्यूजीलैंड में जनजीवन सामान्य था। इसी तरह आतंकवाद की चुनौती का सामना जेसिंडा अर्डर्न ने क्राइस्ट चर्च मस्जिद में हुई गोलीबारी के वक्त किया। पीड़ितों को गले लगाकर ये संदेश उन्होंने दिया कि वे हर तरह के चरमपंथ के खिलाफ हैं, चाहे वो किसी भी धर्म की आड़ में फैलाया जाए।
जेसिंडा अर्डर्न अपने अब तक राजनैतिक करियर में कई वजह से सुर्खियों में आईं। जैसे 2017 में जब वे पहली बार प्रधानमंत्री बनीं तो उनकी उम्र महज 37 साल थी और उस वक्त वे दुनिया की सबसे कम उम्र की राष्ट्रप्रमुख थीं। जून 2018 में उन्होंने अपनी संतान को जन्म दिया और इस तरह वे बेनजीर भुट्टो के बाद दुनिया की दूसरी प्रधानमंत्री बनीं, जिन्होंने पद पर रहते हुए मां बनने का गौरव हासिल किया। उस वक्त उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, मैं काम करने वाली और मां बनने वाली पहली महिला नहीं हूं। कई महिलाओं ने पहले भी ऐसा किया है। यानी उन्होंने प्रधानमंत्री पद के दायित्व को भी बाकी कामों की तरह ही माना और खुद को एक कामकाजी महिला समझा। समानता का यह संदेश आज की राजनीति में दुर्लभ है।
अपने पद से इस्तीफे की घोषणा करते हुए जेसिंडा अर्डर्न ने कहा कि मैं इस उम्मीद और विश्वास के साथ देश का नेतृत्व छोड़ रही हूं कि देश का नेता ऐसा हो जो नेकदिल होने के साथ मज़बूत हो, संवेदनशील होने के साथ फै़सले लेनेवाला हो, आशावादी हो और देश का काम एकाग्रता से करे और अपनी शख़्िसयत की छाप छोड़े- और जिसे ये पता हो कि कब नेतृत्व छोड़ देना है।
इस आखिरी वाक्य में उन्होंने एक गहरा संदेश दिया है कि नेता को पता होना चाहिए कि कब उसकी उपयोगिता खत्म हो रही है और उसे कुर्सी से उतर जाना चाहिए। जिस तरह कमल के पत्ते अपने ऊपर पानी की बूंदों को ठहरने नहीं देते, ऐसे निर्लिप्त भाव से पद संभालना विरल ही है।