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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार।।

हिन्दुस्तान का वैसे तो न्यूजीलैंड से कुछ अधिक लेना-देना नहीं है, लेकिन आज की वहां की एक खबर कुछ सोचने, और उस पर लिखने का मौका दे रही है जो कि हिन्दी और हिन्दुस्तानी पाठकों की दिलचस्पी का भी हो सकता है। वहां की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न ने कहा है कि वे 7 फरवरी के पहले इस्तीफा दे देंगी। उनका कहना है कि वे 6 साल तक इस चुनौतीपूर्ण ओहदे को सम्हालने के बाद अब महसूस करती हैं कि उनके पास योगदान देने के लिए कुछ खास नहीं बचा है, इसलिए वे अगला चुनाव भी नहीं लड़ेंगीं। वे 2017 में ही 37 साल की उम्र में दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री बनी थीं। और अब 42 बरस की उम्र में वे एक कार्यकाल खत्म करके सरकार से हट भी जा रही हैं।

हिन्दुस्तान के लोगों को यह बात बड़ी अजीब लग सकती है। यहां पर 75 बरस की उम्र पार करने के बाद अगर किसी को संसद या विधानसभा का चुनाव लडऩे से रोका जाता है, तो वे हाथ में थमी छड़ी को उठाकर बगावत पर उतारू हो जाते हैं, खुद तो चुनाव लड़ ही लेते हैं, अपने कुनबे को भी बगावत में उतार देते हैं। पार्टियां भी सयान के ऐसे तेवरों से बचने के लिए उनके जीते जी ही उनके कुनबे को उनकी सीट पर टिकट देने का समझौता कर लेती हैं। कुल मिलाकर एक नेता एक सीट पर अपने कुनबे का पीढ़ी-दर-पीढ़ी कब्जा मानकर चलते हैं। फिर अगर राजनीति में कुनबापरस्ती है, तो फिर लालू, मुलायम, सोनिया, फारूख, मेहबूबा, बादल, चौटाला, पवार, ठाकरे, शुक्ल परिवारों के एक से अधिक लोग भी एक समय सांसद-विधायक हो सकते हैं, एक से अधिक सरकारों में हिस्सेदार हो सकते हैं, संसद, विधानसभा, और पार्टी संगठन सब पर काबिज हो सकते हैं। फिर यह भी है कि वे मरने तक सत्ता पर काबिज रहते हैं, और उनके बाद अगली पीढ़ी चिता की आग से तपी हुई ही शपथ ले लेती है। इसलिए न्यूजीलैंड की इस नौजवान प्रधानमंत्री की बात भारत के बहुत से लोगों को बेइज्जत करने वाले आईने की तरह लग सकती है जिसमें वे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग से होते हुए कलियुग तक अपने कुनबे के लिए सीट की गारंटी कर लेते हैं।

न्यूजीलैंड के इस ताजा फैसले से हिन्दुस्तान के बारे में यह भी सीखने और समझने मिलता है कि एक नौजवान प्रधानमंत्री कुल 6 बरस काम करने के बाद अगर यह पाती है कि उसके पास और अधिक योगदान देने को कुछ नहीं है, तो वह अपनी पार्टी के दूसरे नेता के लिए कुर्सी खाली करके हट जाती है। और यह महिला किसी कुनबापरस्ती के चलते इस जगह नहीं पहुंची थी, उसने योरप के समाजवादी आंदोलन में 17 बरस की उम्र से काम करना शुरू कर दिया था, और राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सा लेने लगी थी। एक बहुत लंबे और बहुत सक्रिय राजनीतिक जीवन के बाद वह पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री के ओहदे के लिए चुनी गई थी। और उसने इराक पर हमले के फैसले को लेकर 2003 के ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर से रूबरू कड़े सवाल किए थे। ऐसे सक्रिय जीवन और सब कुछ अपने बूते हासिल करने के बाद एक महिला अपने देश के इस सबसे बड़े ओहदे को छोडक़र जिस आसानी से, जिस स्वाभाविक तरीके से चली जा रही है, वह सीखने लायक बात है। हिन्दुस्तान में लोग अपनी पार्टी को बेच खाते हैं, पार्टी के सांसदों और विधायकों की थोक पैकिंग बनाकर उसे दुश्मन पार्टी के हाथ बेच देते हैं, और कुर्सी पर बने रहते हैं, या पहुंच जाते हैं। कुर्सी ही हिन्दुस्तान में सब कुछ है, वह महज कामयाबी नहीं है, वही महानता भी है। जिसे कुर्सी हासिल नहीं हुई, उसे कभी महान का दर्जा नहीं मिल सकता, और जिसे कुर्सी हासिल हो गई, वह हजार जुर्म, और हजार नाकामयाबी के बाद भी महान गिनाते हैं।

यह बात तो निर्वाचित नेताओं को लेकर है, लेकिन लोग अपने राजनीतिक संगठन के भीतर भी कोई कुर्सी छोडऩा नहीं चाहते। अपने चुनाव क्षेत्र को अपनी जागीर मानकर चलते हैं, अपने साथ-साथ धीरे-धीरे जीवनसाथी और आल-औलाद, और बहू-दामाद, सबको संसद-विधानसभा, और पार्टी में घुसाने में लगे रहते हैं। मरने के बाद भी वे अपने कुनबे से किसी को अनुकम्पा टिकट दिलाने में कामयाब हो जाते हैं। यह बात तो राजनीति के लोगों की हुई, लेकिन हिन्दुस्तान में गौशाला, अनाथाश्रम, शिक्षा समिति और दूसरे किस्म के ट्रस्ट या सभा समितियों में लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी काबिज रहते हैं, सरकारी अनुदान पर पलते हैं, और वह अनुदान मानो उनके डीएनए को मिला हो। वे संस्थाओं की ‘समाजसेवा’ में इतने समर्पित रहते हैं कि धरती पर कोई और काबिल इंसान उन्हें दिखते ही नहीं। ऐसे देश में मोटी कमाई वाली राजनीतिक और सरकारी कुर्सियों के लिए लोग पंचतत्व में विलीन हो जाने के बाद भी, कब्र में दफन हो जाने के बाद भी ‘सेवा’ करने पर आमादा रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों को न्यूजीलैंड की 42 बरस की भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेइज्जती का सामान ही लग सकती है।

भारत में न सिर्फ राजनीति में, बल्कि अदालतों में जजों के बीच भी, वकालत और डॉक्टरी जैसे पेशों में भी, और कारखानों से लेकर कारोबार तक कुनबापरस्ती का जो बोलबाला है, और लोग जिस तरह पहले कब्जे के बाद अंतिम संस्कार तक काबिज रहते हैं, उसे देखते हुए यह सोचने की जरूरत है कि क्या वे सचमुच मरने तक योगदान देने की हालत में रहते हैं, और क्या उनका डीएनए ही सामाजिक संगठनों को चलाने के लिए सबसे हुनरमंद डीएनए है? हिन्दुस्तान के लोगों को अपने इर्द-गिर्द देखना और सोचना चाहिए, आज की यह चर्चा बस इसी मकसद से है।
-सुनील कुमार

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