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बाल विवाह सदियों से भारत के लिए एक गंभीर सामाजिक समस्या बनी हुई है। गुलाम भारत में कई समाज सुधारकों ने इसके नुकसान को पहचानते हुए लोगों को जागरुक करने की कोशिश की। अंग्रेजों ने 1928 में शारदा एक्ट बनाया, ताकि कम उम्र में विवाह पर रोक लगाई जा सके। आजादी के बाद भी बाल विवाह रोकने के लिए सरकारें प्रयत्नशील रहीं हैं।

देश के कई हिस्सों में अब भी नाबालिगों की शादी का रिवाज जारी है, जिसे रोकने की हरसंभव कोशिश होनी चाहिए। लेकिन असम में भाजपा सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ अभी जो मुहिम छेड़ी है, उससे व्यापक समाज में अफरा-तफरी सी मच गई है। बाल विवाह के खिलाफ कार्रवाई के लिए शनिवार तक राज्य में 4,074 एफआईआर के बाद 2,250 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया है। पिछले तीन दिनों से असम के कई इलाकों में महिलाएं अपने पति और पिता को बचाने के लिए सरकार के सामने मोर्चा खोल रही हैं। लेकिन मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा अपने रुख पर कायम हैं, उनका कहना है कि राज्य पुलिस की ओर से शुरू किया गया बाल विवाह के खिलाफ अभियान 2026 में अगले विधानसभा चुनाव तक जारी रहेगा।

किसी सामाजिक बुराई से निपटना हो, तो सख्ती अपनानी ही पड़ती है, साथ ही ये ध्यान रखना होता है कि इसमें निर्दोषों पर किसी तरह की मुसीबत आए। गेहूं के साथ घुन के पिसने वाली कहावत तो सही है, मगर सरकार को ये याद रखना होगा कि जीते-जागते इंसान घुन नहीं होते हैं। अपने सगे-संबंधियों पर होने वाली कार्रवाइयों का असर उनके जीवन पर पड़ेगा। असम में फिलहाल यही हो रहा है। पुलिस की कार्रवाई के डर से सैकड़ों शादियां या तो रद्द हो चुकी हैं, या स्थगित कर दी गई हैं।

लेकिन जो शादियां पहले हो चुकी हैं, जिनमें कई के परिवार भी आगे बढ़ चुके हैं, उन पर इस सख्ती के कारण बर्बादी का साया मंडराने लगा है। कछार जिले की एक 17 बरस की लड़की ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि जिस लड़के से वो प्यार करती थी और उसकी शादी होने वाली थी, वो पुलिस की कार्रवाई के डर से टूट गई। सीमा खातून नाम की एक और महिला ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उनका विवाह पहले हो चुका था, लेकिन उन्हें डर था कि बाल विवाह कराने के लिए उनके पिता को गिरफ्तार न किया जाए। एक दंपती का डेढ़ महीने का बेटा है, और आधी रात को पुलिस पति को गिरफ्तार करके ले गई, जबकि पत्नी अब परेशान है कि छोटे से बच्चे के साथ वह कहां जाए, कैसे जीवन बसर करे।

अफरोजा नाम की महिला के पति और पिता दोनों को गिरफ्तार किया जा चुका है और उसने आत्महत्या की धमकी दी है। असम की हजारों महिलाएं इस वक्त ऐसे ही तनाव से गुजर रही हैं। पति और पिता दोनों की गिरफ्तारियों के बाद बहुत सी महिलाएं आश्रय घरों में शरण लेने को मजबूर हो गई हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक असम की 31 प्रतिशत महिलाओं का बाल विवाह हुआ है, तो क्या इन 31 प्रतिशत महिलाओं के पति और पिता गिरफ्तार होंगे।

सवाल ये भी है कि जेल में ठूंसे गए पुरुषों और बेकसूर महिलाओं को शरणार्थियों जैसा मजबूर बना देने के बाद असम सरकार किस तरह का समाज बनाना चाहती है। जिन मासूमों को पिता के होते हुए अनाथों जैसा जीवन गुजारना पड़ेगा, जो महिलाएं बाल विवाह के बाद अब कानूनी कार्रवाई की उलझनों में पिसेंगी, वे किस तरह आत्मगौरव के साथ जी पाएंगी। जिन पुरुषों पर जेल का ठप्पा लग जाएगा, उनकी रिहाई जब भी होगी, क्या वे उसके बाद सामान्य जीवन कभी बिता पाएंगे। एक बार जिन महिलाओं को शादीशुदा करार दे दिया गया है, क्या बाल विवाह साबित होने के बाद उनके विवाह रद्द माने जाएंगे, क्या फिर से वे विवाह के बंधन में बंध पाएंगी। समाजसुधार के नाम पर उठाए गए इस एक कदम के कारण लाखों जिंदगियों के भविष्य पर जो प्रश्नवाचक निशान लग गया है, क्या भाजपा सरकार के पास उसका कोई निदान है।

मुख्यमंत्री का कहना है कि वे केवल 2006 के बाल विवाह विरोधी कानून का पालन कर रहे हैं। लेकिन इस कानून के पालन का ध्यान सरकार को अभी अचानक क्यों आय़ा, जबकि असम में ये लगातार दूसरी बार भाजपा की ही सरकार है। असम में मुस्लिम आबादी पर पहले भी सरकारी फैसलों की मार पड़ चुकी है। कभी नागरिकता के नाम पर, कभी मदरसों को लेकर अल्पसंख्यक समुदाय निशाने पर आता रहा है। इस बार भी यही सवाल उठाए जा रहे हैं कि गिरफ्तार लोगों में बड़ी संख्या मुस्लिमों की है। रविवार को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कार्यकारिणी बैठक में भी यह मुद्दा उठा और मांग की गई कि असम पुलिस को गिरफ्तारियों पर तुरंत रोक लगानी चाहिए। जाहिर है बाल विवाह विरोधी अभियान के सांप्रदायिक होने का डर पैदा हो रहा है। असम सरकार को इस दिशा में फौरन विचार करना चाहिए।

बाल विवाह कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है, जिसे पुलिस के जोर से सुधारा जा सके। यह गंभीर समस्या कई सामाजिक विसंगतियों का परिणाम है। लड़कियों की सुरक्षा, धार्मिक रुढ़ियां, अशिक्षा, गरीबी ऐसी अनेक वजहों से लोग बाल विवाह को मान्यता देते हैं। इसलिए जरूरी है कि शिक्षा, रोजगार, सामाजिक जागरुकता के प्रयास से इन विसंगतियों को सुधारने की कोशिश की जाए। यह एक लंबी प्रक्रिया है, जिसमें धैर्य के साथ-साथ समाज का विश्वास जीतना जरूरी है। लोगों को जब ये यकीन होगा कि उनकी लड़कियों को पढ़ाई के साथ-साथ समाज में सुरक्षा का माहौल मिलेगा, उन्हें रोजगार मिलेगा, तब वे खुद ही अपने बच्चों खासकर लड़कियों की शादी की जल्दी नहीं करेंगे। देश के कई हिस्सों में इसी तरह बाल विवाह कम हुआ है, या खत्म हुआ है। जिन राज्यों में यह कुप्रथा अब भी जारी है, वहां खुद लड़कियां और बहुत सी समाजसेवी संस्थाएं इसके खिलाफ आवाज़ उठा रही हैं, जिसके सार्थक नतीजे देखने मिले हैं। हिमंता बिस्वासरमा अगर वाकई बालविवाह को रोकना चाहते हैं, तो इसमें उन्हें सीधे पुलिसिया कार्रवाई की जगह अन्य तरीकों पर विचार करना होगा, तभी सही नतीजे मिलेंगे।

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