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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

नरेन्द्र मोदी सरकार ने 2015 में स्मार्ट सिटी मिशन शुरू किया था जिसके तहत सौ शहरों को छांटकर उन्हें शहरी सुविधाओं के मामले में बेहतर बनाने का बीड़ा उठाया गया था। अगले महीने मार्च 2023 में इनमें से 22 शहर स्मार्ट होने जा रहे बताए गए हैं, और दावा किया गया है कि इससे वहां के लोगों की जिंदगी बेहतर होगी, और वे एक साफ-सुथरे माहौल में रह सकेंगे। इन शहरों में भोपाल, इंदौर, आगरा, वाराणसी, भुवनेश्वर, चेन्नई, कोयम्बटूर, इरोड़, रांची, सालेम, सूरत, उदयपुर, विशाखापत्तनम, अहमदाबाद, काकीनाड़ा, पुणे, वेल्लूर, पिम्परी-चिंचवाड़ा, मदुरै, अमरावती, तिरुचिरापल्ली, और तंजौर के नाम हैं। अब तक इन शहरों में एक लाख करोड़ रूपये के प्रोजेक्ट पूरे हो चुके हैं, और तकरीबन उतने ही और शुरू किए गए हैं। इसमें आधी रकम केन्द्र सरकार देता है, और आधी रकम राज्य सरकार या स्थानीय म्युनिसिपल की लगती है।

जब यह योजना शुरु हुई थी तब भी हमने इसके खिलाफ लिखा था कि यह निर्वाचित म्युनिसिपलों के अधिकारों में दखल है, और स्मार्ट सिटी का काम करने वाली एक अलग बनाई गई कंपनी उन शहरों के म्युनिसिपलों के प्रति जवाबदेह नहीं रहती हैं जो कि एक असंवैधानिक नौबत है। भारत में केन्द्र, राज्य, और स्थानीय संस्थाओं से परे कुछ नहीं हो सकता, लेकिन स्मार्ट सिटी की पूरी धारणा ही केन्द्र सरकार की सोच पर शहरों को ढालने के लिए राज्यों पर थोपी गई थी, और ‘स्मार्ट’ बनने की हड़बड़ी में राज्य इस बात की अनदेखी कर गए थे कि केन्द्र की सोच पर राज्यों को बराबरी से खर्च करना पड़ रहा है, और उनकी अपनी कल्पनाशीलता की कोई जगह इसमें नहीं है। इसके अलोकतांत्रिक मिजाज को भी अनदेखा किया गया था, और अभी छत्तीसगढ़ के हाईकोर्ट में इसके खिलाफ एक पिटीशन पर सुनवाई हो ही रही है। हम ‘स्मार्ट’ बनने जा रहे ऐसे शहरों का हाल देखें तो इनमें से मध्यप्रदेश का इंदौर बार-बार देश का सबसे साफ शहर घोषित हो रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि मध्यप्रदेश की कारोबारी राजधानी होने की वजह से इंदौर म्युनिसिपल की कमाई अंधाधुंध है, और उतना खर्च करके कोई भी शहर साफ रखा जा सकता है। देश के किसी भी शहर में अगर म्युनिसिपल या वार्ड मेम्बर यह तय कर लें कि उन्हें चारों तरफ से रकम जुटाकर शहर को साफ रखना है, तो शहर की संपन्नता में यह मुमकिन तो है, लेकिन सफाई के ऐसे टापू बाकी प्रदेश के हक को छीनते हैं, और एक स्थानीय वाद को बढ़ावा देते हैं। भारत में ही दक्षिण भारत के कुछ शहरों ने सफाई की योजना इस तरह बनाई है कि उन पर धेला भी खर्च नहीं किया जा रहा है, और कचरे से कमाई की जा रही है। ऐसे में सैकड़ों करोड़ सालाना खर्च करके किसी टैक्स देने वाले शहर को साफ रखना कोई बड़ी चुनौती नहीं है। होना तो यह चाहिए कि कचरे को छांटना और सफाई रखना स्थानीय जनता के मिजाज में लाया जाना चाहिए ताकि उस पर टैक्स का पैसा खर्च न हो। शहरों पर अनुपातहीन खर्च करके उन्हें ‘स्मार्ट’ बनाने की सोच असंतुलित विकास है, और जब निर्वाचित संस्था के काबू से परे ऐसा काम होता है, तो वह पूरी तरह से अलोकतांत्रिक भी रहता है।

जिस तरह राज्यों में डीएमएफ के नाम पर जो जिला खनिज निधि अंधाधुंध बर्बाद करने के लिए कलेक्टरों के हाथ रहती है, उसी तरह ‘स्मार्ट’ सिटी के नाम पर ऐसा अंधाधुंध खर्च म्युनिसिपल कमिश्नरों के हाथ आ जाता है। और उसकी बर्बादी की मिसाल डीएमएफ से कम नहीं है। यह राज्य के नेताओं और अफसरों की मनमर्जी से होने वाली बर्बादी का जश्न रहता है। हमने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अभी-अभी देखा कि ऐतिहासिक सरकारी खेल मैदान को काटकर किस तरह खाने-पीने का एक बहुत महंगा बाजार स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत बनाया जा रहा है, और फिर मानो उसे आबाद करने के लिए आसपास कई किलोमीटर तक सडक़ किनारे के गरीब ठेलेवालों को हटा दिया गया है कि अगर वे भी खानपान बेचते रहेंगे, तो स्मार्ट सिटी का बनाया महंगा बाजार कैसे चलेगा। कुछ दर्जन नई चमचमाती और बड़ी दुकानों को चलाने के लिए सैकड़ों गरीबों को बेदखल और बेरोजगार कर दिया गया, और इसे स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर किया गया है। यह पूरा सिलसिला अमानवीय भी है, और तानाशाह भी है, क्योंकि बिना किसी तर्कसंगत और न्यायसंगत आधार के बरसों से सडक़ किनारे कारोबार कर रहे छोटे और गरीब लोगों को इस तरह रातों-रात हटा देना एक सरकारी गुंडागर्दी के अलावा कुछ नहीं है। और ऐसा इसलिए किया गया है कि स्मार्ट सिटी योजना के तहत एक अफसर के मातहत सैकड़ों करोड़ खर्चने का जिम्मा और हक दोनों दे दिया गया है। जिस तरह डीएमएफ को कलेक्टरों का पॉकेटमनी कहा जाता है, और उसके तहत होने वाले खर्च के ठेकों और सप्लाई में जमकर भ्रष्टाचार होता है, ठीक वैसा ही शहरों में स्मार्टसिटी के नाम पर चलते रहता है जहां दसियों करोड़ के शौचालय बनते रहते हैं, और करोड़ों के कचरे के डिब्बे लगते रहते हैं, और कोई जवाबदेही नहीं रहती।

जब देश में पंचायत या म्युनिसिपलों की शक्ल में स्थानीय शासन का संवैधानिक इंतजाम है, तो स्मार्ट सिटी के नाम पर यह अफसरशाही शुरू से ही गलत थी, लेकिन मोदी की विरोधी पार्टियों में इसे समझने की फुर्सत नहीं थी। ऐसे खर्च का एक सामाजिक ऑडिट होना चाहिए, और अदालत में इस पूरी सोच को शिकस्त मिलनी चाहिए कि किसी निर्वाचित म्युनिसिपल से अधिक अधिकार किसी एक अफसर को रहे। स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर अंधाधुंध खर्च करके एक अलोकतांत्रिक व्यवस्था चलाना अपने आपमें बेवकूफी है, और यह उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट लोकतंत्र विरोधी इस सोच को रोक पाएगा।

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