मोदी सरकार इन दिनों कई तरह की उलझनों से घिरी दिखाई दे रही है। अडानी मामले पर संसद में प्रधानमंत्री मोदी ने एक शब्द भी नहीं कहा, और विपक्ष ने जो कुछ कहा, उसे संसद की कार्यवाही से हटा दिया गया है। लेकिन इसके बावजूद सवालों की गूंज शांत नहीं हुई है। कांग्रेस ने जो कुछ संसद में कहा, उसे बाहर दोहरा दिया है। यानी सब कुछ जनता के सामने है और जनता ही तय करेगी कि जो सवाल राहुल गांधी ने पूछे वो सही थे या गलत। इस बीच मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया और अब विदेश से भी इस पर सवाल उठाए जाने लगे हैं।
दुनिया के जाने-माने मीडिया संस्थानों ने अडानी मामले और श्री मोदी की चुप्पी पर लिखा। कई कंपनियों के अडानी समूह से कारोबार की अब समीक्षा हो रही है। कई लोगों ने निवेश से अपने हाथ पीछे खींच लिए हैं। इन सबके साथ अब म्यूनिख में अमेरिकी अरबपति कारोबारी जार्ज सोरोस ने प्रधानमंत्री मोदी और अडानी समूह के मालिक के निजी संबंधों और उन पर लगते आरोपों की बात की। श्री सोरोस ने कहा कि मोदी अडानी विषय पर चुप हैं, लेकिन उन्हें विदेशी निवेशकों और संसद में सवालों का जवाब देना होगा। यह भारत की संघीय सरकार पर मोदी की पकड़ को काफी कमजोर कर देगा और बहुत जरूरी संस्थागत सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए रास्ता खोलेगा। हो सकता है कि मेरी बात अजीब लगे लेकिन इससे लोकतंत्र के पुनर्जीवित होने का रास्ता खुलेगा।
जॉर्ज सोरोस ओपन सोसाइटी फाउंडेशन के संस्थापक हैं। यह संस्था लोकतंत्र, पारदर्शिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा देने वाले समूहों और व्यक्तियों को ग्रांट देती है। 8.5 बिलियन डॉलर की संपत्ति के मालिक जॉर्ज सोरोस अच्छे से जानते हैं कि लोकतंत्र और पूंजीवाद मौजूदा दौर में किस तरह एक सिक्के के दो पहलू हो गए हैं। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। लेकिन पूंजीवाद के नाम पर अगर एकाधिकार को बढ़ावा मिले, तो यह लोकतंत्र के लिए घातक हो सकता है। इसी खतरे की ओर श्री सोरोस ने ध्यान दिलाया है। वे पहले भी अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए चर्चित रहे हैं। लेकिन इस बार उनके बयान से भारत की सियासत में नयी हलचल पैदा कर दी है। यह शायद इसलिए क्योंकि एक ओर देश में चुनावी माहौल है और दूसरी ओर बीबीसी और इजरायली जासूसी फर्म जैसे प्रकरणों के कारण सत्तारुढ़ भाजपा पर सवाल उठ रहे हैं।
गौरतलब है कि बीबीसी डाक्यूमेंट्री विवाद के चंद दिनों बाद दिल्ली-मुंबई के बीबीसी कार्यालयों में आयकर विभाग का सर्वे चला, जो 59 घंटे लंबा था। इस कार्रवाई से मीडिया की स्वतंत्रता का सवाल उठा। वहीं द गार्जियन ने खुलासा किया है कि एक इजरायली जासूसी फर्म ने दुनिया के कम से कम 30 देशों चुनावों को प्रभावित करने का ठेका लिया और सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म्स के जरिए गलत सूचनाएं फैलाकर मतदाताओं को प्रभावित करने का काम किया। इसमें भारत के चुनाव भी शामिल हो सकते हैं, इस बात की आशंका कांग्रेस ने जतलाई है। कांग्रेस ने एक प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि किस तरह भाजपा की आईटी सेल और इजरायली जासूसी फर्म के कामकाज में साम्यता है।
केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने जॉर्ज सोरोस के बयान को भारत पर हमला और विदेशी साजिश बताया। उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस कर एकजुटता के साथ इस हमले का जवाब देने का आह्वान किया, लेकिन इजरायली फर्म वाले विवाद पर अभी उनकी कोई टिप्पणी नहीं आई है। अगर श्री सोरोस का बयान भारत के लोकतंत्र पर हमला और आंतरिक राजनीति में दखलंदाजी हो सकता है, तो फिर इजरायली फर्म अगर चुनावों को प्रभावित कर रही है, क्या उसे भी इसी नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। श्रीमती ईरानी के अलावा विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने भी जॉर्ज सोरोस के बयान की निंदा की, उन्हें बूढ़ा, अमीर, हठधर्मी और खतरनाक बताया। श्री जयशंकर केवल राजनेता होते, तो इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल सामान्य लगता। लेकिन वे पूर्व राजनयिक रह चुके हैं, जो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में शब्दों की अहमियत और तोल-मोल के बोलने का महत्व जानते हैं, फिर भी उन्होंने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल श्री सोरोस की आलोचना के लिए किया है, तो इससे जाहिर होता है कि भाजपा इस अप्रत्याशित वार से बौखला गई है।
भाजपा के अलावा कांग्रेस के जयराम रमेश और पी. चिदम्बरम जैसे नेताओं ने भी इस टिप्पणी की आलोचना की है। किसी के बयान को कौन, किस तरह से लेता है, यह सबकी अपनी समझ और मर्जी है। लेकिन एक बात स्पष्ट होनी जरूरी है कि जॉर्ज सोरोस ने कहीं भी भारत की आलोचना नहीं की। उन्होंने भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाए। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की एक अहम मामले पर चुप्पी और लोकतांत्रिक रवैये पर सवाल उठाए हैं। क्या श्री मोदी की आलोचना देश की आलोचना मानी जा सकती है। हमारे देश के कई नेता आए दिन पाकिस्तान के लोकतंत्र, वहां की निर्वाचित सरकार और मंत्रियों पर टिप्पणी करते हैं, क्या इसे पाकिस्तान के आतंरिक मामले में दखल देना माना जाएगा। भारत के लोकतंत्र की चिंता करने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि श्री मोदी ने अमेरिका जाकर, वहां के मंच से चुनाव के पहले अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा लगाया था। क्या यह नारा अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और भारत की विदेश नीति के लिहाज से सही था। क्या यह वहां की अंदरुनी राजनीति में दखल देने जैसा नहीं था।
जॉर्ज सोरोस के बयान को राष्ट्रवाद का मसला बनाए जाने से पहले ये कोशिश हो कि जो मसले सामने हैं, उनसे बचने की जगह उनका समाधान किया जाए। अगर सवालों से न भागें तो सवालों का शोर खड़ा ही नहीं होगा।
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