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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सर्वमित्रा सुरजन॥

गंगा-जमुनी संस्कृति के कारण भारत की शान बनी, दुनिया में खास पहचान बनी। मगर अब इस आलीशान इमारत में नफरत की कंटीली झाड़ियां बेतरतीबी से उग चुकी हैं, हिंसा के कई सुराख जगह-जगह दीवारों को कमजोर कर चुके हैं और सांप्रदायिक, जातीय बैर के कारण नींव कमजोर पड़ती जा रही है, इसके बाद डर बढ़ रहा है कि देश खंडहर में बदल सकता है।

कोई आलीशान इमारत खंडहर में बदल जाए, तो बाद में उसे देख कर कितना दुख होता है। भारत में तो जगह-जगह अतीत के ऐसे चिह्न बिखरे पड़े हैं, जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि खंडहर बताते हैं कि इमारत कभी बुलंद थी। दुष्यंत कुमार ने लिखा है-

खंडहर बचे हुए है, इमारत नहीं रही,
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही।

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप,
जो रौशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।।

कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत का हाल आज ऐसा ही नजर आ रहा है। इतिहास के पन्नों पर तो दर्ज है कि कैसे नादिरशाह और महमूद गजनी जैसे आक्रांताओं ने भारत पर हमला बोलकर यहां के खजाने को लूट लिया। बेशकीमती हीरे जवाहरात, सोना, चांदी सब लूट कर ले गए। फिर अंग्रेजों ने भी भारत को कंगाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 18वीं सदी के राजनैतिक परिदृश्य में जब सत्ता पर जमींदारों, महाजनों, स्थानीय बैंकर्स का दखल बढ़ने लगा और राजनीति बाहुबल से अधिक पूंजी से संचालित होने लगी, तब अंग्रेजों को भी अपने पैर जमाने में और मदद मिली। लेकिन भारत केवल भौतिक रूप से समृद्ध नहीं था, यहां की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का खजाना भी अतुलनीय था। बाहरी लुटेरों ने राजाओं के खजानों को तो लूटा, लेकिन हिंदुस्तान की उदार और सबको साथ लेकर चलने वाली अनूठी दौलत को नहीं लूट पाए।

अंग्रेजों ने दो सौ सालों के शासन में हमारे इस खजाने को भी देख लिया और उसमें सेंधमारी की। बंग-भंग के फैसले से लेकर अंतत: भारत-पाक विभाजन तक अंग्रेज इसी दौलत को लूटने की कोशिश करते रहे। दो सौ साल बाद ही सही, लेकिन भारतीयों के आत्मबल के आगे अंग्रेजी शासन के पैर आखिर में उखड़े और उन्हें देश को आजादी देनी पड़ी। इसके बाद कांग्रेस ने देश की कमान संभाली और प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने अपने सहयोगियों और विरोधियों को सभी को साथ लेकर सरकार का गठन किया, देश को नयी दिशा देने की कोशिश की। कांग्रेस के भीतर भी उनके विचारों से भिन्नता रखने वाले थे और कांग्रेस के बाहर भी उनसे मतभेद रखने वाले नेता थे, पर भारत को साथ मिलकर आगे बढ़ाने के लिए सभी की रायशुमारी की जाती थी। संविधान बनाने में भी यही कोशिश की गई कि भारत जिस पुरातन खजाने के कारण सोने की चिड़िया बना हुआ था, वो खजाना सहेजा जा सके। संविधान की प्रस्तावना इस खजाने की चाबी है। लेकिन अब इस चाबी को सात तालों में बंद करके फेंकने की तैयारी हो रही है।

गंगा-जमुनी संस्कृति के कारण भारत की शान बनी, दुनिया में खास पहचान बनी। मगर अब इस आलीशान इमारत में नफरत की कंटीली झाड़ियां बेतरतीबी से उग चुकी हैं, हिंसा के कई सुराख जगह-जगह दीवारों को कमजोर कर चुके हैं और सांप्रदायिक, जातीय बैर के कारण नींव कमजोर पड़ती जा रही है, इसके बाद डर बढ़ रहा है कि देश खंडहर में बदल सकता है। दुनिया में नजर दौड़ाएं, तो पता चलेगा कि जिन देशों में लोकतंत्र का अपमान किया गया, धर्म की आड़ लेकर इंसानियत को शिकार बनाया गया, पूंजी को आवारा बनाकर राज करने दिया गया, उनकी परिणति अंतत: खंडहर में तब्दील होने की ही हुई है। अफसोस कि भारत इस वक्त वैसे ही रास्ते पर चल रहा है। एक-दो दिन नहीं, हर रोज ऐसी ही घटनाएं सामने आ रही हैं, जिनके बाद सवाल उठने लगता है कि क्या देश में कानून व्यवस्था के लिए कोई स्थान शेष रह गया है। क्या जातीय, धार्मिक अहंकार संविधान के सम्मान से बढ़कर हो गया है। उदाहरण के लिए मंगलवार को दिल्ली के पास राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच-48 को जाम किया गया और एक महापंचायत हुई, जिसमें धमकी दी गई कि अगर राजस्थान पुलिस मोनू या किसी आरोपी को गिरफ्तार करने आई तो अपने पैरों पर जा नहीं सकेगी। वहीं गुड़गांव में कथित गोरक्षकों के झुंड ने मोनू मानेसर के समर्थन में जुलूस निकाला। कुछ टीवी चैनलों पर गौरक्षकों के खिलाफ षड्यंत्र शीर्षक से कार्यक्रम चलाए गए। मोनू मानेसर और उसके साथियों पर राजस्थान से दो मुस्लिम युवकों जुनैद और नासिर का अपहरण कर उन्हें मार-पीटकर भिवानी जिले में गाड़ी में जिन्दा जलाने का आरोप है।

सोचिए, किसी व्यक्ति पर दो लोगों को जिंदा जलाने का गंभीर आरोप है और उसके समर्थन में कार्यक्रम हों, रैलियां निकाली जाएं, सिर्फ इसलिए क्योंकि ये हत्याएं तथाकथित तौर पर गोरक्षा के लिए हुई हैं। क्या देश में बड़े आर्थिक घोटाले करने वाले खरबपतियों से लेकर हिंदुत्व के नाम पर गुंडागर्दी और हत्याएं करने वालों को बचाने का कोई नया चलन हो गया है। अगर ऐसा है तो फिर अमृतकाल में क्या संविधान की जगह किसी और अमृत स्मृति के आधार पर कानून बनाए जाएंगे। जिसमें अल्पसंख्यकों, गरीबों, दलितों, औरतों के हिस्से में विष आएगा और बाकी सवर्ण, संपन्न लोग देवताओं की तरह अमृतपान करेंगे। पिछले मंगलवार की घटना है, जब जुनैद और नासिर को भरतपुर से अगवा कर नूंह ले जाकर बुरी तरह पीटा गया और फिर घायल हालत में थाने ले जाकर कहा गया कि गोतस्करी के शक में इन को गिरफ्तार किया जाए। पुलिस ने उनकी हालत देखकर उन्हें वापस ले जाने कहा, कुछ देर में उनकी मौत हो गई तो भिवानी ले जाकर गाड़ी सहित शवों को आग लगा दी गई। अब सोचने वाली बात है कि इन गोरक्षकों को इतने अधिकार किसने दिए कि वह पहले किसी को मारें और फिर पुलिस को गिरफ्तारी का हुक्म भी दें। जो लोग संविधान की रक्षा नहीं कर सकते, वे गो रक्षा करके क्या देश बचाने निकले हैं। मोनू मानेसर फरार है, और जैसे कोमल शर्मा, नूपुर शर्मा, विजय माल्या, ललित मोदी, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी ये सब कानूनी पकड़ से बाहर हैं, वैसे भी मोनू भी आजाद, आराम से घूमे तो क्या आश्चर्य। आखिर जेलों की शोभा बढ़ाने के लिए वे सारे लोग काफी हैं, जो हमेशा संविधान बचाने, इस देश की अनमोल विरासत को बचाने की बात करते रहते हैं।

मोनू जैसे लोगों के समर्थन में राष्ट्रीय राजमार्ग जाम करने वाले अक्सर बाबाओं के प्रवचनों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं। बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री भी अपने प्रवचनों में हिंदुओं को एक होने, बुलडोजर खरीदने की सलाह देते रहे हैं। अब उनके भाई एक वीडियो में हाथ में कट्टा, मुंह में सिगरेट लिए दलितों से मारपीट करते दिखाए दिए। बात आगे बढ़ी तो पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर ली। इस घटना से समाज को समझना चाहिए कि धर्म की दुकानदारी करने और सही अर्थों में धर्म का पालन करने में फर्क होता है। मगर समाज फिलहाल अमृतमय हो रहा है। समाज को लिव इन में रह रही लड़कियों से दिक्कत है, लेकिन दहेज के कारण रोज जलाई जा रही लड़कियों से उसे कोई तकलीफ नहीं होती। कोई लड़की मन से शादी कर ले और उस पर भी दूसरे धर्म के लड़के से, तो समाज तलवारें खींचने में देर नहीं करता, लेकिन किसी राह चलती लड़की से छेड़खानी हो, तो यही समाज आंखें फेर लेता है।

भारत की बुनियाद ऐसी चारित्रिक कमजोरी से हिल चुकी है। सन् 47 में बड़ी मुश्किलों से जिन स्तंभों को खड़ा करके भारत की इमारत बुलंद बनाने का ख्वाब देखा गया था, अब वो हिल रहे हैं। दुष्यंत कुमार लिखते हैं:-

मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा,
या यूं कहो कि बक़र् की दहशत नहीं रही।

हमको पता नहीं था हमें अब पता चला,
इस मुल्क में हमारी हकूमत नहीं रही।।

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