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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

कर्नाटक में अभी वहां के लोकायुक्त के छापे में एक भाजपा विधायक के बेटे को 40 लाख रूपये रिश्वत लेते गिरफ्तार किया गया तो उसके पास से 8 करोड़ रूपये और मिले। यह विधायक कर्नाटक सरकार के एक निगम का अध्यक्ष भी था जो कि वहां मैसूर ब्रांड की चंदन वाले साबुन-अगरबत्ती बनाने का काम करता है, और इसी के कारखानों के लिए कच्चे माल की खरीदी के लिए विधायक का यह बेटा रिश्वत ले रहा था। इसके बाद विधायक ने कहा कि उनका विधानसभा क्षेत्र ऐसे संपन्न लोगों का है कि वहां घर-घर में 5-10 करोड़ रूपये नगद पड़े रहते हैं। देश भर में भाजपा की विरोधी पार्टियों और उनकी सरकारों के लोगों पर लगातार ईडी, आईटी, और सीबीआई के छापे पड़ रहे हैं, इस बीच भाजपा विरोधी पार्टियों को कर्नाटक के विधायक के बेटे का यह रिश्वतकांड जवाबी हमले के लिए एकदम तैयार मामला मिला। फर्क यही था कि केन्द्र सरकार की एजेंसियां सरकार के मातहत काम करती हैं, और कर्नाटक का लोकायुक्त एक अलग संवैधानिक संस्था है, जो कि सरकार से परे काम करता है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि केन्द्र सरकार की एजेंसियां भाजपा नेता के खिलाफ भी कार्रवाई करती हैं।

लेकिन आज चर्चा का मुद्दा कुछ और है। किसी सत्तारूढ़ विधायक के बेटे को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकडऩा, और उसके घर से करोड़ों की नगदी निकलना छोटा मामला नहीं था, देश भर के लोगों के लिए 8 करोड़ की रकम सपने में देखने के लिए भी बहुत बड़ी होती है। जब चारों तरफ इस मामले की तस्वीरें छपने लगीं, इसके वीडियो सामने आए, तो इतने संपन्न नेता होने के नाते यह भाजपा विधायक एक अदालत गया। और बेंगलुरू की इस जिला अदालत में पिटीशन में गिनाए गए 46 मीडिया संस्थानों पर यह रोक लगा दी कि वे इस विधायक और उसके बेटे के खिलाफ या अपमानजनक कोई भी बात न छापेंगे, न टीवी पर दिखाएंगे, और न ही उस पर कोई बहस आयोजित करेंगे। यह रोक अगली सुनवाई तक के लिए लगाई गई है, और इस लिस्ट में टाईम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू, एनडीटीवी, आजतक, जैसे प्रमुख और बड़े मीडिया संस्थान हैं। इस विधायक ने अदालत से अपील की थी कि ये सारे मीडिया संस्थान जिस तरह ये खबरें दिखा रहे हैं, वह उसकी चरित्र-हत्या के अलावा और कुछ नहीं है। अदालत ने भी इन खबरों को दिखाने के बाद इन पर होने वाली बहसों को विधायक और बेटे की चरित्र-हत्या मान लिया, और कहा कि चूंकि गरिमा के साथ जीवन एक बुनियादी हक है, इसलिए छापने और प्रसारण पर यह रोक लगाई जा रही है। इसके साथ ही अगली सुनवाई सात हफ्ते बाद तय की गई है।

अभी हमारी नजरों के सामने यह नहीं आया है कि इन बड़े मीडिया संस्थानों ने निचली अदालत के इस आदेश के खिलाफ किसी बड़ी अदालत मेें अपील की है या नहीं, लेकिन सवाल यह उठता है कि जाहिर तौर पर 40 लाख रिश्वत लेते हुए पकड़ाने के बाद विधायक-पुत्र से 8 करोड़ की और नगदी बरामद होना क्या जुर्म के प्रारंभिक सुबूतों से कम है? अगर एक संवैधानिक संस्था की ऐसी कार्रवाई और इतनी रकम के बाद भी अगर इन बाप-बेटे को पहली नजर में दोषी नहीं माना जाएगा, तो फिर देश में किसी भी आरोपी को देश की आखिरी अदालत से सजा मिल जाने के पहले तक संदेह का लाभ देना होगा। यह हैरानी की बात है कि एक हफ्ते पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के एक भूतपूर्व अफसर के मामले में 42 पेज लंबा एक फैसला लिखा जिसमें उसने भ्रष्टाचार से देश और लोकतंत्र को होने वाले खतरों के बारे में बहुत खुलासे से लिखा। और उस फैसले के आने के बाद अब अगर एक जिला अदालत ऐसे खुले भ्रष्टाचार के मामले की खबरों पर रोक लगा रही है, तो यह रोक ऊपर की किसी अदालत में टिकने वाली नहीं दिखती है। इसका मतलब तो यह हो गया कि जो लोग कोई बड़ा वकील करके अदालत तक जा सकते हैं, वहां से अपनी मर्जी का कोई आदेश पा सकते हैं, उनके खिलाफ कुछ छापा या दिखाया नहीं जा सकता। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी पर बहुत सारे अदालती फैसले आने के बाद अगर आज कोई एक जिला अदालत एक साथ 46 अलग-अलग मालिकाना हकों वाले मीडिया संस्थानों पर एकमुश्त ऐसी रोक लगाती है, तो कानून की ऐसी समझ हक्का-बक्का करती है। कोई एक मीडिया संस्थान तो किसी के खिलाफ दुर्भावना से कोई अभियान चलाए, और उस पर कोई अदालत ऐसी रोक लगाए, वह तो फिर भी समझा जा सकता है, लेकिन चार दर्जन मीडिया संस्थानों पर ऐसी रोक लगाना लोकतंत्र के मखौल के अलावा कुछ नहीं है।

हिन्दुस्तान में यह मानकर चलना चाहिए कि कई किस्म के सत्तारूढ़ भ्रष्टाचार किसी न किसी मीडिया की मेहरबानी से ही उजागर होते हैं, लेकिन सत्ता या पैसों की ताकत वाले लोग लगातार मीडिया पर रोक लगाने के लिए अदालती और गैरकानूनी दबाव बनाते ही रहते हैं। लोगों को याद होगा कि देश की एक सबसे बड़ी पत्रिका के संपादक के लिखे हुए के खिलाफ अडानी ने सौ-सौ करोड़ रूपये के मानहानि के मुकदमे किए थे, और फिर उस पत्रिका को अपने संपादक को हटाना ही पड़ गया, और अडानी के वकीलों ने अदालतों से यह आदेश भी हासिल कर लिया कि यह संपादक (जो कि भूतपूर्व हो चुका था) अडानी के बारे में कुछ न लिखे। दुनिया के जिस लोकतंत्र में मीडिया पर इस किस्म की रोक लगाई जाती है, वहां पर सरकार और कारोबार की संगठित भ्रष्ट भागीदारी बढ़ती ही चली जाती है। यह सिलसिला न सिर्फ थमना चाहिए, बल्कि जिस अदालत ने मीडिया पर ऐसी रोक लगाई है, उसके फैसले का विश्लेषण भी किसी बड़ी अदालत को करना चाहिए। अगर इसी तरह की रोक लोगों को मिलती रही, तो फिर इस देश में किसी ताकतवर के खिलाफ कोई खबर बन ही नहीं सकेगी।

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