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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सत्य पारीक॥

रेंग रेंग कर अपना कार्यकाल पूरा करने वाले गहलोत सरकार की 2023 के विधानसभा चुनाव में सत्ता वापसी बेहद मुश्किल है । क्योंकि 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा को छोटे दलों की एकता बड़े बाधा बनने वाली है । छोटे दलों में आम आदमी पार्टी , राजस्थान लोकतांत्रिक पार्टी , बहुजन समाज पार्ट , बी टी पी , वामपंथी दल की आपसी सहयोग करने की तैयारियां चल रही हैं । कांग्रेस राज्य में दो दफा बहुजन समाज पार्टी के आधा आधा दर्जन का विलय अपने दल में कर चुकी है । उसी तरह से मौजूदा कांग्रेस सरकार ने बीटीपी के दोनों विधायकों का समर्थन जुटाया था । आर एल पी के तीन विधायक व एक सांसद भाजपा के साथ हुए थे । इसी तरह से दर्जन भर निर्दलीयों का समर्थन भी कांग्रेस को प्राप्त हुआ था ।
आगामी चुनावों में कांग्रेस-भाजपा की किसी तरह की लहर चलने की सम्भावना नहीं है बल्कि कांग्रेस के विरुद्ध एंटी इनकम्बेंसी की तेज़ हवा अवश्य चलेगी । साथ ही कांग्रेस को पुरानी परम्परा का सामना भी करना होगा क्योंकि राज्य में पांच साल भाजपा व पांच साल कांग्रेस की सत्ता रहती आ रही है । वैसे भी 2008 व 2018 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला । जबकि भाजपा की 2004 व 2013 में पूर्ण बहुमत की सरकार गठित हुई थी । 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 73 सीटें मिली थी जबकि कांग्रेस को 99 सीटें मिली थी ।
कांग्रेस ने अल्पमत की सरकार गठित की थी जो अपने शासनकाल के पांच साल बड़ी मुश्किल से सत्ता में टिकी रही । कांग्रेस में बगावत भी हुई और पार्टी के टूटने की नोबत भी आई , ऐसी स्थिति में कांग्रेस निर्दलीयों का समर्थन बटोर । बसपा के 6 विधायकों का अपने दल में विलय कराया व बीटीपी का समर्थन हासिल कर रखा था जो आगामी चुनाव से पहले ही टूट चुका है । वामपंथी दल के एक विधायक का भी गहलोत सरकार को समर्थन मिला हुआ था । इसी लिये गहलोत सरकार की परिभाषा ये करके की जाती थी कि ” कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनबा जोड़ा ।
गहलोत सरकार को भाजपा ऑपरेशन लोट्स के तहत अन्य राज्यों की सरकारों की तर्ज पर गिरा सकती थी लेकिन उसकी आपसी फूट ने सब कुछ चौपट कर दिया । ऑपरेशन लोट्स की बागडोर अनुभवहीन भाजपा नेताओं के हाथों में था जो गहलोत सरकार को गिराकर अपनी सरकार बनाना चाहते थे । लेकिन सबसे बड़ा रोड़ा कांग्रेस के बागी नेता सचिन पायलट ही बन गए थे क्योंकि पायलट भाजपा का समर्थन लेकर ख़ुद मुख्यमंत्री बनने की चाह में थे जबकि केंद्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत का राजनीतिक खेल पायलट का समर्थन लेकर मुख्यमंत्री बनना था । इसी चक्र में वसुंधरा समर्थक विधायक अलग थलग हो गये थे ।
गहलोत सरकार अपनी सत्ता बचाने के लिए बार बार बाड़ाबंदी में आती जाती रही है जो हो सकता है सचिन के बागी रुख के कारण आगामी विधानसभा चुनाव से पहले फिर ख़तरे में आजाए ? इसी भय से भयभीत मुख्यमंत्री गहलोत विधायक दल की बैठक तक बुलाने की हिम्मत नहीं दिखा रहे हैं । विधानसभा चुनाव घोषित होने के बाद कितने कांग्रेसी विधायक पार्टी से नाता तोड़ लेंगे ये अभी से नहीं कहा जा सकता है । यही हाल भाजपा का है उसके विधायक भी दल बदल करेंगे क्योंकि उनकी चुनावी टिकिट कटेगी ।

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